सोमवार, 29 सितंबर 2025

बेकार, बेकाम नहीं हैं हमारे वृद्धजन

बेकार, बेकाम नहीं हैं हमारे वृद्धजन












प्रो. मनोज कुमार

सक्सेना जी पीएचई विभाग में चीफ इंजीनियर के पद से रिटायर हुए हैं. किसी समय उनकी तूती बोला करती थी लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव में ना केवल वे अकेले हैं बल्कि वृद्धाश्रम का एक कोना उनका बसेरा बन गया है. कभी करोड़ों का मामला सुलटाने वाले अग्रवाल दंपति की कहानी भी यही है. गणित और अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे द्विवेदी दंपति भी उम्र के आखिरी पड़ाव पर वृद्धाश्रम में रह रहे हैं. ये वे लोग हैं जिनकी काबिलियत और अनुभवों से समाज रोशन होता था. उनके अपने बच्चे आज किसी मुकम्मल मुकाम पर हैं तो उनका ही सहारा था. जिन्हें आप माता-पिता कहते हैं, वे शागिर्द आज वृद्धाश्रम में बिसूर रहे हैं. निराश और हताश भी हैं. ये दो चार लोग नहीं बल्कि वृद्धजनों की पूरी टोली है. आपस में बतिया लेते हैं और वृद्धाश्रम के दरवाजे पर टकटकी लगाये देखते हैं कि कहीं बहू-बेटा तो लेने नहीं आए? पोता-पोती की सूरत याद कर हौले से मुस्करा देते हैं लेकिन गोद में उठाकर लाड़ ना कर पाने की हसरत उनके चेहरे पर मायूसी बनकर उभर आती है. यह कहानी घर-घर की होती जा रही है. थोड़ा पैसा, थोड़ा रसूख कमाने के साथ ही वृद्धजन बोझ बनने लगते हैं. और जल्द ही तलाश कर लेते हैं उनके लिए वृद्धाश्रम का कोई कोना. पहले पहल आना-जाना भी होता है लेकिन धीरे-धीरे वह भी भुला दिया जाता है. संस्कारों में रची-बसी भारतीय संस्कृति का यह दुर्भाग्यपूर्ण अध्याय है. इन पर लिखते हुए मैं भी एक गलती कर रहा हूँ क्यों एक दिन वृद्धजन दिवस पर लिख रहा हूँ. क्यों साल में बार-बार इस बात का स्मरण नहीं कराता हूँ. सच है लेकिन यह दिन इसलिए चुना कि आज अंतरराष्ट्रीय दिवस वृद्धजन के बहाने लोग पढ़ तो लेेंगे. खास बात यह है कि हमारे वृद्धजन लिए नहीं बल्कि बाजार का दिन है. उम्र भर लतियाते वृद्धजनों का ऐसा सम्मान किया जाएगा कि लगेगा कि कुछ हुआ ही नहीं. इसी दुर्भाग्यपूर्ण अध्याय की चर्चा कर रहा हूँ.  

क्या ही हैरानी की बात है कि जिनसे हम रौशन हैं, जिनसे हमारा घर रौशन है, उनके लिए हमने एक दिन तय कर दिया है और नाम दे दिया है वृद्धजन दिवस. और इसका फलक बढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय कर दिया है. यूरोप की मानसिकता में वृद्धजन  के लिए यह सौफीसदी मुफीद हो सकता है लेकिन भारतीय सनातनी संस्कृति में वृद्धजन बेकार और बेकाम नहीं हैं लेकिन दुर्र्भाग्य से हमने भी यूरोपियन संस्कृति का अंधानुकरण कर उन्हें बेकार और बेकाम मान लिया है. उम्र के आखिरी पड़ाव में ठहरे वृद्धजनों के पास अनुभव है, कौशल है और है दुनियादारी की वह समझ लेकिन वे निहायत अकेले होकर वृद्धाश्रम में अपना समय गुजार रहे हैं. कितनी विडम्बना है कि एक तरफ हम सनातनी होने और संस्कार की दुहाई देते नहीं थकते और दूसरी ओर वृद्धजन की उपेक्षा और तिरस्कृत करने में पीछे नहीं हटते. आखिर क्या मजबूरी हो गई कि जिनकी छाँह में पलकर हम बढ़े हुए, वही हमारे लिए बोझ बन गए? क्यों हम उनके अनुभवों का लाभ लेकर जीवन को संवार नहीं पा रहे हैं? क्या कारण है कि उन्हें साथ रखते हुए कथित प्रायवेसी में बाधा आ रही है? सवाल अनेक हैं लेकिन सवालों के बीच अपने दुख और अहसास के बीच घुटते-घबराते वृद्धजनों की सुध कौन लेगा? क्या वृद्धाश्रम ही अंतिम विकल्प है.

वृद्धजनों को घर से बाहर निकाल देना, उनके साथ शारीरिक हिंसा करना और उन्हें अपमानित करने की खबरें अब रोजमर्रा की हो गई हैं. संवेदहीन होते समाज में वृद्धजन दिवस बाजार के लिए एक दिन है. वृद्धजनों को उत्पाद बना दिया जाएगा. दरअसल बाजार से बाहर आकर इन वृद्धजनों के टैलेंट का उपयोग करना होगा. परिवार के नालायक बच्चों ने वृद्धजनों को वृद्धाश्रम में भेज दिया है तो समाज का, सरकार का दायित्व है कि उन्हें मुख्यधारा में लाकर उनकी ना केवल प्रतिभा का सम्मान करे बल्कि उन्हें सम्मानपूर्वक जीने का हौसला दे. देशभर के शासकीय स्कूलों की हालत एक जैसी है. शिक्षकों की कमी है तो इस कमी को इन वृद्धजनों  से पूरा क्यों नहीं किया जा सकता है? इन्हें स्कूलों में अध्यापन का अवसर दिया जाए और बदलेे में सम्मानजनक मानदेय. ऐसा करने से उनके भीतर का खोया आत्मविश्वास लौटेगा. वे स्वयं को सुरक्षित और उपयोगी समझेंगे तो डॉक्टर और दवा से उनकी दूरी बन जाएगी. एक बेटे, पोते-पोती की कमी को दूर कर सकेंगे. स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता आएगी. आखिरकार अनुभव अनमोल होता है. 

कुछ वृद्धजन गणित, विज्ञान, हिन्दी, अंग्रेजी और अन्य विषयों के जानकार होंं लेकिन कुछ वृद्धजन ऐसे होंगे जो विषयों के सिद्धहस्त ना होंं लेकिन दूसरी विधा के जानकार हों, उन्हें कौशल विकास के कार्यों में नई पीढ़ी को दक्ष करने के कार्य में उपयोग किया जाना चाहिए. वृद्धाश्रम के भीतर ही कौशल उन्नयन की कक्षा आयोजित कर उत्सुक युवाओं को प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे सीख सकें. अध्यापन का कार्य हो या कौशल उन्नयन का. ज्यादा कुछ नहीं तो वृद्धाश्रम के भीतर ही हम विविध विषयों की साप्ताहिक कोचिंग कक्षा के संचालन की शुरूआत कर सकते हैं. जिसमें विषय की शिक्षा तो होगी ही, विविध कलाओं की कक्षाएं भी होंगी. जो जिस विधा में पारंगत है, वे उसमें सक्रिय हो जाएंगे. इन गतिविधियों में वृद्धजनों का जुड़ाव होगा तो वे वापस स्वस्थ्य और प्रसन्न हो जाएंगे. जिंदगी के प्रति उनका अनुराग बढ़ जाएगा. हौसला बढ़ेगा तो वे दवा से दूर हो जाएंगे. 

बस, थोड़ा सा हमें उनके प्रति मेहनत करना है. थोड़ा सा साहस देना है. परिवार से टूटे लोग शरीर से ज्यादा मन से टूट जाते हैं और मन से टूटे को जोडऩा आसान नहीं होता लेकिन मुश्किल कुछ भी नहीं है. दो को खड़ा कीजिए, दस अन्य स्वयं सामने आ जाएंगे. इसमें जेंडर का कोई भेद नहीं हैं. वृद्धजनों का अर्थ माता और पिता दोनों ही हैं और दोनों ही अपने बच्चों से सताये हुए हैं. इस बार वृद्धजन दिवस पर हमें, हम सबको संकल्प लेना होगा कि अबकी बार वे वृद्धाश्रम में नहीं, कौशल की पाठशाला में रह रहे होंगे. वृद्धाश्रम  को कौशल की पाठशाला में परिवर्तन ही भारतीय संस्कृति की ओर वापसी का पहला कदम होगा. नालायक बच्चों के लिए यह एक पाठ होगा कि उन्होंने कौन सा अनमोल हीरा गंवा दिया है. बाजार को अपना काम करने दीजिए, हम सब अपना काम करेंगे. एक बार कोशिश तो करके देखिए. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)

बापू कुछ मीठा हो जाए..

 

प्रो. मनोज कुमार
बापू इस बार आपको जन्मदिन में हम चरखा नहीं, वालमार्ट भेंट कर रहे हैं. गरीबी तो खतम नहीं कर पा रहे हैं, इसलिये  गरीबों को  खत्म करने का अचूक नुस्खा हमने इजाद कर लिया है. खुदरा बाजार में हम विदेशी पंूजी निवेश को अनुमति दे दी है. हमें ऐसा लगता है कि समस्या को ही नहीं, जड़ को खत्म कर देना चाहिए और आप जानते हैं कि समस्या गरीबी नहीं बल्कि गरीब है और हमारे इन फैसलों से समस्या की जड़ गरीब ही खत्म हो जाएगी. बुरा मत मानना, बिलकुल भी बुरा मत मानना. आपको तो पता ही होगा कि इस समय हम इक्कसवीं सदी में जी रहे हैं और आप हैं कि बारमबार सन् सैंतालीस की रट लगाये हुए हैं कुटीर उद्योग, कुटीर उद्योग. एक आदमी चरखा लेकर बैठता है तो जाने कितने दिनों में अपने एक धोती का धागा जुटा पाता है. आप का काम तो चल जाता था  लेकिन हम क्या करें. समस्या यह भी नहीं है, समस्या है कि इन धागों से हमारी सूट और टाई नहीं बन पाती है और आपको यह तो मानना ही पड़ेगा कि इक्कसवीं सदी में जी रहे लोगों को धोती नहीं, सूट और टाई चाहिए वह भी फटाफट... हमने गांव की ताजी सब्जी खाने की आदत छोड़ दी है क्योंकि डीप फ्रीजर की सब्जी हम कई दिनों बाद खा सकते हैं. दरअसल आपके विचार हमेशा से ताजा रहे हैं लेकिन हम लोग बासी विचारों को ही आत्मसात करने के आदी हो रहे हैं. बासा खाएंगे तो बासा सोचेंगे भी. इसमें गलत ही क्या है?
        बापू माफ करना लेकिन आपको आपके जन्मदिन पर बार बार यह बात याद दिलानी होगी कि हम इक्कसवीं सदी में जी रहे हैं. जन्मदिन, वर्षगांठ बहुत घिसेपिटे और पुराने से शब्द हैं, हम तो बर्थडे और एनवरसरी मनाते हैं. अब यहाँ भी देखिये कि जो आप मितव्ययता की बात करते थे, उसे हम नहीं भूला पाये हैं इसलिये शादी की वर्षगांठ हो या मृत्यु , हम मितव्ययता के साथ एक ही शब्द का उपयोग करते है एनवरसरी. आप देख तो रहे होंगे कि हमारी बेटियां कितनी मितव्ययी हो गयी हैं. बहुत कम कपड़े पहनने लगी हैं. अब आप इस बात के लिये हमें दोष तो नहीं दे सकते हैं ना कि हमने आपकी मितव्ययता की सीख को जीवन में नहीं उतारा. सडक़ का नाम महात्मा गाँधी रोड रख लिया और मितव्ययता की बात आयी तो इसे एम.जी. रोड कह दिया. यह एम.जी. रोड आपको हर शहर में मिल जाएगा. एम.जी. रोड रखने से हम गंतव्य तक तो पहुँच जाएंगे लेकिन रोड की जगह मार्ग रख देते तो मुश्किल आ पड़ती. लोग कहते गाँधीमार्ग पर चलना कठिन है...एम.जी. रोड ही ठीक है.. अभी तो यह शुरूआत है बापू, आगे आगे देखिये हम मितव्ययता के कैसे कैसे नमूने आपको दिखायेंगे.
        अब आप गुस्सा मत होना बापू क्योंकि हमारी सत्ता, सरकार और संस्थायें आपके नाम पर ही तो जिंदा है. आपकी मृत्यु से लेकर अब तक तो हमने आपके नाम की रट लगायी है. कांग्रेस कहती थी कि गाँधी हमारे हैं लेकिन अब सब लोग कह रहे हैं कि गाँधी हमारे हैं. ये आपके नाम की माया है कि सब लोग एकजुट हो गये हैं. आपकी किताब  हिन्द स्वराज पर बहस हो रही है, बात हो रही है और आपके नाम की सार्थकता ढूंढ़ी जा रही है. ये बात ठीक है कि गाँधी को सब लोग मान रहे हैं लेकिन गाँधी की बातों को मानने वाला कोई नहीं है लेकिन क्या गाँधी को मानना, गाँधी को नहीं मानना है. बापू आप समझ ही गये होंगेकि इक्कसवीं सदी के लोग किस तरह और कैसे कैसे सोच रखते हैं. अब आप ही समझायें कि हम ईश्वर, अल्लाह, नानक और मसीह को तो मानते हैं लेकिन उनका कहा कभी माना क्या? मानते तो भला आपके हिन्दुस्तान में जात-पात के नाम पर कोई फसाद हो सकता था. फसाद के बाद इन नामों की माला जप कर पाप काटने की कोशिश जरूर करते हैं.
बापू छोड़ो न इन बातों को, आज आपका जन्मदिन है. कुछ मीठा हो जाये. अब आप कहेंगे कि कबीर की वाणी सुन लो, इससे मीठा तो कुछ है ही नहीं. बापू फिर वही बातें, टेलीविजन के परदे पर चीख-चीख कर हमारे युग नायक अमिताभ कह रहे हैं कि चॉकलेट खाओ, अब तो वो मैगी भी खिलाने लगे हैं. बापू इन्हें थोड़ा समझाओ ना पैसा कमाने के लिये ये सब करना तो ठीक है लेकिन इससे बच्चों की सेहत बिगड़ रही है,  वो तो कह रहे हैं कर्ज लेकर घी पीओ..कभी वो किसी सोना खरीदने की बात करते हैं तो कभी उसी सोने को गिरवी रखकर घर चलाने का मशवरा देते हैं.. बापू हो सके तो इनको समझाओ ना... बच्चों की सेहत और बड़ों की मेहनत को तो बेकार ना करो... उससे तो पैसा न कमाओ. मैं भी भला आपसे ये क्या बातें करने लगा. आपको तो पता ही नहीं होगा कि ये युग नायक कौन है और चॉकलेट मैगी क्या चीज होती है. खैर, बापू हमने शिकायत का एक भी मौका आपके लिये नहीं छोड़ा है. जानते हैं हमने क्या किया, हमने कुछ नहीं किया. सरकार ने कर डाला. अपने रिकार्ड में आपको उन्होंने कभी कहीं राष्ट्रपिता होने की बात से साफ इंकार कर दिया है. आप हमारे राष्ट्रपिता तो हैं नहीं, ये सरकार का रिकार्ड कहता है. बापू बुरा मत, मानना. कागज का क्या है, कागज पर हमारे बापू की शख्सियत थोड़ी है, बापू तो हमारे दिल में रहते हैं लेकिन सरकार को आप जरूर सिपाही बहादुर कह सकते हैं. बापू माफ करना हम इक्कसवीं सदी के लोग अब चरखा पर नहीं, वालमार्ट पर जिंदा रहेंगे. इस बार आपके बर्थडे पर यह तोहफा आपको अच्छा लगे तो मुझे फोन जरूर करना. न बापू न..फोन नहीं, मोबाइल करना और इंटरनेट की सुविधा हो तो क्या बात है..बापू कुछ मीठा हो जाए...(व्यंग्य या कविता लिखना नहीं जानता लेकिन कभी-कभार मन हो जाता है. बस यूं ही.)

बेकार, बेकाम नहीं हैं हमारे वृद्धजन

बेकार, बेकाम नहीं हैं हमारे वृद्धजन प्रो. मनोज कुमार सक्सेना जी पीएचई विभाग में चीफ इंजीनियर के पद से रिटायर हुए हैं. किसी समय उनकी तूती बोल...