पानी में आग लगाने की koshishamiidiyaa एवं संस्कृति पर एकाग्र मासिक पत्रिका समागम के जून २००८ के अंक में सुरेश नंदमेहर के बारे में एक आलेख का प्रकाशन किया गया था। पेशे से चमड़े का काम करने वाले सुरेश एक आठपृष्ठीय टेबुलाइट साईज में मासिक अखबार का प्रकाशन करते हैं। उनका यह श्रम एवं लगन कई और साथियों को प्रेरणा दे सकता है। इस उम्मीद के साथ। भोपाल के सुरेश नंदमेहर एक मामूली चर्मकार हैं। अन्याय सहना उनकी फितरत में नहीं है और इसी फितरत के चलते उन्होंने पानी में आग लगाने जैसा काम करने निकल पड़े हैं। चर्मकार समाज की मांग को लेकर २७ दिनों तक भोपाल के रोशनपुरा चौराहे पर धरने पर बैठे सुरेश को जब अखबारों में पर्याप्त जगह नहीं मिली तो उन्होंने मन में ठान लिया कि अब वे अखबारों में अपनी खबर छपवाने के लिए नहीं जाएंगे बल्कि अपना अखबार निकालेंगे जो उनके समाज की आवाज उठाने में आगे रहेगा। इस तरह एक अखबार का जन्म हुआ और नाम रखा गया बाल की खाल। यह सुरेश का ही साहस था कि जेब में फूटी कौड़ी नहीं और अखबार शुरू करने की ठान ली। सुरेश नंदमेहर भक्त कवि रैदास की परम्परा को कहीं आगे बढ़ाते दिखते हैं तो कहीं उनकी ताकत दुष्यंत कुमार के गजल की वह लाईनें हैं जिसमें उन्होंने लिखा था- कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों। कहना नहीं होगा कि सुरेश ने आसमां में सुराख कर दिखाया है। लगातार पांच सालों से बिना नागा किए मासिक रूप में अखबार का प्रकाशन उसके भीतर सुलगती आग है। एक चर्मकार से पत्रकार बनने की तथाकथा सुनाते समय सुरेश के चेहरे पर कभी चमक आ जाती है तो कई बार निराश भी दिखता है। निराशा को वह अपने पास फटकने देना नहीं चाहता और इसलिए वह जल्दी उबर जाता है। उसकी शिकायत जमाने भर से है और यह शिकायत उसे अपनों से है। समाज के हक के लिए लड़ने को निकले सुरेश को कदम-कदम पर विरोध का सामना करना पड़ता है। कभी उसकी गरीबी आड़े आती है तो कभी उसकी वह औपचारिक शिक्षा जो पत्रकारिता के लिए जरूरी है। वह गरीबी और औपचारिक पत्रकारिता शिक्षा को लेकर बहुत चिंतित नहीं रहता है। उसका मानना है कि उसके इस काम में पत्रकारिता के अनुभव रखने वाले अनेक साथियों की खूब मदद मिलती है। सुरेश बताता है कि शासन ने हम लोगों को अपने परम्परागत पेशा जारी रखने के लिए गुमटियां दी थी लेकिन वह गुमटियां इतनी छोटी थी कि इसमें हमारा गुजारा नहीं चलता था सो हमने इसके लिए शासन और अफसरों से मान-मनौव्वल की लेकिन किसी के कान में जूं नहीं रेंगी। विरोधस्वरूप हमारे समाज के लोगों ने रोशनपुरा चौराहे पर धरना दिया। अखबारों से अपेक्षा थी कि हमारी मांगों को वे अपने अखबारों में प्रमुखता से जगह देंगे। जगह तो मिली लेकिन आवाज बुलंद करने लायक नहीं और इसी का खामियाजा हमें भुगतना पड़ा। लगातार २७ दिनों तक हम धरने पर बैठे रहे और बेनतीजा धरना खत्म करना पड़ा। अखबारों में धरने की खबर प्रमुखता से नहीं छपने के कारण शासन-प्रशासन भी गंभीर नहीं हुआ और हमारी मांग अधूरी रह गई।इस घटना ने मेरे भीतर विद्रोह पैदा कर दिया और मैंने तय कर लिया कि अब खुद का अखबार निकाला जाए और अपनी बात लिखी जाए। अखबार निकालने की औपचारिकता से मैं अपरिचित था लेकिन पत्रकार दोस्त संतोष तिवारी ने मदद की और मुझे बाल की खाल नाम दिल्ली से मिल गया। खबर में बाल की खाल निकाली जाती है लेकिन इस नाम के पीछे की कहानी भी दूसरी है। मेरे पास इतना पैसा तो था नहीं कि अखबार के प्रकाशन का खर्चा उठा सकूं तो अपने एक नाई मित्र से कहा कि तेरा पेशा बाल का है और मेरा खाल का (जूते बनाने का) तो क्यों न हम दोनों मिलकर अखबार शुरू करें। उसकी मौखिक सहमति के बाद अखबार के लिए नाम बाल की खाल भेजा। बाद में मेरा वह दोस्त बैंक की नौकरी में चला गया और मैंने अकेले ही अखबार का प्रकाशन शुरू किया।सुरेश बताते हैं कि समाज के कुछ लोगों की मदद से अखबार छपने लगा। दिल्ली और मुंबई के समाज के लोगों का प्रोत्साहन भी मिला। समाज के लोगों ने आर्थिक सहायता देकर मेरे काम की निरंतरता बनाये रखी। अब जनसम्पर्क संचालनालय और दूसरे विभागों से भी विज्ञापन के रूप में आर्थिक सहायता मिलने लगी है। सुरेश बताते हैं कि वर्तमान समय में बाल की खाल की कोई साढ़े सात हजार प्रतियां छपती हैं और इसके वार्षिक सदस्य भी हैं। विज्ञापनों के रूप में प्राप्त राशि से छपाई का खर्च निकल आता है। समाचार प्राप्ति, संपादन और छपाई की प्रक्रिया के बारे में सुरेश बताते हैं कि अलग अलग स्थानों से पत्रकारिता में रूचि रखने वाले साथी समाचार भेज देते हैं। मैं और समाज के कुछ लोग जो कि इसमें रूचि रखते हैं, संपादन में सहयोग करते हैं। शासन की हमारे समाज के लिए बनाये गए कार्यक्रमों का विवरण भी प्रकाशित करते हैं ताकि लोगों को इसका लाभ मिल सके।एक चर्मकार द्वारा समाचार पत्र के प्रकाशन की बात तो बहुत लोगों को मालूम है लेकिन बहुत थोड़े से लोगों को यह बात मालूम होगी कि सुरेश लेटर प्रेस के दिनों में कम्पोजिंग का काम करता था और उसने यह काम सीखा भी है। उसकी रूचि आरंभ से अपने परम्परागत पेशे से परे पत्रकारिता में रही है लेकिन जीवनयापन के लिए उसे अपने परम्परागत व्यवसाय पर ही निर्भर रहना पड़ता है।बाल की खाल के पांच साला सफर का अनुभव सुरेश नंदमेहर के लिए खट्टा-मीठा रहा है। मंत्री गोपाल भार्गव हों या कमिश्नर जनसम्पर्क जब सुरेश को बाल की खाल के नाम से पुकारते हैं तो उसके चेहरे पर प्रसन्नता झलकने लगती है। कई बार इसके कारण कई पत्रकार नाराज भी हो जाते हैं, ऐसे में सुरेश दुखी हो जाता है। उसे खुशी इस बात की भी है कि अपने अखबार के सिलसिले में वह अधिकारियों से मेल-मुलाकात करता रहता है लेकिन कभी किसी ने सुरेश नंदमेहर को अनदेखा नहीं किया बल्कि उसके प्रयास की सराहना ही हुई है।सुरेश नंदमेहर की इच्छा है कि एक बार वह मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान से जरूर मिले। वह याद करता है कि भोपाल के पॉलिटेक्निक चौराहे पर उसके पिता की दुकान थी और तब शिवराजसिंह चौहान हमीदिया कॉलेज में पढ़ रहे थे। इस बीच उसकी इक्का-दुक्का मुलाकात है। शिवराजसिंह की सहजता से सुरेश प्रभावित है।यह पूछे जाने पर कि दिनभर अखबार के लिए भागदौड़ और देर रात तक दुकान पर काम करने के बाद कभी ऐसा नहीं लगा कि अब जूते-चप्पल की दुकान बंद कर दी जाए, इस पर सुरेश कहते हैं कि दुकान बंद कर दिया तो मेरा और मेरे बच्चों का क्या होगा, उन्हें खाना-कपड़ा कहां से मिलेगा....वह कहता है न तो मुझे जूता बनाने में शर्म है और न बताने में...अखबार तो माध्यम है मेरे भीतर के गुस्से को निकालने का...यह मेरे जीवनयापन का जरिया नहीं है...यह ठीक है कि इस धंधे से मेरी तबियत पर विपरीत असर हो रहा है लेकिन इसका कोई विकल्प भी तो नहीं है।अखबार प्रकाशन का सुरेश को जुनून है और इसलिए शाम पांच बजे से रात बारह बजे तक अपनी दुकान में जूते बनाने और मरम्मत का काम करने के बाद सुबह से अखबार के लिए सक्रिय हो जाता है। चार बच्चों के पिता सुरेश नहीं चाहता है कि उसके बच्चे चर्मकारी के पुश्तैनी धंधे को अपनाये। वह अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देना चाहता है और दे भी रहा है। सबसे बड़ी बिटिया अनिता इस साल १२वीं कक्षा में पहुंच गयी है और पिता के अखबारी कामकाज को कुशलता से सम्हालती है। १०वीं पढ़ने वाले दूसरे नम्बर के जितेन्द्र की रूचि जूते के दुकान में बैठने की नहीं है। वह भी पिता के अखबार में रूचि लेता है।
-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे। किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आसान नहीं है कि यही वह छत्तीसगढ़ है जिसने महज डेढ़ दशक के सफर में चौतरफा विकास किया है। विकास भी ऐसा जो लोकलुभावन न होकर छत्तीसगढ़ की जमीन को मजबूत करता दिखता है। एक नवम्बर सन् 2000 में जब समय करवट ले रहा था तब छत्तीसगढ़ का भाग्योदय हुआ था। साढ़े तीन दशक से अधिक समय से स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करते छत्तीसगढ़ के लिये तारीख वरदान साबित हुआ। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी कुछ विश्वास और असमंजस की स्थिति खत्म नहींं हुई थी। इस अविश्वास को तब बल मिला जब तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार नही हो सका था। कुछेक को स्वतंत्र राज्य बन जाने का अफसोस था लेकिन 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता सम्हाली और छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लू प्रिंट सामने आया तो अविश्वास का धुंध छंट गया। लोगों में हिम्मत बंधी और सरकार को जनसमर्थन मिला। इस जनसमर्थन का परिणाम यह निकला कि आज छत्तीसगढ़ अपने चौतरफा विकास के कारण देश के नक्शे
Suresh se main dostee karna chaahta hoon. Aise himaat waale logon kee vajeh se hee samaaj mein garv karne laayaq cheezein bachee huyee hain.Kripaya bataayen ki unkee patrika ka graahak kaise banaa jaa sakta hai.
जवाब देंहटाएंsuresh nandmehar ka m-no. 09893326453
जवाब देंहटाएंकाबिल-ए-तारीफ। जज््बे को सलाम।
जवाब देंहटाएंthanks samagam from bal ki khal
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