-मनोज कुमार
2014 के आम चुनाव के परिणाम के बाद भारत की दो बड़ी पार्टी क्रमश: भारतीय जनता पार्टी एवं कांग्रेस का अस्तित्व लगभग समाप्त की ओर है। केन्द्र में कहने को तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार है लेकिन पूरा संसार गवाह है कि केन्द्र में भाजपा नहीं, नरेन्द्र मोदी की सरकार यह आम चुनाव भाजपा ने मोदी को आगे रखकर लड़ा और नारा दिया अबकी बार मोदी सरकार अर्थात भाजपा ने स्वयं के पैर खींच लिये। इसलिये अब लाख हल्ला मचाने के बाद भी सत्य यही है कि भाजपा नेपथ्य में चली गयी है और नरेन्द्र मोदी की सरकार है। भाजपा नरेन्द्र मोदी को सामने रखकर हल्ला मचा ले कि केन्द्र में उसकी सरकार है लेकिन कांग्र्रेस तो हाशिये पर पड़ी है। भाजपा के नेपथ्य में चले जाने की बात जितनी सच है, उतना ही सच कांग्रेस का हाशिये पर रहना है। कांग्रेस तो कह भी नहीं पा रही है कि कांग्रेस किसकी है। कांग्रेस के सामने अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष की स्थिति है और इस स्थिति से उबरने के लिये उसकेे पास कोई संकटमोचक नहीं है। इस आम चुनाव के बाद एक नारा अप्रत्यक्ष रूप से गूंज रहा है कि एक थी भाजपा, एक थी कांग्रेस।
देश इस बात से प्रसन्न है कि तीन दशक बाद भारत की राजनीति गठबंधन सरकार से मुक्त हुई है। इस मामले में अप्रसन्नता का कोई सवाल नहीं है लेकिन रंज इस बात का रहा कि तीन दशक बाद जो बदलाव हुये, वह व्यक्तिवाद में बदल गया। भाजपा सरकार में आ जाती तो शिकायत कम होती लेकिन मोदी की सरकार का आना रंज का विषय है। दरअसल, मोदी सरकार का आना, उसी राजनीतिक इतिहास को दोहराना है जैसा कि कांग्रेस न आकर इंदिरा गांधी का आना था। मोदी और इंदिरा गांधी में भिन्नतायें आप देख सकते हैं तो उनमें अनेक समानतायें भी दिखेंगी। उनमें जो पहली समानता दिखती है, वह है दोनों का डॉयनामिक नेचर। इंदिरा गांधी कांग्रेस पर हावी रहीं और कांग्रेस के टूटने के बाद जो कांग्रेस बनी वह इंदिरा कांग्रेस थी लेकिन मोदी के साथ फिलवक्त मामला ऐसा नहीं है लेकिन मोदी भाजपा के नहीं हैं बल्कि मोदी की भाजपा है, जैसे जयघोष अप्रत्यक्ष रूप से गूंज रहा है। मोदी की कार्यप्रणाली को लेकर ऐसा दृश्य उपस्थित करने का प्रयास किया जा रहा है कि मानो वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने गये देश के प्रधानमंत्री न होकर कोई तानाशाह हैं। इसी तानाशाही की शिकार इंदिरा गांधी भी थीं और आपातकाल इसका उदाहरण है। इसमें दो राय नहीं कि नरेन्द्र मोदी को आगे करके भाजपा ने जो जीत के लिये रास्ता चुना था, उसी रास्ते में वह पीछे छूट गयी, जैसे इंदिरा गांधी आगे निकल गयी थीं और कांग्रेस पीछे छूट गयी थी।
एक बड़ा सवाल यह है कि इंदिरा गांधी के जाने के बाद कांग्रेस में एकदम से रिक्तता आ गयी, क्या वही इतिहास भाजपा में भी दोहराया जायेगा। अटलविहारी वाजपेयी के बाद आडवानी के बाद भाजपा में यह स्थिति बन रही थी कि नरेन्द्र मोदी ने सम्हाल लिया। कांग्रेस में भी स्थिति लगभग ऐसी ही रही लेकिन कांग्रेस पर परिवादवाद का आरोप लगता रहा। इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी ने देश की सत्ता सम्हाली और शहीद हो गये तो गांधी परिवार से छायामुक्त नरसिंहराव ने प्रधानमंत्री का पद सम्हाला। उनके पास बहुमत नहीं था लेकिन अनुभव के सहारे उन्होंने कार्यकाल पूरा किया। आपातकाल के बाद से 2014 के आम चुनाव के बाद से गैर-कांग्रेसी सरकारें बनी लेकिन उनका प्रभाव नहीं दिखा। यह सरकारें गठबंधन सरकारें थी जो स्वतंत्र रूप से फैसला लेने में सक्षम नहीं कही जा सकती थीं। खैर, इसके बाद 10 वर्षों तक कांग्रेस गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री रहे मनमोहनसिंह इस आरोप से मुक्त नहीं हो सके कि उनकी कार्यप्रणाली पर गांधी परिवार की छाया है। राहुल गांधी का मिजाज एक नौजवान के रूप में रही, वे अनुभवहीन थे सो कांग्रेस में वे सर्वमान्य विकल्प बनकर स्थापित नहीं हो पाये।
कांग्रेस इस समय अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। केन्द्र में नेता प्रतिपक्ष के रूप में मान्यता पाने के लिये उसे ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है। आजादी के बाद से शायद यह पहला वक्त होगा कि देश की बागडोर सम्हालने वाली कांग्रेस पार्टी को विपक्ष के रूप में खड़ा होने का अवसर भी नहीं मिल रहा है। हालांकि इसके लिये उनके पास पर्याप्त संख्या में सांसदों का नहीं होना, एक तथ्यात्मक कमजोरी है। नरेन्द्र मोदी के स्थान पर भाजपा को कोई अन्य नेता यथा अटलविहारी वाजपेई या आडवाणी होते तो शायद कांग्रेस को विपक्ष का दर्जा मिल चुका होता लेकिन इस मामले में कोई रियायत देते नरेन्द्र मोदी नहीं दिखते हैं। कांग्रेस का संकट यहां तक ही नहीं है बल्कि कांग्रेसशासित राज्यों में जो घमासान मचा हुआ है, वह भी पार्टी के दिग्गजों की नींद उड़ा रहे हैं। निश्चित रूप से इसका लाभ नरेन्द्र मोदी के खाते में जा रहा है। वे कांग्रेस के घमासान को थमते देखना नहीं चाहते हैं क्योंकि आने वाले समय में जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है, उसमें भी वे अपनी विजय देखना चाहते हैं। कोई संदेह राज्य विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन उनकी अपेक्षाओं के विपरीत न हो। ऐसी हालत में कांग्रेस के समक्ष अस्तित्व बचाने का संकट है लेकिन संकटमोचक के रूप में कोई नहीं दिख रहा है।
भाजपा भी इस समय खामोशी की मुद्रा में है। लोकसभा में 273 से आगे बढक़र 282 सीटें जीतने वाले नरेन्द्र मोदी निर्विवाद प्रधानमंत्री हैं तो भाजपा में एकछत्र नेता भी। अब उन्होंने अपने पसंद से भाजपा का अध्यक्ष अपने विश्वस्त अमित शाह को भी बना दिया है। कोई कुछ भी कहे लेकिन नरेन्द्र मोदी में इंदिरा गांधी का अक्स दिख रहा है और वे जो चाहते हैं, जैसा चाहते हैं, वैसा ही भाजपा में हो रहा है और होता रहेगा क्योंकि केन्द्र में भाजपा नहीं, नरेन्द्र मोदी की सरकार है। भाजपाशासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी मोदी से भयभीत हैं। कभी केन्द्र की कांग्रेस गठबंधन सरकार को आंखें दिखाकर मनमाना राहत राशि बटोरने वाले राज्यों को मोदी का दो टूक जवाब मिल रहा है। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुये नरेन्द्र मोदी ने केन्द्र के सहायता मांगने के बजाय अपने संसाधनों से गुजरात को बेहतर बनाने की कोशिश और वे इसी का उदाहरण अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्रियों को भी दे रहे हैं। भाजपाशासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की मुसीबत यह है कि वे मोदी के खिलाफ जा भी नहीं सकते हैं। ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो मोदी की दबंगता और उनके प्रभावों को दिखाती है। यहां फिर से भाजपा नेपथ्य में और मोदी मंच पर दिखते हैं। कांग्रेस इस समय जिस स्थिति में है, उससे उबरने में उसे शायद वक्त लगेगा। उबर पायेगी या नहीं, इसकी भी चिंता उनके अपने नेताओं की नहीं दिख रही है। सबकुछ ऐसा ही चलता रहा तो कहा जायेगा एक थी भाजपा, एक थी कांग्रेस।
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