शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

कैंपस कॉरिडोर


 एमसीयू को मिले कुलाध्यक्ष

सी.पी. राधाकृष्णन देश के 15वें  उपराष्ट्रपति होंगे और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के नए कुलाध्यक्ष होंगे. उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ के इस्तीफे बाद से विश्वविद्यालय का कुलाध्यक्ष पद रिक्त था. 12 सितंबर को पदभार ग्रहण करने के बाद श्री राधाकृष्णन कुलाध्यक्ष होंगे. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के विधान के अनुरूप देश के उपराष्ट्रपति कुलाध्यक्ष होते हैं. विश्वविद्यालय के पहले कुलाध्यक्ष श्री भैरोसिंह शेखावत रहे. मो. हामिद अंसारी, श्री एम. वेंकैया नायडु एवं श्री जगदीप धनखड़ के पश्चचात श्री राधाकृष्णन पाँचवें कुलाध्यक्ष होंगे.

अज़ीमजी प्रेमजी स्कॉलरशिप

अज़ीम प्रेमजी स्कॉलरशिप पहल के तहत ज़रूरतमंद छात्राओं को कॉलेज शिक्षा हासिल करने के लिए मदद की जाती है। इस स्कॉलरशिप के तहत कॉलेज की शिक्षा हासिल करने के लिए मदद के तौर पर वार्षिक 30,000 रुपयों की सहायता की जाती है.  यह स्कॉलरशिप छात्राओं के पहले ग्रैजुएशन के लिए डिग्री या डिप्लोमा पूरा होने तक उपलब्ध कराई जाएगी.स्थानीय सरकारी स्कूलों या कॉलेज से 10वीं और 12वीं कक्षा नियमित विद्यार्थी के रूप में पास होना अनिवार्य है. यह स्कूल नीचे बताए गए राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में होना चाहिए।आवेदन के समय भारत में कहीं भी सरकारी संस्थान या विश्वसनीय प्रामाणिक निजी कॉलेज या विश्वविद्यालय के मान्यता प्राप्त स्नातकउपाधिया डिप्लोमा (2 से 5 वर्षों की समयावधि वाले) के प्रथम वर्ष (2025-26 के अकादमिक सत्र) में नियमित छात्रा के रूप में प्रवेश प्राप्त किया होना चाहिए. पहले चरण के आवेदन की प्रक्रिया आरंभ हो चुका है. अधिक जानकारी या सवाल के लिए अज़ीमजी प्रेमजी स्कॉलरशिप के वेबसाइट को देखें 

पीएचडी करें यहां से

सेंट्रल संस्कृत यूनिवर्सिटी में पीएचडी के लिए आवेदन की आखिरी तारीख 15 सितंबर है। दिसंबर 2024 और 25 नेट, जेआरएफ स्टूडेंट्स ही पात्र होंगे। अधिक जानकारी के लिए विवि की वेबसाइट देखें। हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में पीएचडी के लिए ऑनलाइन आवेदन करने की तारीख 17 सितंबर है।

इग्नू में बचा है मौका

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अब एडमिशन 15 सितंबर तक होंगे। साथ में 200 रुपया अदा कर इसी तारीख तक री रजिस्ट्रेशन कराया जा सकता है। जिन्हें एडमिशन लेना है, वह इग्नू की वेबसाइट देखें। 

कुलपति बनें इलाहाबाद में

भारत सरकार शिक्षा मंत्रालय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति पद के लिए आवेदन बुलाए हैं। जारी विज्ञापन के मुताबिक 2 अक्टूबर तक ऑनलाइन आवेदन किया जा सकता है। आवेदक से अपेक्षा की गई है कि सत्यनिष्ठा, नैतिकता और संस्था के प्रति प्रतिबद्ध हो। अकादमिक योग्यता के साथ प्रशासनिक दक्षता अनिवार्य है। 

गोविंद का अनुष्ठान 

ब्यावरा में एक हैं गोविंद बडोने जो अपने आप में मिसाल हैं। वे देश के संभवतः एकमात्र पत्रकार हैं जो अपने संस्थान नवभारत के संस्थापक रामगोपाल माहेश्वरी जी के स्मरण में 26 वर्षों से निरंतर संवाद का आयोजन करते चले आ रहे हैं। आयोजन भी भव्य होता है। इस वर्ष भी नीयत तारीख 13 को यह अनुष्ठान होने जा रहा है। वे देश भर से विषय विशेषज्ञ एवं पत्रकारों को बुलाते हैं। गोविंद के इस समर्पण के लिए सेल्यूट करना तो बनता है। 

आइआइएमसी में बनें प्रोफेसर

आइएमएमसी ने देश भर में स्थापित अपने सेंटर्स के लिए प्रोफेसर और असिसटेंट प्रोफेसर के लिए वेंकेसी एडवाटाइज की है. आइजोल, मिजोरम, अमरावती, महाराष्ट्र, ढेकनाल, उड़ीसा, जम्मू जम्मू एंड कश्मीर एवं कोट्टायम, केरला में मॉस कम्युनिकेशन एवं जर्नलिजम के लिए विभिन्न भाषाओं में पढ़ाने वाले चाहिए. प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार एक पद प्रोफेसर एवं 20 पोस्ट असिसटेंट प्रोफेसर के लिए आवेदन मांगे गए हैं. 6 अक्टूबर के पहले ऑनलाइन आवेदन करना होगा. अधिक जानकारी के लिए आइएमएमसी की ऑफिशियल वेबसाइट देखा जा सकता है.  

बातों ही बातों में

इन दिनों अखबारों ने अपनी अपनी पसंद के लोग चुन लिए हैं. एक अखबार एक व्यक्ति की तर्ज पर उसी अखबार में खबर छपेगी, जिसकी पसंद का हो. और तो और पसंद का व्यक्ति फेसबुक में लिख रहा है तो वह भी खबर की सूरत में पढ़ सकते हैं. वैसे कभी मीडिया से दूर रहने वाले एक बुजुर्ग इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर अखबार और पत्रकारों से रूबरू हो रहे हैं. सुनते हैं कि किसी ने सलाह दी है कि ये आखिरी पारी है. अब ये बातें हैं बातों का क्या

सोमवार, 8 सितंबर 2025

रिसर्च जर्नल ‘समागम’ का नया अंक 2025

 


रिसर्च जर्नल ‘समागम’ का नया अंक 

हिन्दी हैं हम, हिन्दोस्तां हमारा... 

उतंड मार्तंड से लेकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा के लिए पैरवी करते महात्मा गाँधी का प्रथम उद्घोष इंदौर से...

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

मास्साब से शिक्षा कर्मी : कहाँ तलाशें राधाकृष्णन



प्रो. मनोज कुमार

आज एक महान दिन है. आज हम सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं. किसी महान व्यक्ति के जन्मदिन का उत्सव इसलिए नहीं मनाते हैं कि उन्होंने अपने जीवनकाल में उपलब्धियाँ अर्जित की बल्कि इसलिए मनाते हैं कि समाज उनके नक्शेकदम पर चल कर उनकी दृष्टि के साथ नए समाज का निर्माण करे. लेकिन दुर्भाग्य से आज हम जिस समय में जी रहे हैं, उस समय में शिक्षक दिवस महज औपचारिक बन कर रह गया है. शिक्षक मास्साब से शिक्षाकर्मी हो गए हैं और विद्यार्थी तो विद्यार्थी रहे ही नहीं. शिक्षा और विद्यालय दोनों ही बाजार बन गए हैं. सरकारी स्कूलों पर बदहाली का ठप्पा है तो प्रायवेट स्कूल मनमानी फीस लेकर स्टेट्स सिंबल बन गए हैं. दुर्भाग्य इस बात का है कि लगभग सभी प्रायवेट स्कूलों  स्वयं को इंटरनेशनल का तमगा दे रखा है. होगा भी, अच्छी बात है लेकिन पहली बात यह है कि क्या कोई प्रायवेट स्कूल स्थानीय या राज्य का नहीं हो सकता है. प्रायवेट स्कूल कभी अपने को जनता विद्यालय संबोधित नहीं करते हैं, उन्हें गर्व होता है पब्लिक स्कूल संबोधित करते हुए. हम आजादी के साथ ही इस बात का शोर मचा रहे हैं कि मैकाले ने भारतीय शिक्षा पद्धति का नाश कर दिया. बात सही है लेकिन क्या मैकाले इस करतूत का जवाब हम अच्छा करके नहीं दे सकते हैं. स्वाधीनता के बाद हम अनेक सेक्टर में बेहतर प्रदर्शन किया, स्वयं को खड़ा किया और विश्व गुरु बनने की ओर एक बार तैयार हैं तो ऐसा क्या हुआ कि हम शिक्षा को नहीं सुधार पाए? ऐसा क्या हुआ कि शिक्षा को जागरूक समाज का हिस्सा बनाने के बजाय डिग्री से जोड़ दिया और नौकरी के लिए मोहताज कर दिया. सच तो यह है कि मैकाले ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर मठा डाल गया था और हम उसकी गलती को आगे बढ़ाते रहे. 
जो लोग इस बात को लेकर माथा पीट रहे हैं कि सरकारी स्कूल बदहाल हैं लेकिन पन्ने पलटिए  और देखिए कि देश और दुनिया में जो महान लोग हैं, वे इन्हीं सरकारी स्कूलों में पढ़े हैं. और आज भी कामयाब लोगों की सूची बनाएंगे तो उनमें ज्यादतर सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले मिलेंगे. हर साल परीक्षा परिणाम जाँचेंगे तो पता चलेगा कि प्रायवेट स्कूल से ज्यादा बेहतर परिणाम सरकारी स्कूलों की है. थोड़ी के लिए मान लेते हैं कि सरकारी स्कूल बदहाल हैंं तो हमने उसमें सुधार के लिए क्या किया? हम आगे नहीं आए और अपने नौनिहालों को अंग्रेजी मीडियम के पब्लिक स्कूलों के हवाले कर दिया. हमें अंग्रेजी नहीं आती है लेकिन बच्चों को अंग्रेजी बोलते देख हम खुश हो जाते हैं. हमारे अवचेतन में जो हमारी नाकामयाबी है, कुंठा है, उसका शमन हम इस तरह करते दिखते हैं. इसी समाज में जब मास्साब को शिक्षा कर्मी बनाया जा रहा था तो किसने आवाज उठायी?  जब ऐसा हो रहा था तो हम चुप थे. अब शिकायत किस बात की. यहाँ भी बदले रूप में आपको मैकाले दिख जाएगा. पचास वर्ष की उम्र और उससे अधिक वाले हम लोग जो अपने अपने विषय के जानकार हैं, विशेषज्ञ हैं, उन्होंने कभी आगे आकर कहा कि सरकारी स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं तो हम पढ़ाऐंगे. जिस समाज ने आपको मान और जीवन जीने लायक बनाया, क्या वहाँ आपका दायित्व नहीं है कि उस समाज को कुछ लौटाएं? नहीं, हमारा सुर तो शिकायत का है. कवि कुमार विश्वास कहते हैं कि जब राज्य फेल होता है तो निजी संस्थाएं पनपती हैं लेकिन मेरा कहना है कि जब समाज फेल होता है तब निजी संस्थाएं पनपती हैं. हर बात पर सरकार पर निर्भरता समाज को कमजोर बनाती है। 
एक वीडियो इन दिनों चर्चा में है जिसका लब्बोलुआब यह है कि बच्चा फेल हो रहा है तो यह स्कूल की और शिक्षक की जवाबदारी है ना कि पालकों की. यह सच है कि जब स्कूल  मोटी फीस वसूल रहे हैं तो उन्हें इस बात की जिम्मेदारी लेना पड़ेगी. लेकिन क्या किसी के पास इस बात का जवाब है कि पालकों की अपनी जिम्मेदारी नहीं है कि वह अपने बच्चों को जाँचे कि वह क्या पढ़ रहे हैं या नहीं? दरअसल यहां मानसिकता बाज़ार की हो गई है।

एक वह भी समय था जब मास्साब गलती होने पर, पढ़ाई नहीं करने पर पेट में चिकोटी काट कर उठा देते थे और घर पर जाकर बच्चे की शिकायत करते थे. पालक मास्साब का आवभगत करते थे और घर आने पर धुनाई. लेकिन अब बच्चे को इस तरह की सजा देने की बात करना तो दूर, अब उनसे ऊँची आवाज में बात नहीं कर सकते हंै. यदि कुछ किया तो कार्यवाही करने के लिए अनेक कानूनी मंच हैं. अब ऐसे में मैकाले से कैसे मुक्ति पाएंगे. यह नौबत आयी कैसै, कौन है इसके लिए दोषी? इस दौर की यह भी एक सच्चाई यह है कि अनेक खबरें आती हैं कि जिसमें शिक्षक ने गुस्से में बच्चे को बेरहमी से पीटा या कि बच्चियों के साथ अश£ील हरकतें की. शिक्षक शराब पीकर स्कूल में पहुँच गए हैं. ये हुआ वह भयावह है लेकिन हुआ क्यों? हुआ इसलिए कि हमने डिग्री देखकर उसे शिक्षक बना दिया. उसके भीतर शिक्षक का भाव है कि नहीं, वह जवाबदार है कि नहीं, यह देखने का कोई सिस्टम हमारे पास है नहीं. पब्लिक स्कूलों के शिक्षक के लिए पहली जरूरत होती है अँग्रेजी का ज्ञान और सरकारी स्कूलों की जरूरत होती है खाली पदों को भरना. हालांकि सिस्टम ही यही है तो क्या ही किया जा सकता है.
समस्या तो बड़ी है और आने वाले दिनों में भयावह होगी. इसलिए आवश्यक हो जाता है कि जिस तरह पीपीपी मोड में अन्य कार्य हो रहे हैं, वैसा ही एक ढाँचा शिक्षण के लिए बनाया जाए. हरेक घर से एक व्यक्ति यह जिम्मेदारी ले और अपनी विशेषज्ञता के साथ बच्चों को पढ़ाने जाए. फिलवक्त समस्या का एक समाधान यह भी हो सकता है कि वृद्धाश्रम में निराशा में डूबते-उतरते अपने समय के काबिल लोगों को शिक्षण के कार्य पर लगायें. वे अपने अनुभव से पूरी शिक्षा व्यवस्था का चेहरा बदल देंगे. समाज को भी ये इंटरनेशल पब्लिक स्कूलों से भी दूर जाना होगा. राष्ट्रीय शिक्षा नीति से एक उम्मीद जगती है कि मातृभाषा में शिक्षा. यह अंग्रेजी से मुक्ति का एक बड़ी कोशिश है. सरकारी स्कूलों से ही आपको डॉ. राधाकृष्णन, कलाम साहब, डॉ. शंकर दयाल शर्मा और अनन्य लोग मिल जाएंगे. समाज को फिर से मास्साब चाहिए ना कि शिक्षा कर्मी. साक्षात्कार एवं अन्य प्रयोग से आप शिक्षण संस्थानों के लिए कर्मी तो बना सकते हैं लेकिन शिक्षक तो स्वयं से बनते हैं. एक जुनून ही शिक्षक का दूसरा नाम होता है. ऐसा कर सकें तो ना केवल महान शिक्षाविद् हमें मिलेंगे बल्कि मैकाले की कालीछाया से भी मुक्ति पा सकेंगे.(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)

सोमवार, 18 अगस्त 2025

वो ना आए तोगुस्सा, वो आए तो भी

 


प्रो. मनोज कुमार

    अरे यार, क्या लिखते हैं? क्या छापते हैं? समझ में नहीं आता कैसी पत्रकारिता कर रहे हैं. सब बिक गए हैं. ढोल पीट रहे हैं. झूठ को सच बनाकर परोस रहे हैं. जो लोग रोज अखबार को कोसते रहते हैं उनके लिए आज 16 अगस्त का दिन भारी पड़ रहा होगा. चाय की पहली प्याली के साथ कोसने के लिए, बड़बड़ाने के लिए उनके हाथों में अखबार का पन्ना नहीं है. आखिर अब वो दिन भर कोसें किसे? किसे बताएं कि मीडिया कितना बेइमान हो गया है. बेइमान शब्द थोड़ा तल्ख हो जाता है तो कहते हैं कि मीडिया की विश्वसनीयता खत्म हो गयी है. और इस अविश्वसनीय होते दौर में आज 16 अगस्त को अखबार उनके हाथों में नहीं हैं तो भी उन्हें बुरा लग रहा है. अब इस मर्ज का क्या इलाज करें? हम हैं तो बुरे और नहीं है तो भी बुरे! अरे, साहबान हम पत्रकारों को साल में दो दिन ही तो मिलता है जब आपकी निंदा, आलोचना और कई बार गालियों से बच निकलते हैं. आज 16 अगस्त और अगले साल 27 जनवरी को आपके हाथ नहीं आते हैं.

अब सोचिए और गुनिए कि जिन अखबार को आप कोसते हुए थकते नहीं हैं, वही एक दिन आपसे दूर हो जाता है तब आप तनाव में आ जाते हैं. अखबार के साथ आपकी संगत ऐसी हो गई है कि चाय की पहली प्याली की चुस्की लेते हुए आपके दिन की शुरूआत होती है. और शायद यही वजह है कि रोज की तरह आज भी आप अखबा तलाश कर रहे होते हैं लेकिन अखबार ना देखकर आप भिन्ना उठते हैं. आपको लगता है कि आज हॉकर बदमाशी कर गया, अखबार देकर नहीं गया. फिर आदतन अपनी धर्मपत्नी को आवाज देते हैं कि अखबार देखा क्या? जब उधर से भी ना का जवाब मिलता है तब आपको खयाल आता है कि कल 15 अगस्त के अवकाश के कारण आज अखबार नहीं आया. मन व्याकुल हो जाता है. सही बात तो यह है कि जिस अखबार और मीडिया को आप दुश्मन समझते हैं, वह दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त है. इससे आगे और जाएं तो आप भीतर झांक कर देखेंगे तो पता चलेगा कि अखबार से आपको इश्क है. वैसा ही जैसा आप किसी से करते हैं. यहां इश्क से मतलब किसी स्त्री से होना ही नहीं है. एक ऐसा दोस्त जो रोज आपको परेशान भी करता है और सुकून भी देता है, वह दूर हो जाए तो दिनभर मन में एक कसक रह जाती है. आज आपके साथ यही हो रहा है. सच बोलिएगा?

याद कीजिए उस कू्रर दिन को जिसे हम कोरोना काल कहते हैं.. आप डरे, दुबके हुए घर में छिपे-सहमे से बैठे थे तब अखबार की सूरत में आपका दुश्मन दोस्त सूचना और खबरें लेकर धमक जाता था. लाख चेतावनी के बाद कि अखबार से कोरोना फैल सकता है लेकिन आप नहीं मानते थे. थोड़ी सावधानी के लिहाज से एकाध घंटे अखबार को बाहर पड़े रहने देते थे फिर सेनेटाइजर छिडक़र टोटका कर अखबार को साथ लेकर सोफे पर पसर जाते थे. फिर एक प्याली चाय और अखबार आपकी साथी आपके साथ होता था. कितना बेशर्म है ना ये अखबार और हम खबर लिखने वाले लोग जो रोज आपकी आलोचना, निंदा और गालियां सुनने के बाद भी बिलानागा आपकी टेबल पर होते हैं. कभी आपने हमारे बारे में सोचा कि आपको अलर्ट रखने के लिए, अच्छी-बुरी सूचना इक_ी करने के लिए हम अपने परिवार को भूल कर, अपनी जिंदगी को दांव पर लगाकर काम पर निकल जाते हैं. हमारी कौम को तो ये भी पता नहीं होता है कि हमारे घर में राशन कब खत्म हो गया है, बच्चे के स्कूल की फीस जमा है कि नहीं या मां की दवा लाने के लिए पैसों का इंतजाम कैसे करेंगे? वो तो भला हो हमारी कौम की उन स्त्रियों का जो मेरी पत्नी है, भाभी है, माँ है और बहन है जो हमारा हौसला बढ़ाती हैं. उनके मुँह में निवाला कब जाता है, यह भी हमें खबर नहीं होती है लेकिन दो परांठे और दही खिलाकर भेजती हैं, वैसे ही जैसे कि एक जवान को उनके परिजन भेजते हैं. हमारे घर की स्त्रियों को पता है कि घर लौटने तक इनके पेट में कुछ कप चाय और एकाध-दो सड़े-गले तेल में बना समोसा मिल जाए तो बहुत लेकिन इन सबके बदले हमारा पेट भरता है आपकी निंदा से, आलोचना. 

ये 16 अगस्त और आने वाले नए साल में 27 अगस्त आपको इस बात का याद दिलाता रहेगा कि अखबार आपका दुश्मन नहीं, बिकाऊ नहीं, अविश्वसनीय नहीं बल्कि आपका हमदर्द है, आपको सूचना से लबरेज रखता है. आपको समाज में घट रहे अच्छे बुरे की खबर देता है. इस बात से कोई शिकायत नहीं कि गलतियां होती हैं, कुछ यशोगान भी होता है और अगर यह बात आप उस प्रबंधन को दोष दीजिए, उसे कोसिए ना कि अखबार और टेलीविजन के पर्दे पर आने वाले हम जैसे राई जैसे पत्रकारों को. आपका तो शनिवार-रविवार मौज का होता है. हर तीज-त्योहार पर आपको छुट्टी मिल जाती है और हमें? हमें तो ये दो दिन ही मिलते हैं और यह दो दिन इसलिए कि आप अपने भीतर झांक सकें कि क्या वास्तव में मीडिया अविश्वसनीय हो गया है? आपको याद दिलाते कविवर बाबा नागार्जुन की पंक्तियां सहसा स्मरण में आ जाता है कि 

किसकी है छब्बीस जनवरी, 

किसका है पन्द्रह अगस्त

यहां पर बाबा से माफी के साथ अपने कौम के लिए कहता हूं - 

किसकी है होली, किसकी है दीवाली

हर दिन है बेहाली, हर दिन निंदा और गाली                                                   तस्वीर गूगल से साभार   



सोमवार, 11 अगस्त 2025

दिग्विजय-सिंधिया प्रसंग



 इस खूबसूरत पल को थाम लीजिए 

प्रो. मनोज कुमार

    राजनीति, समाज और आसपास जब अंधेरा घटाघोप हो रहा हो और ऐसे में कहीं भी एक लौ दिखाई दे तो उस पल को थाम लीजिए. यह लौ अंधेरे को चीर नहीं सकता है लेकिन उम्मीद की किरण के मानिंद हमें भरोसा दिलाता है कि अभी सबकुछ खराब नहीं हुआ है. अभी उम्मीद बाकि है. राजनीति के पटल पर देखते हैं तो यह अंधेरा घनघोर है. ऐसे में एक सार्वजनिक सभा में ज्योतिरादित्य सिंधिया मंच से उतर कर दिग्विजयसिंह का हाथ थाम कर मंच पर ले जाते हैं. यह महज संयोग नहीं है बल्कि उन दिनों के लौट जाने का संकेत है कि राजनीति में शुचिता शेष है. शेष है एक-दूसरे को सम्मान देने की नियत. लेकिन आनंद लीजिए कि ज्योतिरादित्य सिंधिया वक्त गंवाए और कोई दूसरा मनोभाव बनाये. मुस्कराते हुए मंच से उतरते हैं. आसपास खड़े लोगों का अभिवादन करते हैं और पूरे अधिकार के साथ दिग्विजयसिंह को मंच पर साथ ले जाते हैं.

यह पल यकिनन स्मृतिकोष में सदैव के लिए अंकित हो जाने वाला है. इस बात पर क्या कोई विमत हो सकता है कि राजनीति में दिग्विजयसिंह वरिष्ठ हैं और ज्योतिरादित्य उनसे कम. मध्यप्रदेश की राजनीति में दिग्विजयसिंह अपने संकल्पों को पूर्ण करने में कभी हिचके नहीं, पीछे हटे नहीं। और ज्योतिरादित्य अधिकार के साथ उन्हें मंच पर ले जाते हैं तो उनका संकल्प टूट जाता है. स्मरण रहे कि कांग्रेस की एक सभा में उन्होंने संकल्प लिया था कि वे मंच पर नहीं बैठेंगे। तब से वे कांग्रेस के मंच से किनारा कर दर्शक दीर्घा में बैठने लगे. ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेसजनों ने उनका मान-मनोव्वल नहीं किया होगा. उन्हें सम्मान देने में पीछे रहे होंगे. सबने अपने हिस्से से दिग्विजयसिंह को मनाने का प्रयास किया होगा लेकिन वे अपने संकल्प पर अडिग रहे. फिर ऐसा क्या हुआ कि वे ज्योतिरादित्य सिंधिया के आग्रह को टाल नहीं सके? मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक उन्होंने आग्रह तो किया ही, अधिकार के साथ उन्हें अपने साथ हाथ पकड़ कर मंच तक ले आए. 

राजनीतिक हलकों में यह चर्चा का विषय बन गया. जैसा कि होता आया है राजनीति के मंच पर जब ऐसा कोई प्रसंग आता है तो उसके पीछे की राजनीति तलाश की जाने लगती है. अनेक बार ऐसा होता भी है लेकिन वर्तमान प्रसंग इस बात का संकेत देता है कि ज्योतिरादित्य की यह पहल अपने वरिष्ठ को सम्मान देने की है ना कि राजनीतिक विवशता. इस घटनाक्रम के अगले दिन अखबारों में दिग्विजयसिंह का बयान छपता है कि ज्योतिरादित्य उनके बेटे के समान है. ज्योतिरादित्य सिंधिया की पहल और दिग्विजयसिंंह का बयान के नीचे या पीछे कोई राजनीति नहीं देखना चाहिए. यूं कि ये महज एक परिवार सा है. सनातनी संस्कृति को समझने और मानने वाले यह समझ सकते हैं कि जब घर के बुर्जुग नाराज होते हैं, रूठ जाते हैं तो यह जिम्मेदारी बच्चों की होती है कि वे उन्हें अधिकारपूर्वक साथ लेकर चलें. उन्हें मनाने या उनसे माफी मांगने की कतई जरूरत नहीं होती है और ना ही वे चाहते हैं कि उनके बच्चे ऐसा करें. ऐसा किया भी जाता है तो यह एक औपचारिक रिश्ते में बदल जाता है. उल्टे गुस्सा कीजिए, नाराज हो जाइए और अधिकार जताइए, आपस की दूरी खत्म हो जाती है. मनोविज्ञान भी यही कहता है और भारतीय संस्कृति में भी यही रिवाज है. 

राजनीतिक गलियारे में इस सुखद प्रसंग के बाद चर्चा चल पड़ी, कयास लगाये जाने लगे कि यह सब संयोग नहीं बल्कि राजनीतिक पहल है. यह भी बिना किसी तथ्य, तर्क के यह बात गढ दी गई कि सिंधिया कांग्रेस वापसी चाहते हैं इसलिए यह पहल उन्होंंने की. कुछ ऐसी ही मीमांसा दिग्विजय सिंह के बयान को लेकर की जाने लगी. लिखने और बोलने वालों का आधार क्या है, शायद कोई नहीं जानता. अगर सबने देखा, जाना और समझा तो यह कि यह राजनीति के शह-मात का खेल नहीं बल्कि आपसी शिष्टाचार, सद्भाव और सौम्यता का प्रसंग है. मुश्किल यह है कि समाज का हर वर्ग इस बात से प्रसन्न नहीं होता है कि आज कुछ सुखद हो रहा है तो उसे आगे बढ़ायें ना कि क्लेश की जमीन को विस्तार दें. जब राजनीति में शुचिता की बात होती है तब हम इतिहास के पन्ने पलटते हैं. अनेक पुराने प्रसंग और घटनाओं को बताते हैं कि देखो, वो समय कैसा था. और आज जब उन पुराने प्रसंगों, घटनाओं का किंचचित मात्र बेहतर हो रहा है तो हम उनके बीच हुई कुछ कड़ुवाहट को सामने ले आते हैं. क्या हम थोड़ी देर के लिए इस मकबूल वक्त में खो नहीं सकते हैं. माना कि राजनेताओं की राजनीति अपने अस्तित्व को लेकर होती है तो सवाल यह है कि वे सारी मेधा, सारी मेहनत समाज को आगे बढ़ाने के लिए ही तो कर रहे हैं. निश्वित रूप से वे व्यक्तिगत छवि को निखारना चाहते हैं और वे ताकतवर होंगे, तभी वे समाज हित में, राष्ट्रहित में, राज्य में कुछ ठोस कर पाएंगे. मैं राजनीति का ककहरा नहीं जानता हूं लेकिन यह भी जानता हूं कि राजनीति है, यहां कुछ भी संभव है. और यह कोई नया नहीं है. भविष्य में क्या होगा, कैसे होगा, कोई नहीं जानता लेकिन बर्फ पिघल रही है तो पिघल जाने दीजिए. इस घटाघोप अंधेरे में इस बाती को प्रज्जवलित होने दीजिए. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)

शुक्रवार, 8 अगस्त 2025

पचास साल से ‘शोले’ का भोपाल कनेक्शन

प्रो. मनोज कुमार

    पवित्र माह अगस्त में जब हम स्वाधीनता का उत्सव मना रहे होंगे तब फिल्म ‘शोले’ अपना पचासवाँ सालगिरह मना रहा होगा। इस फिल्म की चर्चा की जरूरत इसलिए भी है कि पचास साल पहले ‘शोले’े की ही चर्चा नहीं थी बल्कि यह साल इतिहास के पन्नों में दर्ज है, जब देश में आपातकाल लागू हुआ था। अनेक फिल्मों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा बिठा दिया गया था लेकिन फिल्म ‘शोले’ मजे से देखी गई क्योंकि यह सरकार पर वार नहीं करती थी। मौसी और जय का संवाद हो या ताँगेवाली बसंती का बड़बोलापन, राधा की खामोशी हो या सांभा का डायलाग... बार बार और हर बार, हर पीढ़ी को मोह लेता है। इस संकटकाल में ‘शोले’ ने कई मानक गढ़े और आज भी वह सिने प्रेमियों को लुभा रहा है। 

...तो क्या दो रुपये में पूरा जंगल खरीदने निकले थे आप... देखो मियाँ भोत हो गया...अब आप यहाँ से रवानगी डाल दो... नई तो मेरा नाम भी सूरमा भोपाली ऐसई नई हे... यह डॉयलाग तो आपको याद होगा।। होगा क्यों नहीं... पचास साल से धूम मचा रहे सूरमा भोपाली ऐसई थोड़ी हैं... ये हैं फिल्म ‘शोले’ के भोपाल और मध्यप्रदेश कनेक्शन की पहली कड़ी...इसके अलावा भी और भी कड़ी हैं जिनका हम आगे जिक्र करेंगे।  ‘शोले’ किसी अलहदा कहानी पर नहीं बनी थी। फौरीतौर पर देखा जाए तो वह एक मसाला फिल्म थी।  ‘पचास पचास कोस दूर जब बच्चा रात तो रोता है तो माँ कहती है चुप हो जा... नहीं तो गब्बर आ जाएगा’....  ‘शोले’ के अलावा भी अनेक फिल्मों ने पचास साल पूरे किए लेकिन शोले ने जो रिकार्ड कायम किया, उसका सानी दूसरा नहीं हुआ। ‘शोले’ और भोपाल और मध्यप्रदेश कनेक्शन को याद करना भी जरूरी हो जाता है।

कभी चुलबुली और बाद में संजीदा नायिका के रूप में जिन्हें आप याद करेंगे तो वह भोपाल की जया होगी। कभी यही जया भादुड़ी आज श्रीमती जया बच्चन हंै। इस तरह फिल्म शोले में जया भादुड़ी का भोपाल कनेक्शन भी आपकी याद में होगा। भोपाल में अपने समय के लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार तरूण कुमार भादुड़ी की बिटिया जया भादुड़ी हैं। इस फिल्म में तरूण कुमार भादुड़ी का कोई सीधा कनेक्शन नहीं है लेकिन गब्बर का किरदार को प्रभावी बनाने में उनकी किताब ‘अभिशप्त चंबल’ का बड़ योगदान है। अमज़द खान को उन्होंने यह किताब पढऩे के लिए दिया गया था जिसे रियल लाइफ में अमजद खान की पत्नी यह किताब पढ़ कर उन्हें सुनाती। इस तरह गब्बर सिंह का स्वाभाविक और दमदार किरदार परदे पर उतर आया। जय की भूमिका निभाने वाले अमिताभ बच्चन भले ही जन्म से इलहाबादी हों लेकिन भोपाल के दामाद होने से उनका भी ‘शोले’में भोपाली कनेक्शन दिखता है। ऐसे में पचास साल पहले लौटते हैं तो अपने समय की बॉक्स ऑफिस पर सुपर-डुपर फिल्म के रूप में धूम मचाने वाली फिल्म ‘शोले’ के भोपाल और मध्यप्रदेश कनेक्शन को लेकर चर्चा करना जरूरी हो जाता है। ‘शोले’ और भोपाल की ऐसी आपसदारी है कि ‘शोले’ की चर्चा हो और भोपाल छूट जाए और भोपाल की चर्चा हो और ‘शोले’ का जिक्र ना हो, यह तो लगभग नामुमकिन सा है। आखिऱ क्या कनेक्शन है ‘शोलेे’ और भोपाल का? जब इस बात की तहकीकात करेंगे तो आनंद आ जाएगा और यह बात भी साफ हो जाएगी कि करीब डेढ़ दशक से ऊपर समय से भोपाल में फिल्म सिटी बनाए जाने की माँग की जा रही है, वह जायज है। सरकार को इस ओर ध्यान देकर भोपाल में फिल्म सिटी डेवलप किया जाना चाहिए। 

खैर, फिल्म ‘शोले’ के भोपाल कनेक्शन की बात करते हैं तो बीती पीढ़ी, वर्तमान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी जब भी ‘शोले’ देखती है तो उसे सूरमा भोपाली याद आ जाते हैं। अब आप पूछ सकते हैं कि सूरमा भोपाली है कौन? तो मियाँ हम कहेंगे हमारे जगदीप...  भोपाल में सूरमा भोपाली जैसा सचमुच का कोई किरदार है या नहीं, यह तो पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है लेकिन भोपाल की मशहूर पटियाबाजी से यह किरदार उपजा होगा। और यह किरदार इतना प्रभावी है कि फिल्म से उसे हटा दिया जाए तो फिल्म का एक बड़ा हिस्सा वीरान सा हो जाएगा। सूरमा भोपाली के किरदार को इस कदर जीवंत किया कि वाह भोपाल, आह भोपाल बरबरस ही निकल पड़ता है। याद होगा ना कि अपने लकड़ी के टाल पर पटियाबाजी के अंदाज में सूरमा अर्थात जगदीप लम्बी लम्बी छोड़ते हैं और बताते हैं कि कैसे उन्होंने जय-वीरू को कॉलर पकड़ कर अंदर करवा दिया था। लेकिन सामने जय-वीरू को देखते ही उनके पसीने छूट जाता है। बस, इसी के साथ दर्शकों के चेहरे पर हँसी आ जाती है। इस कॉमिक कैरेक्टर से जगदीप को काफी नाम और पहचान मिली, जिसके बाद से उन्हें सूरमा भोपाली के नाम से भी जाना जाने लगा। वैसे जगदीप का जन्म मध्यप्रदेश के दतिया में 29 मार्च 1939 को एक संपन्न परिवार में हुआ था। ‘शोले’ में उनको ये रोल मिलने का किस्सा भी बड़ा मजेदार है। ‘सूरमा भोपाली’ का किरदार भोपाल के फॉरेस्ट ऑफिसर नाहर सिंह पर आधारित था।

भोपाल में अरसे तक रहे जावेद अख्तर ने नाहरसिंह के किस्से सुन रखे थे, इसलिए जब उन्होंने सलीम के साथ फिल्म ‘शोले’ लिखना शुरू किया, तो कॉमेडी के लिए नाहर सिंह से मिलता-जुलता किरदार ‘सूरमा भोपाली’ तैयार कर दिया। जावेद अख्तर ने उन्हें ‘शोले’ की कहानी सुनाई। जगदीप को लगा कि दोस्ती की वजह से उन्हें काम मिलेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिल्म की लगभग पूरी शूटिंग हो गई, तब एक दिन अचानक उन्हें डायरेक्टर रमेश सिप्पी का फोन आया। उन्होंने जगदीप को फिल्म में सूरमा भोपाली का रोल ऑफर किया। इस पर जगदीप ने कहा कि फिल्म की शूटिंग तो पूरी हो गई। तब सिप्पी ने कहा कि अभी कुछ सीन्स की शूटिंग बाकी है। सिप्पी के ऑफर पर  उन्होंने सूरमा भोपाली का रोल निभाया। शोले और सूरमा भोपाली का रोल, दोनों ही हिट रहे। इस सक्सेस के बाद जगदीप ने इसी किरदार पर फिल्म सूरमा भोपाली बनाई भी, जो 1988 में रिलीज हुई थी। ये भारत के बहुत से राज्य में फ्लॉप रही, लेकिन मध्यप्रदेश में इस फिल्म के प्रशंसक बड़ी तादाद में रहे।

सूरमा भोपाली के किरदार को गढऩे वाले जावेद अख़्तर को कौन नहीं जानता? ‘शोले’ की हिट करने वाली पटकथा लिखने वाले जोड़ी सलीम-जावेद में से जावेद अख़्तर का सीधा रिश्ता भोपाल से है। भोपाल में पले-बढ़े जावेद के भीतर भी कहीं एक भोपालीपन होता है और शायद यही कारण है कि ‘शोले’ में सूरमा भोपाली के किरदार को गढ़ा और ऐसा गढ़ा कि पचास साल बाद भी उसकी याद ताज़ा है। जावेद अख़्तर 17 जनवरी 1945 को ग्वालियर में जन्मे। उनके पिता, जां निसार अख़्तर, एक प्रसिद्ध कवि थे और उनकी माता, सफिया अख़्तर, एक गायिका और लेखिका थीं। जावेद अख़्तर ने लखनऊ में अपनी शुरुआती शिक्षा प्राप्त की और भोपाल के सैफिया कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। इस प्रसंग को याद करना भी मजेदार है कि स्क्रिप्ट को कागज़ पर उतारना जावेद का काम था लेकिन उनकी राइटिंग इतनी खऱाब थी कि उसको पढ़ा ही नहीं जा सकता था. वो उर्दू में लिखते थे जिसका हिन्दी अनुवाद करते थे उनके असिस्टेंट ख़लिश. इसके बाद उनके एक दूसरे असिस्टेंट अमरजीत उसका एक लाइन में अंग्रेज़ी में साराँश लिखा करते थे। खैर, उनकी तासीर उनके इस शेर से पता चल जाता है

जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता

मुझे पामाल रस्तों का सफऱ अच्छा नहीं लगता

पचास सालों से हिट फिल्म शोले की पटकथा लेखकों का जिक्र हो तो सलीम के बिना अधूरा रहेगा। कभी सलीम-जावेद की जोड़ी फिल्मी दुनिया में मशहूर हुए सलीम का सीधा रिश्ता भोपाल से नहीं है लेकिन मध्यप्रदेश के इंदौर से जरूर है। सलीम का परिवार इंदौर से है और सलमान खान का जन्म इंदौर में हुआ है। सलीम-जावेद ने ऐसी धाँसू पटकथा तैयार की कि एक मसाला फिल्म होने के बाद भी वह हरदिल अज़ीज़ फिल्म बनकर आज भी धूम मचा रही है। शोले के लिए सारी तैयारियाँ हो गई थीं। फिल्म की पूरी स्टार कास्ट सेट पर पहुँेचने के लिए तैयार थी। डायरेक्टर रमेश सिप्पी ‘शोले’ के पहले सीन के लिए कट बोलने के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, क्योंकि उन्होंने लेखक जावेद अख्तर और सलीम खान के साथ इस मूवी के लिए काफी मेहनत की थी। 

‘शोले’ का भोपाली कनेक्शन के बहाने मध्यप्रदेश में सिनेमा संसार पर थोड़ी चर्चा जरूरी हो जाता है। सिनेमा निर्माण के लिए मध्यप्रदेश हमेशा से मुफीद रहा है। किसी समय राजकपूर जैसे शोमेन मध्यप्रदेश में फिल्म ‘तीसरी कसम’ शूटिंग सागर में की थी। जबलपुर में प्रेमनाथ का थियेटर था जो अब जमींदोज हो चुका है, राजकपूर की ससुराल रीवा में है। इधर बीते  कुछ सालों से सिनेमा के परदे से लेकर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर मध्यप्रदेश का जलवा है। लता मंगेशकर से लेकर किशोर कुमार, पंडित प्रदीप, जावेद अख़्तर और जाने कितने नामचीन लोग मध्यप्रदेश से निकल कर रूपहले परदे पर वर्षों से मुकाम बनाए हुए हैं। अब समय आ गया है कि प्रकाश झा जैसे बड़े फिल्मकार राजनीति, आरक्षण और चक्रव्यूह बना चुके हैं। इसके अलावा मध्यप्रदेश में बनने वाली फिल्मों में तू और भोपाल एक्सप्रेस, अशोका, मकबूल,जब वी मेट, पीपली लाइव, पान सिंह तोमर टॉयलेट एक प्रेम कथा, बाजीराव मस्तानी एवं गंगाजल जैसी फिल्म थी।

मध्यप्रदेश लोकेशन की दृष्टि से बहुत समृद्ध है। फिल्मों का क्रेज होने से कलाकार सस्ते में बल्कि मुफ्त में भी काम करने को मिल जाते हैं। अनेक शिक्षण संस्थाएँ, हॉस्पिटल, होटल और दूसरे भवन सस्ते दरों में शूटिंग के लिए मिल जाते हैं। राज्य सरकार भी फिल्म निर्माण के लिए मध्यप्रदेश की जमीन को उर्वरा मानती है और साथ ही फिल्मसिटी निर्माण से रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। यही नहीं, एक नीति बन जाने से कलाकारों का शोषण भी नहीं हो पाएगा। समय आ गया है कि हिन्दी सिनेमा से भोपाल ही नहीं, मध्यप्रदेश का कनेक्शन और पक्का हो जाए। 


मंगलवार, 5 अगस्त 2025

कम्युनिकेशन नहीं होना प्राब्लम


सोशल मीडिया को दोष देना आसान है लेकिन हम क्या कर रहे हैं, यह हम नहीं सोचते हैं. प्राब्लम सोशल मीडिया नहीं है बल्कि आपस में कम्युनिकेशन नहीं होना प्राब्लम है. संवादहीनता से उबर जाएंगे तो सोशल मीडिया हमारे लिए उपयोगी हो जाएगा. आइए सुनते हैं

कैंपस कॉरिडोर

 एमसीयू को मिले कुलाध्यक्ष सी.पी. राधाकृष्णन देश के 15वें  उपराष्ट्रपति होंगे और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्य...