सोमवार, 18 अगस्त 2025

वो ना आए तोगुस्सा, वो आए तो भी

 


प्रो. मनोज कुमार

    अरे यार, क्या लिखते हैं? क्या छापते हैं? समझ में नहीं आता कैसी पत्रकारिता कर रहे हैं. सब बिक गए हैं. ढोल पीट रहे हैं. झूठ को सच बनाकर परोस रहे हैं. जो लोग रोज अखबार को कोसते रहते हैं उनके लिए आज 16 अगस्त का दिन भारी पड़ रहा होगा. चाय की पहली प्याली के साथ कोसने के लिए, बड़बड़ाने के लिए उनके हाथों में अखबार का पन्ना नहीं है. आखिर अब वो दिन भर कोसें किसे? किसे बताएं कि मीडिया कितना बेइमान हो गया है. बेइमान शब्द थोड़ा तल्ख हो जाता है तो कहते हैं कि मीडिया की विश्वसनीयता खत्म हो गयी है. और इस अविश्वसनीय होते दौर में आज 16 अगस्त को अखबार उनके हाथों में नहीं हैं तो भी उन्हें बुरा लग रहा है. अब इस मर्ज का क्या इलाज करें? हम हैं तो बुरे और नहीं है तो भी बुरे! अरे, साहबान हम पत्रकारों को साल में दो दिन ही तो मिलता है जब आपकी निंदा, आलोचना और कई बार गालियों से बच निकलते हैं. आज 16 अगस्त और अगले साल 27 जनवरी को आपके हाथ नहीं आते हैं.

अब सोचिए और गुनिए कि जिन अखबार को आप कोसते हुए थकते नहीं हैं, वही एक दिन आपसे दूर हो जाता है तब आप तनाव में आ जाते हैं. अखबार के साथ आपकी संगत ऐसी हो गई है कि चाय की पहली प्याली की चुस्की लेते हुए आपके दिन की शुरूआत होती है. और शायद यही वजह है कि रोज की तरह आज भी आप अखबा तलाश कर रहे होते हैं लेकिन अखबार ना देखकर आप भिन्ना उठते हैं. आपको लगता है कि आज हॉकर बदमाशी कर गया, अखबार देकर नहीं गया. फिर आदतन अपनी धर्मपत्नी को आवाज देते हैं कि अखबार देखा क्या? जब उधर से भी ना का जवाब मिलता है तब आपको खयाल आता है कि कल 15 अगस्त के अवकाश के कारण आज अखबार नहीं आया. मन व्याकुल हो जाता है. सही बात तो यह है कि जिस अखबार और मीडिया को आप दुश्मन समझते हैं, वह दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त है. इससे आगे और जाएं तो आप भीतर झांक कर देखेंगे तो पता चलेगा कि अखबार से आपको इश्क है. वैसा ही जैसा आप किसी से करते हैं. यहां इश्क से मतलब किसी स्त्री से होना ही नहीं है. एक ऐसा दोस्त जो रोज आपको परेशान भी करता है और सुकून भी देता है, वह दूर हो जाए तो दिनभर मन में एक कसक रह जाती है. आज आपके साथ यही हो रहा है. सच बोलिएगा?

याद कीजिए उस कू्रर दिन को जिसे हम कोरोना काल कहते हैं.. आप डरे, दुबके हुए घर में छिपे-सहमे से बैठे थे तब अखबार की सूरत में आपका दुश्मन दोस्त सूचना और खबरें लेकर धमक जाता था. लाख चेतावनी के बाद कि अखबार से कोरोना फैल सकता है लेकिन आप नहीं मानते थे. थोड़ी सावधानी के लिहाज से एकाध घंटे अखबार को बाहर पड़े रहने देते थे फिर सेनेटाइजर छिडक़र टोटका कर अखबार को साथ लेकर सोफे पर पसर जाते थे. फिर एक प्याली चाय और अखबार आपकी साथी आपके साथ होता था. कितना बेशर्म है ना ये अखबार और हम खबर लिखने वाले लोग जो रोज आपकी आलोचना, निंदा और गालियां सुनने के बाद भी बिलानागा आपकी टेबल पर होते हैं. कभी आपने हमारे बारे में सोचा कि आपको अलर्ट रखने के लिए, अच्छी-बुरी सूचना इक_ी करने के लिए हम अपने परिवार को भूल कर, अपनी जिंदगी को दांव पर लगाकर काम पर निकल जाते हैं. हमारी कौम को तो ये भी पता नहीं होता है कि हमारे घर में राशन कब खत्म हो गया है, बच्चे के स्कूल की फीस जमा है कि नहीं या मां की दवा लाने के लिए पैसों का इंतजाम कैसे करेंगे? वो तो भला हो हमारी कौम की उन स्त्रियों का जो मेरी पत्नी है, भाभी है, माँ है और बहन है जो हमारा हौसला बढ़ाती हैं. उनके मुँह में निवाला कब जाता है, यह भी हमें खबर नहीं होती है लेकिन दो परांठे और दही खिलाकर भेजती हैं, वैसे ही जैसे कि एक जवान को उनके परिजन भेजते हैं. हमारे घर की स्त्रियों को पता है कि घर लौटने तक इनके पेट में कुछ कप चाय और एकाध-दो सड़े-गले तेल में बना समोसा मिल जाए तो बहुत लेकिन इन सबके बदले हमारा पेट भरता है आपकी निंदा से, आलोचना. 

ये 16 अगस्त और आने वाले नए साल में 27 अगस्त आपको इस बात का याद दिलाता रहेगा कि अखबार आपका दुश्मन नहीं, बिकाऊ नहीं, अविश्वसनीय नहीं बल्कि आपका हमदर्द है, आपको सूचना से लबरेज रखता है. आपको समाज में घट रहे अच्छे बुरे की खबर देता है. इस बात से कोई शिकायत नहीं कि गलतियां होती हैं, कुछ यशोगान भी होता है और अगर यह बात आप उस प्रबंधन को दोष दीजिए, उसे कोसिए ना कि अखबार और टेलीविजन के पर्दे पर आने वाले हम जैसे राई जैसे पत्रकारों को. आपका तो शनिवार-रविवार मौज का होता है. हर तीज-त्योहार पर आपको छुट्टी मिल जाती है और हमें? हमें तो ये दो दिन ही मिलते हैं और यह दो दिन इसलिए कि आप अपने भीतर झांक सकें कि क्या वास्तव में मीडिया अविश्वसनीय हो गया है? आपको याद दिलाते कविवर बाबा नागार्जुन की पंक्तियां सहसा स्मरण में आ जाता है कि 

किसकी है छब्बीस जनवरी, 

किसका है पन्द्रह अगस्त

यहां पर बाबा से माफी के साथ अपने कौम के लिए कहता हूं - 

किसकी है होली, किसकी है दीवाली

हर दिन है बेहाली, हर दिन निंदा और गाली                                                   तस्वीर गूगल से साभार   



सोमवार, 11 अगस्त 2025

दिग्विजय-सिंधिया प्रसंग



 इस खूबसूरत पल को थाम लीजिए 

प्रो. मनोज कुमार

    राजनीति, समाज और आसपास जब अंधेरा घटाघोप हो रहा हो और ऐसे में कहीं भी एक लौ दिखाई दे तो उस पल को थाम लीजिए. यह लौ अंधेरे को चीर नहीं सकता है लेकिन उम्मीद की किरण के मानिंद हमें भरोसा दिलाता है कि अभी सबकुछ खराब नहीं हुआ है. अभी उम्मीद बाकि है. राजनीति के पटल पर देखते हैं तो यह अंधेरा घनघोर है. ऐसे में एक सार्वजनिक सभा में ज्योतिरादित्य सिंधिया मंच से उतर कर दिग्विजयसिंह का हाथ थाम कर मंच पर ले जाते हैं. यह महज संयोग नहीं है बल्कि उन दिनों के लौट जाने का संकेत है कि राजनीति में शुचिता शेष है. शेष है एक-दूसरे को सम्मान देने की नियत. लेकिन आनंद लीजिए कि ज्योतिरादित्य सिंधिया वक्त गंवाए और कोई दूसरा मनोभाव बनाये. मुस्कराते हुए मंच से उतरते हैं. आसपास खड़े लोगों का अभिवादन करते हैं और पूरे अधिकार के साथ दिग्विजयसिंह को मंच पर साथ ले जाते हैं.

यह पल यकिनन स्मृतिकोष में सदैव के लिए अंकित हो जाने वाला है. इस बात पर क्या कोई विमत हो सकता है कि राजनीति में दिग्विजयसिंह वरिष्ठ हैं और ज्योतिरादित्य उनसे कम. मध्यप्रदेश की राजनीति में दिग्विजयसिंह अपने संकल्पों को पूर्ण करने में कभी हिचके नहीं, पीछे हटे नहीं। और ज्योतिरादित्य अधिकार के साथ उन्हें मंच पर ले जाते हैं तो उनका संकल्प टूट जाता है. स्मरण रहे कि कांग्रेस की एक सभा में उन्होंने संकल्प लिया था कि वे मंच पर नहीं बैठेंगे। तब से वे कांग्रेस के मंच से किनारा कर दर्शक दीर्घा में बैठने लगे. ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेसजनों ने उनका मान-मनोव्वल नहीं किया होगा. उन्हें सम्मान देने में पीछे रहे होंगे. सबने अपने हिस्से से दिग्विजयसिंह को मनाने का प्रयास किया होगा लेकिन वे अपने संकल्प पर अडिग रहे. फिर ऐसा क्या हुआ कि वे ज्योतिरादित्य सिंधिया के आग्रह को टाल नहीं सके? मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक उन्होंने आग्रह तो किया ही, अधिकार के साथ उन्हें अपने साथ हाथ पकड़ कर मंच तक ले आए. 

राजनीतिक हलकों में यह चर्चा का विषय बन गया. जैसा कि होता आया है राजनीति के मंच पर जब ऐसा कोई प्रसंग आता है तो उसके पीछे की राजनीति तलाश की जाने लगती है. अनेक बार ऐसा होता भी है लेकिन वर्तमान प्रसंग इस बात का संकेत देता है कि ज्योतिरादित्य की यह पहल अपने वरिष्ठ को सम्मान देने की है ना कि राजनीतिक विवशता. इस घटनाक्रम के अगले दिन अखबारों में दिग्विजयसिंह का बयान छपता है कि ज्योतिरादित्य उनके बेटे के समान है. ज्योतिरादित्य सिंधिया की पहल और दिग्विजयसिंंह का बयान के नीचे या पीछे कोई राजनीति नहीं देखना चाहिए. यूं कि ये महज एक परिवार सा है. सनातनी संस्कृति को समझने और मानने वाले यह समझ सकते हैं कि जब घर के बुर्जुग नाराज होते हैं, रूठ जाते हैं तो यह जिम्मेदारी बच्चों की होती है कि वे उन्हें अधिकारपूर्वक साथ लेकर चलें. उन्हें मनाने या उनसे माफी मांगने की कतई जरूरत नहीं होती है और ना ही वे चाहते हैं कि उनके बच्चे ऐसा करें. ऐसा किया भी जाता है तो यह एक औपचारिक रिश्ते में बदल जाता है. उल्टे गुस्सा कीजिए, नाराज हो जाइए और अधिकार जताइए, आपस की दूरी खत्म हो जाती है. मनोविज्ञान भी यही कहता है और भारतीय संस्कृति में भी यही रिवाज है. 

राजनीतिक गलियारे में इस सुखद प्रसंग के बाद चर्चा चल पड़ी, कयास लगाये जाने लगे कि यह सब संयोग नहीं बल्कि राजनीतिक पहल है. यह भी बिना किसी तथ्य, तर्क के यह बात गढ दी गई कि सिंधिया कांग्रेस वापसी चाहते हैं इसलिए यह पहल उन्होंंने की. कुछ ऐसी ही मीमांसा दिग्विजय सिंह के बयान को लेकर की जाने लगी. लिखने और बोलने वालों का आधार क्या है, शायद कोई नहीं जानता. अगर सबने देखा, जाना और समझा तो यह कि यह राजनीति के शह-मात का खेल नहीं बल्कि आपसी शिष्टाचार, सद्भाव और सौम्यता का प्रसंग है. मुश्किल यह है कि समाज का हर वर्ग इस बात से प्रसन्न नहीं होता है कि आज कुछ सुखद हो रहा है तो उसे आगे बढ़ायें ना कि क्लेश की जमीन को विस्तार दें. जब राजनीति में शुचिता की बात होती है तब हम इतिहास के पन्ने पलटते हैं. अनेक पुराने प्रसंग और घटनाओं को बताते हैं कि देखो, वो समय कैसा था. और आज जब उन पुराने प्रसंगों, घटनाओं का किंचचित मात्र बेहतर हो रहा है तो हम उनके बीच हुई कुछ कड़ुवाहट को सामने ले आते हैं. क्या हम थोड़ी देर के लिए इस मकबूल वक्त में खो नहीं सकते हैं. माना कि राजनेताओं की राजनीति अपने अस्तित्व को लेकर होती है तो सवाल यह है कि वे सारी मेधा, सारी मेहनत समाज को आगे बढ़ाने के लिए ही तो कर रहे हैं. निश्वित रूप से वे व्यक्तिगत छवि को निखारना चाहते हैं और वे ताकतवर होंगे, तभी वे समाज हित में, राष्ट्रहित में, राज्य में कुछ ठोस कर पाएंगे. मैं राजनीति का ककहरा नहीं जानता हूं लेकिन यह भी जानता हूं कि राजनीति है, यहां कुछ भी संभव है. और यह कोई नया नहीं है. भविष्य में क्या होगा, कैसे होगा, कोई नहीं जानता लेकिन बर्फ पिघल रही है तो पिघल जाने दीजिए. इस घटाघोप अंधेरे में इस बाती को प्रज्जवलित होने दीजिए. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)

शुक्रवार, 8 अगस्त 2025

पचास साल से ‘शोले’ का भोपाल कनेक्शन

प्रो. मनोज कुमार

    पवित्र माह अगस्त में जब हम स्वाधीनता का उत्सव मना रहे होंगे तब फिल्म ‘शोले’ अपना पचासवाँ सालगिरह मना रहा होगा। इस फिल्म की चर्चा की जरूरत इसलिए भी है कि पचास साल पहले ‘शोले’े की ही चर्चा नहीं थी बल्कि यह साल इतिहास के पन्नों में दर्ज है, जब देश में आपातकाल लागू हुआ था। अनेक फिल्मों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा बिठा दिया गया था लेकिन फिल्म ‘शोले’ मजे से देखी गई क्योंकि यह सरकार पर वार नहीं करती थी। मौसी और जय का संवाद हो या ताँगेवाली बसंती का बड़बोलापन, राधा की खामोशी हो या सांभा का डायलाग... बार बार और हर बार, हर पीढ़ी को मोह लेता है। इस संकटकाल में ‘शोले’ ने कई मानक गढ़े और आज भी वह सिने प्रेमियों को लुभा रहा है। 

...तो क्या दो रुपये में पूरा जंगल खरीदने निकले थे आप... देखो मियाँ भोत हो गया...अब आप यहाँ से रवानगी डाल दो... नई तो मेरा नाम भी सूरमा भोपाली ऐसई नई हे... यह डॉयलाग तो आपको याद होगा।। होगा क्यों नहीं... पचास साल से धूम मचा रहे सूरमा भोपाली ऐसई थोड़ी हैं... ये हैं फिल्म ‘शोले’ के भोपाल और मध्यप्रदेश कनेक्शन की पहली कड़ी...इसके अलावा भी और भी कड़ी हैं जिनका हम आगे जिक्र करेंगे।  ‘शोले’ किसी अलहदा कहानी पर नहीं बनी थी। फौरीतौर पर देखा जाए तो वह एक मसाला फिल्म थी।  ‘पचास पचास कोस दूर जब बच्चा रात तो रोता है तो माँ कहती है चुप हो जा... नहीं तो गब्बर आ जाएगा’....  ‘शोले’ के अलावा भी अनेक फिल्मों ने पचास साल पूरे किए लेकिन शोले ने जो रिकार्ड कायम किया, उसका सानी दूसरा नहीं हुआ। ‘शोले’ और भोपाल और मध्यप्रदेश कनेक्शन को याद करना भी जरूरी हो जाता है।

कभी चुलबुली और बाद में संजीदा नायिका के रूप में जिन्हें आप याद करेंगे तो वह भोपाल की जया होगी। कभी यही जया भादुड़ी आज श्रीमती जया बच्चन हंै। इस तरह फिल्म शोले में जया भादुड़ी का भोपाल कनेक्शन भी आपकी याद में होगा। भोपाल में अपने समय के लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार तरूण कुमार भादुड़ी की बिटिया जया भादुड़ी हैं। इस फिल्म में तरूण कुमार भादुड़ी का कोई सीधा कनेक्शन नहीं है लेकिन गब्बर का किरदार को प्रभावी बनाने में उनकी किताब ‘अभिशप्त चंबल’ का बड़ योगदान है। अमज़द खान को उन्होंने यह किताब पढऩे के लिए दिया गया था जिसे रियल लाइफ में अमजद खान की पत्नी यह किताब पढ़ कर उन्हें सुनाती। इस तरह गब्बर सिंह का स्वाभाविक और दमदार किरदार परदे पर उतर आया। जय की भूमिका निभाने वाले अमिताभ बच्चन भले ही जन्म से इलहाबादी हों लेकिन भोपाल के दामाद होने से उनका भी ‘शोले’में भोपाली कनेक्शन दिखता है। ऐसे में पचास साल पहले लौटते हैं तो अपने समय की बॉक्स ऑफिस पर सुपर-डुपर फिल्म के रूप में धूम मचाने वाली फिल्म ‘शोले’ के भोपाल और मध्यप्रदेश कनेक्शन को लेकर चर्चा करना जरूरी हो जाता है। ‘शोले’ और भोपाल की ऐसी आपसदारी है कि ‘शोले’ की चर्चा हो और भोपाल छूट जाए और भोपाल की चर्चा हो और ‘शोले’ का जिक्र ना हो, यह तो लगभग नामुमकिन सा है। आखिऱ क्या कनेक्शन है ‘शोलेे’ और भोपाल का? जब इस बात की तहकीकात करेंगे तो आनंद आ जाएगा और यह बात भी साफ हो जाएगी कि करीब डेढ़ दशक से ऊपर समय से भोपाल में फिल्म सिटी बनाए जाने की माँग की जा रही है, वह जायज है। सरकार को इस ओर ध्यान देकर भोपाल में फिल्म सिटी डेवलप किया जाना चाहिए। 

खैर, फिल्म ‘शोले’ के भोपाल कनेक्शन की बात करते हैं तो बीती पीढ़ी, वर्तमान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी जब भी ‘शोले’ देखती है तो उसे सूरमा भोपाली याद आ जाते हैं। अब आप पूछ सकते हैं कि सूरमा भोपाली है कौन? तो मियाँ हम कहेंगे हमारे जगदीप...  भोपाल में सूरमा भोपाली जैसा सचमुच का कोई किरदार है या नहीं, यह तो पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है लेकिन भोपाल की मशहूर पटियाबाजी से यह किरदार उपजा होगा। और यह किरदार इतना प्रभावी है कि फिल्म से उसे हटा दिया जाए तो फिल्म का एक बड़ा हिस्सा वीरान सा हो जाएगा। सूरमा भोपाली के किरदार को इस कदर जीवंत किया कि वाह भोपाल, आह भोपाल बरबरस ही निकल पड़ता है। याद होगा ना कि अपने लकड़ी के टाल पर पटियाबाजी के अंदाज में सूरमा अर्थात जगदीप लम्बी लम्बी छोड़ते हैं और बताते हैं कि कैसे उन्होंने जय-वीरू को कॉलर पकड़ कर अंदर करवा दिया था। लेकिन सामने जय-वीरू को देखते ही उनके पसीने छूट जाता है। बस, इसी के साथ दर्शकों के चेहरे पर हँसी आ जाती है। इस कॉमिक कैरेक्टर से जगदीप को काफी नाम और पहचान मिली, जिसके बाद से उन्हें सूरमा भोपाली के नाम से भी जाना जाने लगा। वैसे जगदीप का जन्म मध्यप्रदेश के दतिया में 29 मार्च 1939 को एक संपन्न परिवार में हुआ था। ‘शोले’ में उनको ये रोल मिलने का किस्सा भी बड़ा मजेदार है। ‘सूरमा भोपाली’ का किरदार भोपाल के फॉरेस्ट ऑफिसर नाहर सिंह पर आधारित था।

भोपाल में अरसे तक रहे जावेद अख्तर ने नाहरसिंह के किस्से सुन रखे थे, इसलिए जब उन्होंने सलीम के साथ फिल्म ‘शोले’ लिखना शुरू किया, तो कॉमेडी के लिए नाहर सिंह से मिलता-जुलता किरदार ‘सूरमा भोपाली’ तैयार कर दिया। जावेद अख्तर ने उन्हें ‘शोले’ की कहानी सुनाई। जगदीप को लगा कि दोस्ती की वजह से उन्हें काम मिलेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिल्म की लगभग पूरी शूटिंग हो गई, तब एक दिन अचानक उन्हें डायरेक्टर रमेश सिप्पी का फोन आया। उन्होंने जगदीप को फिल्म में सूरमा भोपाली का रोल ऑफर किया। इस पर जगदीप ने कहा कि फिल्म की शूटिंग तो पूरी हो गई। तब सिप्पी ने कहा कि अभी कुछ सीन्स की शूटिंग बाकी है। सिप्पी के ऑफर पर  उन्होंने सूरमा भोपाली का रोल निभाया। शोले और सूरमा भोपाली का रोल, दोनों ही हिट रहे। इस सक्सेस के बाद जगदीप ने इसी किरदार पर फिल्म सूरमा भोपाली बनाई भी, जो 1988 में रिलीज हुई थी। ये भारत के बहुत से राज्य में फ्लॉप रही, लेकिन मध्यप्रदेश में इस फिल्म के प्रशंसक बड़ी तादाद में रहे।

सूरमा भोपाली के किरदार को गढऩे वाले जावेद अख़्तर को कौन नहीं जानता? ‘शोले’ की हिट करने वाली पटकथा लिखने वाले जोड़ी सलीम-जावेद में से जावेद अख़्तर का सीधा रिश्ता भोपाल से है। भोपाल में पले-बढ़े जावेद के भीतर भी कहीं एक भोपालीपन होता है और शायद यही कारण है कि ‘शोले’ में सूरमा भोपाली के किरदार को गढ़ा और ऐसा गढ़ा कि पचास साल बाद भी उसकी याद ताज़ा है। जावेद अख़्तर 17 जनवरी 1945 को ग्वालियर में जन्मे। उनके पिता, जां निसार अख़्तर, एक प्रसिद्ध कवि थे और उनकी माता, सफिया अख़्तर, एक गायिका और लेखिका थीं। जावेद अख़्तर ने लखनऊ में अपनी शुरुआती शिक्षा प्राप्त की और भोपाल के सैफिया कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। इस प्रसंग को याद करना भी मजेदार है कि स्क्रिप्ट को कागज़ पर उतारना जावेद का काम था लेकिन उनकी राइटिंग इतनी खऱाब थी कि उसको पढ़ा ही नहीं जा सकता था. वो उर्दू में लिखते थे जिसका हिन्दी अनुवाद करते थे उनके असिस्टेंट ख़लिश. इसके बाद उनके एक दूसरे असिस्टेंट अमरजीत उसका एक लाइन में अंग्रेज़ी में साराँश लिखा करते थे। खैर, उनकी तासीर उनके इस शेर से पता चल जाता है

जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता

मुझे पामाल रस्तों का सफऱ अच्छा नहीं लगता

पचास सालों से हिट फिल्म शोले की पटकथा लेखकों का जिक्र हो तो सलीम के बिना अधूरा रहेगा। कभी सलीम-जावेद की जोड़ी फिल्मी दुनिया में मशहूर हुए सलीम का सीधा रिश्ता भोपाल से नहीं है लेकिन मध्यप्रदेश के इंदौर से जरूर है। सलीम का परिवार इंदौर से है और सलमान खान का जन्म इंदौर में हुआ है। सलीम-जावेद ने ऐसी धाँसू पटकथा तैयार की कि एक मसाला फिल्म होने के बाद भी वह हरदिल अज़ीज़ फिल्म बनकर आज भी धूम मचा रही है। शोले के लिए सारी तैयारियाँ हो गई थीं। फिल्म की पूरी स्टार कास्ट सेट पर पहुँेचने के लिए तैयार थी। डायरेक्टर रमेश सिप्पी ‘शोले’ के पहले सीन के लिए कट बोलने के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, क्योंकि उन्होंने लेखक जावेद अख्तर और सलीम खान के साथ इस मूवी के लिए काफी मेहनत की थी। 

‘शोले’ का भोपाली कनेक्शन के बहाने मध्यप्रदेश में सिनेमा संसार पर थोड़ी चर्चा जरूरी हो जाता है। सिनेमा निर्माण के लिए मध्यप्रदेश हमेशा से मुफीद रहा है। किसी समय राजकपूर जैसे शोमेन मध्यप्रदेश में फिल्म ‘तीसरी कसम’ शूटिंग सागर में की थी। जबलपुर में प्रेमनाथ का थियेटर था जो अब जमींदोज हो चुका है, राजकपूर की ससुराल रीवा में है। इधर बीते  कुछ सालों से सिनेमा के परदे से लेकर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर मध्यप्रदेश का जलवा है। लता मंगेशकर से लेकर किशोर कुमार, पंडित प्रदीप, जावेद अख़्तर और जाने कितने नामचीन लोग मध्यप्रदेश से निकल कर रूपहले परदे पर वर्षों से मुकाम बनाए हुए हैं। अब समय आ गया है कि प्रकाश झा जैसे बड़े फिल्मकार राजनीति, आरक्षण और चक्रव्यूह बना चुके हैं। इसके अलावा मध्यप्रदेश में बनने वाली फिल्मों में तू और भोपाल एक्सप्रेस, अशोका, मकबूल,जब वी मेट, पीपली लाइव, पान सिंह तोमर टॉयलेट एक प्रेम कथा, बाजीराव मस्तानी एवं गंगाजल जैसी फिल्म थी।

मध्यप्रदेश लोकेशन की दृष्टि से बहुत समृद्ध है। फिल्मों का क्रेज होने से कलाकार सस्ते में बल्कि मुफ्त में भी काम करने को मिल जाते हैं। अनेक शिक्षण संस्थाएँ, हॉस्पिटल, होटल और दूसरे भवन सस्ते दरों में शूटिंग के लिए मिल जाते हैं। राज्य सरकार भी फिल्म निर्माण के लिए मध्यप्रदेश की जमीन को उर्वरा मानती है और साथ ही फिल्मसिटी निर्माण से रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। यही नहीं, एक नीति बन जाने से कलाकारों का शोषण भी नहीं हो पाएगा। समय आ गया है कि हिन्दी सिनेमा से भोपाल ही नहीं, मध्यप्रदेश का कनेक्शन और पक्का हो जाए। 


मंगलवार, 5 अगस्त 2025

कम्युनिकेशन नहीं होना प्राब्लम


सोशल मीडिया को दोष देना आसान है लेकिन हम क्या कर रहे हैं, यह हम नहीं सोचते हैं. प्राब्लम सोशल मीडिया नहीं है बल्कि आपस में कम्युनिकेशन नहीं होना प्राब्लम है. संवादहीनता से उबर जाएंगे तो सोशल मीडिया हमारे लिए उपयोगी हो जाएगा. आइए सुनते हैं

सोमवार, 4 अगस्त 2025

‘कटहल’ का स्वाद और ‘12th फेल’’ की कामयाबी

प्रो. मनोज कुमार

मध्यप्रदेश सिनेमा के लिए हमेशा से ऊर्वरा भूमि रही है. संभवत: अपने जन्म के साथ ही रजतपट पर मध्यप्रदेश का दबदबा रहा है. साल 2025 के राष्ट्रीय पुरस्कारों में कटहल और  ‘12th फेल’’ नें पुरस्कार जीत कर यह एक बार फिर प्रमाणित हो गया कि रजतपट में मध्यप्रदेश का कोई सानी नहीं. इन पुरस्कारों के साथ ही मध्यप्रदेश में फिल्म सिटी को आकार लेने के दावों को एक और वजह मिल गई है. ‘कटहल’ के युवा निर्देशक और पटकथा लेखक मध्यप्रदेश के हैं. युवा निर्देशक यशोवर्धन एवं पटकथा लेखक अशोक मिश्र का रिश्ता पिता-पुत्र का है. खास बात यह है कि ‘कटहल’ यशोवर्धन निर्देशित पहली फिल्म है. इसी तरह ‘12ह्लद्ध फेल’ फेल एक ऐसे युवा की सच्ची कहानी है जिसने अपने आत्मविश्वास से नाकामयाबी को कामयाबी में बदल दिया. ऐसे युवक मनोज कुमार शर्मा का रिश्ता मध्यप्रदेश से हैं और वह वर्तमान में भारतीय पुलिस सेवा के उच्चाधिकारी हैं. उनकी कहानी को अनुराग पाठक ने ऐसे पिरोया कि ‘12th फेल’ ने ना केवल दर्शकों का दिल जीत लिया बल्कि एक बड़े निराश युवावर्ग में उत्साह का संचार किया.

‘कटहल’ का स्वाद और ‘12th फेल’ की कामयाबी से मध्यप्रदेश के सिने प्रेमियों का चेहरा खिल उठा. यह स्वाभाविक भी है और होना भी चाहिए. इस कामयाबी के बहाने फिल्म सिटी की संभावना और मध्यप्रदेश का रजतपट पर योगदान को भी समझा जा सकता है. मध्यप्रदेश हमेशा से सिनेमा के लिए मुफीद रहा है. शोमेन राजकपूर से लेकर दिग्गज फिल्म निर्देशक प्रकाश झा को मध्यप्रदेश लुभाता रहा है. यही नहीं, राजकपूर, पे्रमनाथ और सदी के नायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन का ससुराल भी मध्यप्रदेश है. लता मंगेशकर से लेकर किशोर कुमार, अशोक कुमार, अनूप कुमार, जया भादुड़ी, निदा फाजली, अन्नू कपूर जैसे अनेक नाम लिए जा सकते हैं तो पटकथा लेखकों में जावेद अख्तर और सलीम को कौन भुला सकता है? पीयूष मिश्रा की अदायगी, लेखन और आवाज के तो युवा पीढ़ी दीवानी है. यह तो थोड़े नाम हैं जिनके बिना रजतपट पर रंग नहीं चढ़ता है. नए समय में यशोवर्धन जैसे निर्देशक उम्मीद जगाते हैं. यहां इस बात का स्मरण कर लेना चाहिए कि बीते एक दशक में अनेक मल्टीस्टारर फिल्मों और टेलीविजन सीरियल्स के साथ वेबसीरिज का निर्माण हो रहा है. यह मध्यप्रदेश के कलाकारोंं, पटकथा लेखकों और तकनीकी जानकारों के लिए सुनहरा अवसर है. इस संभावना के साथ मध्यप्रदेश में फिल्मसिटी बनाने के लिए लम्बे समय से प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन अभी तक फिल्मसिटी की योजना मूर्तरूप नहीं ले सका है. यह एक टीस देने वाली बात है.

उल्लेखनीय है कि कभी मध्यप्रदेश फिल्म विकास निगम नाम से फिल्मों निर्माण एवं इससे संबंधित पक्षों को प्रोत्साहित करने की मकबूल संस्था थी. अनेक कारणों और नाकामी के चलते इसे बंद कर दिया गया. फिल्म विकास निगम के विसर्जन के साथ सिनेमा की असीमित संभवनाएं भी हाशिए पर चली गई. सबसे बड़ा नुकसान हुआ फिल्म विकास निगम द्वारा प्रकाशित गंभीर वैचारिक पत्रिका ‘पटकथा’ का अवसान. फिल्मसिटी के साथ इन सबको पुर्नजीवन देने की एक बार फिर जरूरत महसूस की जा रही है. मध्यप्रदेश में सिनेमा और फिल्मसिटी की जमीन तलाशने वाले श्रीराम तिवारी के हिस्से में फिल्म विकास निगम की जिम्मेदारी थी और आज वे मुख्यमंत्री डॉ. मोहन  यादव के संस्कृति सलाहाकार हैं तो सहज अपेक्षा होती है कि रजतपट पर मध्यप्रदेश की सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने और मध्यप्रदेश की सिने प्रतिभाओं को तराशने के लिए अपने पुरानी पहल को आगे बढ़ाएं. 

प्रसंगवश याद दिला देना जरूरी हो जाता है कि अगस्त 2025 में अपने पचास साल पूरा करने जा रही फिल्म ‘शोले’ का मध्यप्रदेश कनेक्शन रहा है. फिल्म में अमितभ बच्चन, जया भादुड़ी, जगदीप ने अभिनय किया तो सलीम-जावेद की जोड़ी भी मध्यप्रदेश से ही है. और तो और गब्बर को कैसा अभिनय करना है, यह पाठ भी अमजद खान ने देश के सुपरिचित पत्रकार एवं लेखक तरूण कुमार भादुड़ी की पुस्तक ‘अभिशप्त चंबल’ से किया. इस समय भोपाल में रंगमंच में सक्रिय राजीव वर्मा एवं रीता (भादुड़ी) वर्मा का भी हिन्दी सिनेमा में योगदान रहा है. अनेक फिल्मो में वर्मा दंपत्ति ने अपनी छाप छोड़ी है. इसी तरह वरिष्ठ रंग निर्देशक संजय मेहता भी रंगमंच के साथ लगातार फिल्मों में काम कर रहे हैं. हालिया ‘धडक़न-2’ में भी उनकी भूमिका उल्लेखनीय है. ऐसे में मध्यप्रदेश में फिल्म सिटी की अनिवार्यता हो जाती है.

देश का दिल मध्यप्रदेश सिनेमा के लिए सौफीसद माकूल है. लोकेशन के लिहाज से, अभिनय और कथानक की दृष्टि से और सुरक्षा और सुरक्षित होने की दृष्टि से. प्रकाश झा ने आरक्षण, राजनीति और चक्रव्यूह जैसी बड़ी फिल्मों का निर्माण मध्यप्रदेश की जमीं पर किया. इसके बाद उनकी वापसी कभी होगी, किसी नए विषय को लेकर लेकिन तब तक मझोले और छोटे फिल्मकार नियमित रूप से मध्यप्रदेश में सक्रिय हैं, उन्हें सुविधा मिलेगी तो मध्यप्रदेश की सिनेमा परिदृश्य उन्नत होगा. फिल्मसिटी बन जाने से टैक्स के रूप में ना केवल सरकार को राजस्व का लाभ होगा बल्कि कलाकारों को भी उचित मेहनताना मिल सकेगा. उम्मीद की जाना चाहिए कि सबके प्रयासों से फिल्मसिटी जल्द ही आकार लेगा. तब हम हर वर्ष राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में बार बार ‘कटहल’ का स्वाद और ‘12th फेल’ की कामयाबी का जश्र मना सकेंगे. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)

रविवार, 3 अगस्त 2025

कैंपस कॉरिडोर

 प्रो. उमा कांजीलाल वीसी इग्नू बनीं

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की कमान अब प्रो. उमा कांजीलाल संभालेंगी। वह इग्नू के इतिहास में पहली महिला कुलपति हैं। इससे पहले वह विश्वविद्यालय की प्रो-वाइस चांसलर के रूप में कार्यरत थीं। प्रो. कांजीलाल लंबे समय से शिक्षा जगत में काम कर रही हैं और उन्होंने डिजिटल लर्निंग, ई-एजुकेशन और ऑनलाइन एजुकेशन के क्षेत्र में कई उल्लेखनीय योगदान दिए हैं. वे यूनिवर्सिटी लाइब्रेरियन, स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज की डायरेक्टर और ऑनलाइन एजुकेशन सेंटर की प्रमुख जैसी कई बड़ी भूमिकाओं में काम कर चुकी हैं. उनकी विशेषज्ञता डिजिटल लाइब्रेरी, ई-लर्निंग और मल्टीमीडिया कोर्स विकास में है.यह जानकारी शिक्षा मंत्रालय के अधिकारियों के द्वारा साझा की गई है।

एक लाख का द अप्पन मेनन मेमोरियल ट्रस्ट अवार्ड

विश्व मामलों, विकास समाचार और पर्यावरण समाचार के क्षेत्र में काम करने वाले भारत और दक्षिण एशिया के पेशेवर पत्रकार पत्रकारों को "द अप्पन मेनन मेमोरियल ट्रस्ट" पुरस्कार के लिए 12 सितंबर 2025 से पहले आवेदन जमा करना होगा। 3-5 साल के अनुभव वाले पत्रकार, किसी भी माध्यम के पत्रकारों को दिया जाता है।

यहां है रिक्तियां

सत्यजीत रे फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान कोलकाता में प्रोफेसर, संपादक, सहायक संपादक्र ध्वनि रिकार्डिंग एवं डिजाइन, एनीमेटर, निज सहायक, कैमरा सहायक, प्रोजेक्शन सहायक एवं प्रकाश सहायक के एक-एक पद रिक्त हैं. यह सभी पद अनारक्षित हैं. अधिक जानकारी के लिए वेबसाइइट सर्च करें.

विजिटिंग फेकल्टी चाहिए 

मध्य प्रदेश इंस्टीट्यूट ऑफ़ हॉस्पिटैलिटी ट्रेवल एंड टूरिज्म स्टडीज का प्रबन्धन, टूरिज्म, होटल मैनजमेंट एवं अंग्रेज़ी शिक्षण के लिए विजिटिंग फेकल्टी इंप्लनमेट करने के लिए आवेदन बुलाए हैं। आवेदन की आखिरी तारीख 18 अगस्त है। वेबसाइट देखें www.mpihttsbpl.gov.in 

बाल पुरस्कार के लिए आवेदन करें

प्रधानमंत्री राष्ट्रीय बाल पुरस्कार (पीएमआरबीपी) के लिए ऑनलाइन आवेदन प्राप्त करने की अंतिम तिथि 15.08.2025 तक बढ़ा दी गई है। यह पुरस्कार उन बच्चों को दिया जाता है जो बहादुरी, सामाजिक सेवा,  पर्यावरण,  खेल,  कला और संस्कृति तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र से  है। पांच वर्ष से अधिक 18 वर्ष से कम आयु का कोई भी (31 जुलाई, 2025 तक) जो भारतीय नागरिक है और भारत में रहता है, पुरस्कार के लिए पात्र है।  

बीएसएसएस कॉलेज में दो नए कोर्स

बीएसएसएस कॉलेज,  सामाजिक कार्य विभाग और पुलिस विभाग के सहयोग से आज की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप दो नए सर्टिफिकेट कोर्स शुरू किया गया है. यह कोर्स ऑनलाइन और ऑफ लाइन दोनों मोड में है. इसमें पुलिस विभाग के साथ 30 घंटे की इंटर्नशिप शामिल है। नए सर्टिफिकेट कोर्स है  1. v. Peace Studies, Justice, & Security Sector Governance. 2.Public Policy, Good Governance and Community-Based Access to Justice 

डॉ. दीपेश अवस्थी एडीटर प्रमोट

पत्रिका के सीनियर करसपांडेंट डॉ. दीपेश अवस्थी को प्रमोट कर संस्थान ने एडीटर नियुक्त किया है. वे होशंगाबाद एडीशन के एडीटर होंगे. लम्बे समय से पत्रिका में कार्यरत डॉ. अवस्थी की राजभवन एवं विधानसभा रिपोर्टिंग का लम्बा अनुभव है. वे अपनी खास खबरों के लिए पहचाने जाते रहे हैं. उनकी रूचि पढऩे में है और इसके चलते उन्होंने पत्रकारिता में पीएचडी की. 

मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के सम्मान

मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी ने वर्ष 2024 के लिए श्रेष्ठ कृतियों के लिए राष्ट्रीय एवं राज्यस्तरीय सम्मानों का ऐलान कर दिया है. मध्यप्रदेश के लेखकों की प्रथम मौलिक कृति प्रकाशन के लिए पांडुलिपि प्रकाशन सहायता योजना के अंतर्गत बीस सामान्य वर्ग के और इतने ही आरक्षित वर्ग के लिए 20 हजार की राशि दी जाएगी. साथ ही अकादमी ने अखिल भारतीय स्तर के 13 सम्मानों का ऐलान किया है. इसमें सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों को एक लाख एक लाख  रुपये का सम्मान दिया जाएगा. वहीं प्रत्येक के लिए 51 हजार सम्मान राशि के साथ 15 राज्य स्तरीय सम्मानों का भी ऐलान किया है. मध्यप्रदेश में बोलियों में लेखन को समृद्ध करने के लिए प्रति वर्ष की भाँति इस वर्ष भी विभिन्न बोलियों के लिए 6 सम्मानों का ऐलान किया है. श्रेष्ठ कृति को प्रत्येक वर्ग में 51 हजार सम्मान राशि दी जाएगी. विवरण के लिए मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के ऑफिशियल वेबसाइट पर देखा जा सकता है.

बातें हैं बातों का क्या

इन दिनों एक नम्बर और दो नम्बर में कौन कितना पॉपुलर का खेल चल रहा है. अपनी अपनी रूचि के अनुरूप दक्षता दिखा रहे हैं और शह-मात का खेल चल रहा है. दो नंबर भी एक नंबर की दौड़ में हैं और भरसक कोशिश में एक नंबर को मात देने की जुगत में हैं. अब देखें कौन, किसको मात देता है. अब बातें हैं बातों का क्या?

बुधवार, 30 जुलाई 2025

कैंपस कॉरिडोर

 प्रो. उमा कांजीलाल वीसी इग्नू बनीं

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की कमान अब प्रो. उमा कांजीलाल संभालेंगी। वह इग्नू के इतिहास में पहली महिला कुलपति हैं। इससे पहले वह विश्वविद्यालय की प्रो-वाइस चांसलर के रूप में कार्यरत थीं। प्रो. कांजीलाल लंबे समय से शिक्षा जगत में काम कर रही हैं और उन्होंने डिजिटल लर्निंग, ई-एजुकेशन और ऑनलाइन एजुकेशन के क्षेत्र में कई उल्लेखनीय योगदान दिए हैं. वे यूनिवर्सिटी लाइब्रेरियन, स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज की डायरेक्टर और ऑनलाइन एजुकेशन सेंटर की प्रमुख जैसी कई बड़ी भूमिकाओं में काम कर चुकी हैं. उनकी विशेषज्ञता डिजिटल लाइब्रेरी, ई-लर्निंग और मल्टीमीडिया कोर्स विकास में है.यह जानकारी शिक्षा मंत्रालय के अधिकारियों के द्वारा साझा की गई है।

एक लाख का द अप्पन मेनन मेमोरियल ट्रस्ट अवार्ड

विश्व मामलों, विकास समाचार और पर्यावरण समाचार के क्षेत्र में काम करने वाले भारत और दक्षिण एशिया के पेशेवर पत्रकार पत्रकारों को "द अप्पन मेनन मेमोरियल ट्रस्ट" पुरस्कार के लिए 12 सितंबर 2025 से पहले आवेदन जमा करना होगा। 3-5 साल के अनुभव वाले पत्रकार, किसी भी माध्यम के पत्रकारों को दिया जाता है।

यहां है रिक्तियां

सत्यजीत रे फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान कोलकाता में प्रोफेसर, संपादक, सहायक संपादक्र ध्वनि रिकार्डिंग एवं डिजाइन, एनीमेटर, निज सहायक, कैमरा सहायक, प्रोजेक्शन सहायक एवं प्रकाश सहायक के एक-एक पद रिक्त हैं. यह सभी पद अनारक्षित हैं. अधिक जानकारी के लिए वेबसाइइट सर्च करें.

विजिटिंग फेकल्टी चाहिए 

मध्य प्रदेश इंस्टीट्यूट ऑफ़ हॉस्पिटैलिटी ट्रेवल एंड टूरिज्म स्टडीज का प्रबन्धन, टूरिज्म, होटल मैनजमेंट एवं अंग्रेज़ी शिक्षण के लिए विजिटिंग फेकल्टी इंप्लनमेट करने के लिए आवेदन बुलाए हैं। आवेदन की आखिरी तारीख 18 अगस्त है। वेबसाइट देखें www.mpihttsbpl.gov.in 

बाल पुरस्कार के लिए आवेदन करें

प्रधानमंत्री राष्ट्रीय बाल पुरस्कार (पीएमआरबीपी) के लिए ऑनलाइन आवेदन प्राप्त करने की अंतिम तिथि 15.08.2025 तक बढ़ा दी गई है। यह पुरस्कार उन बच्चों को दिया जाता है जो बहादुरी, सामाजिक सेवा,  पर्यावरण,  खेल,  कला और संस्कृति तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र से  है। पांच वर्ष से अधिक 18 वर्ष से कम आयु का कोई भी (31 जुलाई, 2025 तक) जो भारतीय नागरिक है और भारत में रहता है, पुरस्कार के लिए पात्र है।  

बीएसएसएस कॉलेज में दो नए कोर्स

बीएसएसएस कॉलेज,  सामाजिक कार्य विभाग और पुलिस विभाग के सहयोग से आज की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप दो नए सर्टिफिकेट कोर्स शुरू किया गया है. यह कोर्स ऑनलाइन और ऑफ लाइन दोनों मोड में है. इसमें पुलिस विभाग के साथ 30 घंटे की इंटर्नशिप शामिल है। 

नए सर्टिफिकेट कोर्स है  1. v. Peace Studies, Justice, & Security Sector Governance. 2.Public Policy, Good Governance and Community-Based Access to Justice 

डॉ. दीपेश अवस्थी एडीटर प्रमोट

पत्रिका के सीनियर करसपांडेंट डॉ. दीपेश अवस्थी को प्रमोट कर संस्थान ने एडीटर नियुक्त किया है. वे होशंगाबाद एडीशन के एडीटर होंगे. लम्बे समय से पत्रिका में कार्यरत डॉ. अवस्थी की राजभवन एवं विधानसभा रिपोर्टिंग का लम्बा अनुभव है. वे अपनी खास खबरों के लिए पहचाने जाते रहे हैं. उनकी रूचि पढऩे में है और इसके चलते उन्होंने पत्रकारिता में पीएचडी की. 

मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के सम्मान

मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी ने वर्ष 2024 के लिए श्रेष्ठ कृतियों के लिए राष्ट्रीय एवं राज्यस्तरीय सम्मानों का ऐलान कर दिया है. मध्यप्रदेश के लेखकों की प्रथम मौलिक कृति प्रकाशन के लिए पांडुलिपि प्रकाशन सहायता योजना के अंतर्गत बीस सामान्य वर्ग के और इतने ही आरक्षित वर्ग के लिए 20 हजार की राशि दी जाएगी. साथ ही अकादमी ने अखिल भारतीय स्तर के 13 सम्मानों का ऐलान किया है. इसमें सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों को एक लाख एक लाख  रुपये का सम्मान दिया जाएगा. वहीं प्रत्येक के लिए 51 हजार सम्मान राशि के साथ 15 राज्य स्तरीय सम्मानों का भी ऐलान किया है. मध्यप्रदेश में बोलियों में लेखन को समृद्ध करने के लिए प्रति वर्ष की भाँति इस वर्ष भी विभिन्न बोलियों के लिए 6 सम्मानों का ऐलान किया है. श्रेष्ठ कृति को प्रत्येक वर्ग में 51 हजार सम्मान राशि दी जाएगी. विवरण के लिए मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के ऑफिशियल वेबसाइट पर देखा जा सकता है.

बातें हैं बातों का क्या

इन दिनों एक नम्बर और दो नम्बर में कौन कितना पॉपुलर का खेल चल रहा है. अपनी अपनी रूचि के अनुरूप दक्षता दिखा रहे हैं और शह-मात का खेल चल रहा है. दो नंबर भी एक नंबर की दौड़ में हैं और भरसक कोशिश में एक नंबर को मात देने की जुगत में हैं. अब देखें कौन, किसको मात देता है. अब बातें हैं बातों का क्या?

वो ना आए तोगुस्सा, वो आए तो भी

  प्रो. मनोज कुमार      अरे यार, क्या लिखते हैं? क्या छापते हैं? समझ में नहीं आता कैसी पत्रकारिता कर रहे हैं. सब बिक गए हैं. ढोल पीट रहे हैं...