बिहार इलेक्शन में प्रशांत किशोर कागज के फूल साबित हुए हैं. चुनाव परिणाम के पहले वे कह रहे थे कि उनकी पार्टी जनसुराज को 135 सीट मिली तो यह उनकी बड़ी हार होगी. यानि वे डेढ़ सौ से पार सीट की उम्मीद लगाये बैठे थे लेकिन परिणाम में वे शून्य पर खड़े रहे. वैसे थोड़ा उन्नीसा-बीसा मान लें तो बिहार का चुनाव परिणाम बहुत ज्यादा चौंकाने वाला नहीं है. लगभग सब पहले से तय था. यह चुनाव मैनेजेंट का परिणाम है. यादा होगा कि कभी कांग्रेस के सीनियर लीडर दिग्विजयसिंह ने कहा था कि चुनाव मैनेजमेंट से जीते जाते हैं तो कोहराम मच गया था लेकिन बीते दो दशकों में चुनाव मैनेजमेंट से ही जीते जा रहे हैं. मैनेजमेंट की परिभाषा अनेक तरह से गढ़ा जा सकता है, वह भी अपने-अपने तरीके से लेकिन निष्कर्ष यही निकलता है कि चुनाव मैनेजमेंट से जीते जाते हैं. हालाँकि इस चुनाव में कभी अपने चुनाव मैनेजमेंट के लिए ख्यात रहे प्रशांत किशोर नेपथ्य में चले गए. कभी भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत दिलाने का दावा करने वाले प्रशांत किशोर का खाता भी नहीं खुला. प्रशांत किशोर का कहना था कि मुझे बिहार की सेवा करना है।’ शायद मतदाताओं ने पहले ही उनकी मन की बात पढ़ लिया था, सो उन्हें सादगी से सेवा करने के लिए शून्य पर ला खड़ा किया.
प्रशांत किशोर की पहचान चुनावी रणनीतिकार के रूप में रही है और उन्हें कामयाबी भी मिलती रही है. उन्हें यह लगने लगा था कि जितनी मेहनत मैं दूसरे राजनीतिक दलों के लिए करता हूँ, उतनी स्वयं के लिए करूं तो मेरा अपना दबदबा होगा. शायद इसी सोच के साथ पीके ने जनसुराज पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में कूद पड़े. सारी रणनीति और मंसूबे धरे रह गए. कहां तो सिकंदर बनने निकले और कहां. ये होता है और हुआ भी. हालाँकि इसका दुष्परिणाम महागठबंधन को भी भुगतना पड़ा क्योंकि उनके हिस्से का वोट बंट गया. महागठबंधन को विपक्ष में बैठना था, बैठेंगे लेकिन स्वयं पीके अपने लिए कोई ठौर नहीं बचा पाये.
प्रशांत किशोर के बारे में मेरी धारणा यही रही है कि वे चुनावी रणनीतिकार के रूप में कामयाब हैं लेकिन राजनेता के रूप में वे फेलुअर साबित होंगे. वे ना तो असम के प्रफुल्ल कुमार मोहंता बन पाए और ना दिल्ली के अरविंद केजरीवाल. पीके का मुकाबला ना तो ममता बेनर्जी से था और ना शरद पवार से. वे उम्मीदों से उपजे नेता थे. वे विद्यार्थी आंदोलन से निकले होते तो मोहंता की तरह विजयी होते और तो और किसी जनआंदोलन से भी बने होते तो केजरीवाल होते लेकिन वे कागज की नाव पर सवार थे. अब प्रशांत किशोर का नया आरोप है कि बिहार में एनडीए ने जो दस-दस हजार रुपये महिलाओं को बांटे, वो विश्व बैंक का पैसा है और केन्द्र सरकार ने इसमें मदद की है. थोड़ी देर के लिए पीके के आरोप को मान भी लें तो क्या वे बताएंगे कि चुनाव परिणाम से पहले उनका यह आरोप सामने क्यों नहीं आया? इसे कहते हैं खिसीयानी बिल्ली खंबा नोंचे. अब तो पांच साल के लिए उन्हें बाहर ही खड़ा रहना होगा. रणनीतिकार से राजनेता बनने की उनकी मंसूबा से उनकी नई नवेली पार्टी जनसुराज की नैया तो डूबती दिख रही है. अब उनकी कंपनी की साख पर भी आंच आ सकती है. कल तो जो राजनीतिक पार्टियां उनकी कंपनी को अवसर देती थीं, वह अब शायद ना मिले.
प्रशांत किशोर के इस हाल से अनायस कुमार विश्वास का स्मरण हो जाता है कि उन्हें भी लगता था कि आम आदमी पार्टी उनके दम पर ही खड़ी हुई है. दिल्ली में सरकार बनाने में सारा दारमोदार उनके कंधों पर था. पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल को हाशिये पर रखने की भरपूर कोशिश के बाद सफल नहीं होने पर कुमार विश्वास को मंच पर कविता पढऩे लौटना पड़ा. हालांकि उनके मन में राजनेता न बन पाने का ऐसा मलाल है कि हर कविता के पहले वे अपनों ने धोखा दिया का, राग जरूर अलपाते हैं. एक बार तो उन्हें लगा कि वे राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं और उनकी उम्मीद थी कि भाजपा उन्हें हाथोंहाथ लेगी. लेकिन वहां भी उन्हें निराशा मिली. ना आप ने राज्यसभा भेजा और ना भाजपा ने अपने खेमे में बुलाया. दरअसल राजनीति के मैदान में उतरना आसान है लेकिन स्वयं को बनाये रखना बहुत ही मुश्किल है. कुमार विश्वास और प्रशांत किशोर के पहले ऐसे दर्जनों लोग राजनीति में हाथ आजमा कर किनारा कर चुके हैं. आगे भी ऐेसे लोगोंं की भीड़ आएगी लेकिन राजनीति में उनका ही परचम फहरेगा जो सब छोडक़र, धक्के खाकर और उसी मेें रमे रहेंगे. राजनीति साधना और सर्मपण मांगती है. यह पार्टटाइम काम नहीं है बल्कि इसके लिए पैरों में छाले पड़ जाते हैं. कुछेक लोग होते हैं जो जहाज से उतर कर सफल हो जाते हैं लेकिन ऐसे थोड़े हैं. दिल्ली के बाद बिहार कुमार विश्वास और पीके के जरिए सिखाता है कि राजनीति की राह इतनी आसान नहीं. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)