बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

मुद्दा

छात्रसंघ का प्रत्यक्ष चुनाव जरूरी
मनोज कुमार

छात्रसंघ चुनाव के दौरान होने वाली हिंसा को रोकने के नाम पर मध्यप्रदेष में कई सालों से अप्रत्यक्ष चुनाव कराये जाने की परम्परा आरंभ हो गयी थी। इसे पूरी तरह गलत नहीं कहा जाएगा लेकिन यह कहना भी अनुचित होगा कि प्रत्यक्ष चुनाव से हिंसा को बढ़ावा मिलता है। लिंगदोह कमेटी की सिफारिषांे के मद्देनजर हाल ही में आये फैसले को लेकर अलग अलग राय जाहिर की जा रही है। जो लोग इस फैसले के खिलाफ खड़े हैं, उन्हें लगता है कि चुनाव में छात्र हिंसा बढ़ेगी लेकिन जो लोग फैसले के पक्ष में हैं, उन्हें यह बातें बेकार की लगती है। दोनों ही पक्ष अपनी अपनी जगह सही हैं लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रत्यक्ष चुनाव अनिवार्य है। प्रत्यक्ष चुनाव का विरोध करने वालों को यह जान लेना चाहिए कि पंचायत से लेकर लोकसभा तक के चुनाव प्रत्यक्ष होते हैं और इसमें भी हिंसा होती है तो क्या इन्हें भी स्थगित किया जाना चाहिए? षायद नहीं। तब छात्रसंघ चुनाव प्रत्यक्ष कराये जाने को लेकर विरोध उचित नहीं जान पड़ता है।
प्रदेष में छात्रसंघ बेजान से पड़े हुए हैं। इन संघों के पदाधिकारी आमतौर पर उन छात्रों को बनाया जाता है जो मेरिटोरियस हो। इन छात्रों का अकादमिक इतिहास तो बेहतर होता है किन्तु मैदानी रूप् से जूझने में ये कमजोर होते हैं और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। छात्रसंघों को राजनीति की प्राथमिक पाठषाला कहना बेहतर होगा। देष के जाने माने नेता छात्रसंघों में ही तपकर आये हैं। पंचायत अथवा नगर निगम चुनाव के मैदान में उतरने से पहले छात्रसंघ के चुनाव में इन्हें विद्यार्थियांे और कॉलेज की समस्या जानने और समझने का अवसर मिलता है। इन समस्याआंे को सुलझाने में भी अनुभव होता है और आगे चलकर सक्रिय राजनीति में आने वाले विद्यार्थी कामयाब होते हैं। आज के राजनीतिक हालात को देखकर यह कहा जाता है कि राजनीति में रखा क्या है लेकिन जो लोग राजनीति में हैं, उनसे पूछकर देखिये कि उन्हें किस किस तरह के अनुभवों से गुजरना होता है। देष की जनता को समझना, समस्याओं को समझना, उन्हें सुलझाना और जनता को षांत रखने की कला की सीख यही छात्रसंघ देते हैं।
हमारे समाज में जनआंदोलन आहिस्ता आहिस्ता समाप्त होते जा रहे हैं। एक समय था जब छात्रसंघ के कद्दावर नेता न केवल कॉलेज की समस्याआंें के लिये सड़कों पर उतर आते थे बल्कि कई बार जनससमयाओं को लेकर भी वे आगे रहते थे। कई सालों से यह तेवर खत्म हो गया है। इसी तरह श्रमिक आंदोलन भी लगभग गुमसुम सा है। अपने अधिकारों को लेकर सरकार और षासन से टकरा जाने की वह ताकत अब कमजोर पड़ती दिख रही है। हालात इतने खराब होते चले जा रहे हैं कि कथा-कहानियों से लेकर फिल्म और टेलीविजन से भी श्रमिक आंदोलन के मुद्दे गायब होते जा रहे हैं। फिल्म दीवार और काला पत्थर के बाद ही षायद कोई फिल्म इन सब्जेक्ट्स को लेकर बनी है। अब फिल्मों में डॉन और माफिया ने अपनी जगह बना ली है जबकि श्रमिक आंदोलन एक सामाजिक मुद्दा है जो अब पहुंच के बाहर है।
इन मुद्दों को लेकर जब नजर घूमाते हैं तो सहसा अहसास होता है कि छात्रसंघ चुनाव प्रत्यक्ष रूप् से नहीं कराये गये तो छात्रसंघ की प्रभावी ताकत का लोप हो जाएगा। किसी भी समाज से युवावर्ग की ताकत कम होना या खत्म होना, उस समाज की सक्रियता पर सवालिया निषान लगाता है। छात्रसंघ युवावर्ग की ताकत ही नहीं, बल्कि उसकी सोच और उसके सपने भी हैं जो आगे चलकर समाज को, देष को दिषा देते हैं। अब यह सोच लेना कि छात्रसंघों के प्रत्यक्ष चुनाव से हिंसा बढ़ती है, मुझे लगता है कि यह सरासर बेमानी है बिलकुल वैसे ही जैसे कि दुघर्टनाओं के कारण कोई सोचे की गाड़ी चलना बंद हो जाए। छात्रसंघ चुनाव प्रत्यक्ष होना चाहिए और जो समस्यायें दिख रही हैं, उसका उपाय ढूंढना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो आने वाले समय में कागजी नेता मिलेंगे जो जमीनी नहीं होंगे। किसी लोकतांत्रिक देष को चलाने के लिये लोकतांत्रिक प्रणाली ही कारगर होती है और इस नाते छात्रसंघ चुनाव प्रत्यक्ष ही कराये जाने चाहिए।

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