मनोज कुमार

पत्रकारिता और पत्र के व्यवसायिकरण के भेद को समझना होगा क्योंकि पाठकके लिए पत्रकारिता और पत्र में कोई भेद नहीं है। समय की मांग के अनुरूपपत्रकारिता का विस्तार होता गया और बढ़ती मंहगाई के अनुरूप पत्रकारो केवेतनमान और दूसरी सुविधाओ में इजाफा हुआ। आज से दो दषक पहले मिलने वालेवेतनमान और आज मिलने वाला वेतनमान में फर्क है किन्तु पत्र को प्राप्तहोने वाले राजस्व पर नजर डालें तो दोनों के बीच जमीन आसमान का फर्क साफदिखता है। पत्र की आय बढ़ती गई क्योंकि दो दषक पहले तक जो विज्ञापन की जोकीमत थी, आज वह कम से कम चालीस गुना बढ़ गई है। पत्रों का स्वरूप बदल गयाहै। पृश्ठ संख्या में वृ़िद्व के साथ साथ रंगीन छपाई अनिवार्य हो गइ्र्रहै और इस पूरी प्रक्रिया में पत्रकारिता को कोई आर्थिक लाभ नहीं हुआ औरजो हो भी नहीं सकता है। पत्रकारिता का गुण-धर्म कहता है कि वह निरपेक्ष और निस्वार्थ रूप से अपने सामाजिक और नैतिक दायित्वों का निर्वहन करेगी और इस बदले दौर में भी वह पूरी ईमानदारी और षिद्दत के साथ अपने काम करनेमें जुटी हुई है। आज तक किसी खबर की कीमत तय नहीं की गई और न ही विज्ञापनके रूप में उसकी बिलिंग की गई न इंच और सेंटीमीटर में नापा गया। यहां तककी तारीफ में लिखे गये लेख को इम्पेक्ट फीचर कहा गया जो भुगतान के एवज में लिखी गई है जिसमें लेखक हमेषा से गायब रहा है। पत्रकार अरूण षौरी की रिपोर्टिंग बोफोर्स कांड की गंूज आज तक हो रही हैतो स्ंिटग आॅपरेषन से रिष्वतखोर सांसदों की कुर्सी छिन जाना भी इसीस्वतंत्र भारत की घटना है। श्रेश्ठ पत्रकारिता के लिए पी. साईंनाथ कोमेगसेसे पुरस्कार मिलना भी इस बात का प्रमाण है कि पत्रकारिता न तोस्वतंत्रता के पूर्व व्यवसायिक थी और न आज व्यवसायिक है और इस बात की भी आषंका नहीं है कि पत्रकारिता कभी व्यवसायिक हो पाएगी।
मुझे तो लगता हैकि मीडिया हाउस और पत्रकारिता को धंधा बनाने में जुटा एक बड़ा वर्गपत्रकारिता के व्यवसायिक होने का ढोल पीट रहा है। इसके पीछे की साजिष कोसमझना होगा क्योंकि पत्रकारिता को व्यवसायिक होने की बात स्थापित नहीं कीगई तो मैनेजर को संपादक कैसे बनाया जाएगा? आज जब चारों तरफ संपादक नाम कीसंस्था की समाप्ति को लेकर रोना रोया जा रहा है, तब हमें यह नहीं भूलनाचाहिए कि यही वे लोग हैं जो पत्रकारिता को व्यवसायिक बता कर, खबर कोसाबुन की टिकिया के दामों पर बेचने का भ्रम फैलाकर संपादक की जरूरत खत्मकर दी। एक बात ध्यान रखना चाहिए कि जब कोई चीज, भले ही वह पत्रकारिता हो,यदि वह व्यवसायिक होती है तो उसे अपनी क्वालिटी पर विषेष ध्यानदेना होगा। दुर्भाग्य से जो लोग पत्रकारिता को व्यवसायिक बता रहे हैं,उन्होंने पैकेजिंग तो बेहतर की है लेकिन कंटेंट पर ध्यान देना भूल गए हैंजबकि बाजार कहता है कि पैकेजिंग के साथ गुणवत्ता भी जरूरी है। ऐसे में यहमाना जा सकता है कि पत्रकारिता को व्यवसायिक बनाने की पहल जरूर तेजी सेकी जा रही है। यह जरूर माना जा सकता है कि पर्दे के पीछे से पत्रकारिताकी आड़ में बहुत सारे सौदे हो रहे हैं और इसी को आधार बनाकर पत्रकारिता कोव्यवसायिक होना मान लिया गया है। दरअसल इसे पत्रकारिता में पीतपत्रकारिता कहा जाता है। जो थोड़ा बहुत अनुभव मेरा अपना है, उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि पत्रकारिता की आड़ में कथित तौर पर लेन-देन का किस्सा पुराना है, तब क्यों पत्रकारिता के व्यवसायीकरण की बात नहीं की गई? उसे हमेषा पीत पत्रकारिता कहा गया। साथियों को यह तो याद होगा कि शशिकपूर अभिनीत फिल्म न्यू दिल्ली टाइम्स की कहानी इसी पृष्ठभूमि पर थी।पीत पत्रकारिता और व्यवसायिकरण के अंतर को भी समझना होगा।
दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि पत्रकारिता की नयी पीढ़ी के दिमाग में आरंभसे ही यह बात बिठा दी जाती है कि पत्रकारिता व्यवसायिक हो गई है और आपइसी नजर से पत्रकारिता करें। इसका खामियाजा यह निकल रहा है कि पत्रकारिताको नयी पीढी नौकरी मानकर करने लगी है। पत्रकारिता की षिक्षा हासिल कर रहेकुछ नये दोस्तों से इस बारे में बात की गई तो उनका मानना था कि अखबारोंअथवा टेलीविजन चैनल से जो तनख्वाह मिलती है, वह खबर के लिये मिलती है।उनसे जब इस बारे में पूछा गया कि मिसाल के तौर पर एक अखबार आपको दस हजाररूपये माहवार तनख्वाह देता है और बदले में आप दस खबर महीने में देते हैं।इस अखबार की प्रसार संख्या एक लाख प्रतियां प्रतिदिन है। इस गणित के आधारपर आपकी एक खबर की कीमत एक हजार रुपये और एक प्रति के हिसाब से दस पैसेप्रति खबर दी गई। दस पैसे की खबर और पत्रकारिता का दंभ? इस बात का जवाबमेरे नौजवान साथी के पास नहीं था। जब नये साथियों को समझाया गया कि खबरकी कोई कीमत नहीं होती है बल्कि जो दस हजार रुपये आपको दिये जाते हैं, वहआपके श्रम का होता है।नये साथियों की सोच में उनकी गलती नहीं है बल्कि इसके लिये हम सब दोषीहैं। हमने ही तय कर दिया कि पत्रकारिता व्यवयासियक हो गई है तो नयी पीढ़ी उसी हिसाब से काम करने लगी। मेरा अपना मानना है कि कदाचित पत्रकारिता में व्यवसायिकरण हो भी रहा है तो इसका पूरी ताकत से प्रतिकार किया जाना चाहिए।
घर में आग लग जाए तो हाथ पर हाथ रखकर बैठा नहीं जा सकता है, उसी तरह पत्रकारिता जब व्यवसायिक हो रही है तो उसे बचाने की कोषिष तो की जासकती है। सिर्फ चिल्लाने और रोने से पत्रकारिता में बढ़ती व्यवसायिकतानहीें रूकेगी बल्कि इसके लिये पहल करने की जरूरत होगी और सबसे पहले हमेंइस बात को सिरे से, हर मंच से नकारना होगा कि पत्रकारिता व्यवसायिक हो गईहै। यह काम हमने आज और अभी से नहीं किया तो एक प्रोफेषनल कालेज से पासआउटस्टूडेंट और हमारे में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। कल और डरावना हो जाए,इसके पहले हम सबको चेतना होगा। पत्रकारिता के व्यवसायिकरण की बात माननाभी है तो थोड़ा सब्र करें दोस्त क्योंकि पहले खबर की कीमत तो तय होनेदीजिये। खबर को इंच और सेंटीमीटर में नपने तो दीजिये।
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