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मनोज कुमार
चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ है. कोई कुछ बोल ही नहीं रहा है. बयानवीर भी कहीं दुबक गए हैं. छिप गए हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सबकी ऐसी बोलती बंद की है कि किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा है कि क्या बोलें? बात बात पर मोदी को कटघरे में खड़ा करने वाले कांग्रेस और आप के नेताओं की बोली तो खुल ही नहीं रही है, भाजपा के लोगों में भी खामोशी हैरान कर रही है. जिन लोगों को लगता है कि मोदी का कालेधन की समाप्ति के खिलाफ यह बड़ा फैसला है तो उन्हें खुलकर साथ खड़े होना चाहिए था और जिन लोगों को लगता है कि मोदी का यह फैसला देशहित में नहीं है तो उन्हें भी अपनी बात तर्क के साथ रखना चाहिए था. लेकिन कोई खुलकर नहीं बोल रहा है. इसका मतलब तो यह हुआ कि मोदी जी का फैसला देशहित में है और सत्ता पक्ष और विपक्ष, खामोशी के साथ मोदीजी के लिए खड़ा हो गया है. यदि ऐसा है तो यह एक लोकतांत्रिक देश के लिए शुभ संकेत है.
हो सकता है कि सदमे से उबरने के बाद लोगों के मुंह खुले. अभी तो सदमा लगा है. चुनाव में कालेधन के उपयोग की बात अब किसी से छिपी नहीं है. राजनीतिक दलों को बेहिसाब चंदा देने वाले उद्योगपति अपने ढंग से रीति-नीति बनवाते रहे हैं. ये फैसले कई बार आम आदमी के हक के खिलाफ होता था लेकिन अब शायद ऐसा नहीं हो पायेगा. जो राजनेता बहुत छोटा सा बयान देकर या बचकर बोल रहे हैं, उनकी पेशानी पर भी बल पड़ रहा है. उन्हें समझ ही नहीं आ रहा है कि दो साल बाद होने वाले चुनाव में उनकी पार्टी को चंदा कौन देगा? वे किसके पैसों से चुनाव लड़ेंगे? उन्हें तो यह भी समझ नहीं आ रहा है कि जिन धनाड्यों के सहारे राजनेताओं का लाव-लश्कर चलता था, अब कौन इसका बोझ उठाएगा? सवालों की फेहरिस्त लम्बी है और जवाब किसी के पास नहीं है. वे गलती से भी मोदी के ताजा फैसले का विरोध करते हैं तो आम आदमी उनके खिलाफ हो जाएगा. आम आदमी को नाराज करने के बजाय थोड़ा समय गुजर जाने के बाद शायद राजनेताओं की चुप्पी टूटे.
विपक्ष ना भी बोले तो उसकी मजबूरी समझ आती है लेकिन सत्तापक्ष की खामोशी लोगों के लिए सवालिया बना हुआ है. उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि उनका नेता मोदी इतना बड़ा काम कर गया लेकिन इस फैसले को सिरमाथे पर लेने के बजाय, वे खामोश हैं. चुनिंदा बयानों के अलावा मीडिया में रोज एक-दूसरे को लताड़ते, एक दूसरे को गिरयाते और उनकी कमियां निकालते नेता खामोश हैं. उनकी खामोशी बताती है कि खुद मोदी जी की पार्टी के लोग इस फैसले से नाखुश हैं. यदि ऐसा नहीं होता तो ये लोग आगे बढक़र आम आदमी के बीच जाते और उन्हें समझाते कि मोदी जी के इस फैसले का समाज पर कितना व्यापक असर पडऩे वाला है. अभी जो दिख रहा है, उसमें अकेले केन्द्र सरकार ने ही मोर्चा सम्हाल रखा है. एक बड़े और देशहित फैसले के साथ ऐसा निराशाजनक बर्ताव कुछ अच्छा संदेश नहीं देता है. भाजपा के भीतर खलबली से इंकार नहीं किया जा सकता है. आगे क्या होगा और इसके परिणाम किस रूप में सामने आएंगे, अभी कहना जल्दबाजी होगी लेकिन तय है कि यह खामोशी, तूफान के पहले की खामोशी है. इस समय हवा में एक ही सवाल तैर रहा है इतना सन्नाटा क्यों है भाई?
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