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सोचो

मैं लोकतंत्र हूं...
मनोज कुमार
मैं लोकतंत्र हूं...किसम किसम की कुर्सियां बेचता हूं

पंच से लेकर प्रधानमंत्री तक हर कुर्सी बिकाऊ हैबोलो कौन सी कुर्सी खरीदोगे जनाब?

किसम किसम की कुर्सियां बेचता हूंमहंगाई बढ़ गई है इन दिनों जनाब

अभी अभी साढ़े छह लाख में बिकी है...सरपंच की कुर्सी…।

अभी कुछ और बाकि है मोल तो लगाओ जनाब…

किसम किसम की कुर्सियां बेचता हूंपंच की कुर्सी की कीमत

पचपन हजार लग चुकी हैदेश दांव में लगाने की

ताकत हो तोप्रधानमंत्री की कुर्सी खरीद सकते हो जनाब…

बोलो कौन सी कुर्सी खरीदोगे जनाब?

किसम किसम की कुर्सियां बेचता हूंप्रेमचंद का अलगू चौधरी

कहीं खो गया हैऔर बापू का ग्राम स्वराज

यहीं कहीं भटक गया हैकिसी को मिल जाएं तो जरूर बतानातब

तक मैं फिर बोली लगाता हूं जनाब…

मैं लोकतंत्र हूं...

किसम किसम की कुर्सियां बेचता हूं

(आद। भवानीप्रसाद मिश्र से क्षमायाचना के साथ)






गाफिल है पूरी दुनिया
मनोज कुमार
महात्मा गांधी का सपना था कि गांव की सत्ता ग्रामीणों के हाथों में हो. इसी सपने को आधार बनाकर स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ग्राम स्वराज की कल्पना करते हुए पंचायतीराज व्यवस्था आरंभ की थी. मध्यप्रदेश ने तब सबसे आगे आकर पंचायतीराज व्यवस्था कायम किया. चारों तरफ मध्यप्रदेश की सराहना हुई. समय के साथ पंचायती राज व्यवस्था परवान चढ़ी. पंचायतों में महिलाओं के लिये पचास प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था भी की गई. ऐसा लग रहा था मानो गांधी के ग्राम स्वराज का सपना सच हो गया है किन्तु पिछले दिनों राज्य के इंदौर से मात्र पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर बसे गांव रंगवासा में पंचायती राज व्यवस्था के साथ लोकतंत्र का जो मजाक उड़ाया गया, वह दहला देने वाला है.
जनसत्ता नईदिल्ली और नईदुनिया में प्रकाशित खबर के मुताबिक गांव के मंदिर के विकास के नाम पर सरपंच का पद छह लाख पचपन हजार में गांव के ही कैलाश चौधरी ने खरीद लिया और पंचों के पद इक्कीस हजार से पचपन हजार तक बेच दिये गये. इन पदों के लिये खुलेआम नीलामी की गई. रकम तय हो जाने के बाद अन्य दावेदारों ने अपने अपने नाम वापस ले लिये और कहना न होगा कि कैलाश चौधरी निर्विरोध निर्वाचित हो गये. इसके बाद उन्होंने वायदे के मुताबिक कैलाश चौधरी ने रकम मंदिर में जमा करा दी. इन खबरों में यह भी लिखा है कि इसके पहले नगर पंचायत के पार्षद पद की नीलामी भी हो चुकी है. अफसोस तो तब होता है जब विधायक जैसे जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति कहने लगे कि यह कोई मुद्दा नहीं है कि गांव में लोकतंत्र के किस तरह से विजय हुई है. किसी का नाम वापस लेने के लिये कोई जोर जबर्दस्ती नही की गई। यह टिप्पणी जनसत्ता में इसी विधानसभा क्षेत्र के विधायक सत्यनारायण पटेल का है. इस पूरी नीलामी प्रक्रिया को विकास से जोड़ कर देखा जा रहा है. सवाल यह है कि विकास के लिये नीलामी जरूरी है तो अब हर पद के लिये नीलामी की व्यवस्था कर दी जानी चाहिए. क्यों आम आदमी के खून पसीने की कमाई पर चुनाव कराने की कवायद की जाये. रंगवासा ने न केवल अपने गांव पर बल्कि समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ही सवालिया निशान लगा दिया है.
यह खबर मामूली खबर नहीं है. इस खबर की संवेदनशीलता को समझना होगा. मुझे हैरानी इस बात पर थी कि जब इस खबर के बारे में करीब पचीस लोगों से बात की गई तो इनमें से एक भी इस खबर से वाकिफ नहीं था. ये वो लोग हैं जो किसी न किसी रूप में मीडिया से जुड़े हुए हैं. इसका अर्थ मैंने अपने स्तर पर यह लगा लिया कि मीडिया गाफिल है. मुझे दुख इस बात का हुआ कि क्या अखबारों में छप रही खबरों को हम इतने हल्के ढंग से लेने लगे हैं या खबरों में अब वह गंभीरता ही नहीं बची? मामला चाहे जो हो लेकिन एक बात तो साफ है कि अब हम चिंतन नहीं करते हैं, इस तरह की खबरें हमें निराश नहीं करती हैं और न ही हमें उद्वेलित. अब सब कुछ बहुत सतही ढंग से लेते हैं और ले रहे हैं. इससे भी ज्यादा गंभीर बात तो यह है कि जिन लोगों के कंधे पर लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाये रखने की जवाबदारी है, वे भी खामोश हैं. सत्ताधारी दल तो कुछ कह नहीं रहा है, विपक्ष भी मौन साधे हुए है. गाफिल समाज अगर होशमंद हो जाए तो शायद कल की बात और होगी. इसी उम्मीद के साथ.

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