मनोज कुमार
अभी अभी एक बुरी खबर मुझ तक पहुंची। मेरे दोस्त के पिताजी का देहांत हो गया। जितना दुख मेेरे दोस्त को था, उतना ही मुझे भी। सूचना पाते ही मैं घर पहुंचा तो खबर पाकर जितना दुखी था, उससे कहीं ज्यादा अब दुखी था। मैं और दो एक दोस्त ही वहां पहुंच पाये थे। अंतिम संस्कार की प्रक्रिया के लिये हम लोग कुछ इंतजाम करते कि इसके पहले ही दोस्त ने खबर दे दी कि मोहल्ले के एक व्यक्ति अंतिम संस्कार के क्रियाकलाप के साथ ही सामनों की व्यवस्था भी कर देते हैं। सो उन्हें कह दिया गया है। थोड़े समय में ही वे सब इंतजाम कर देंगे। मैं चुप रहा और उसकी हां में हां मिलाता रहा। थोड़ी देर में पंडितजी के वहां पहुंचने के पहले वह व्यक्ति सब सामान लेकर भी आ गया जिसकी जरूरत होती है। कुछ समय बाद विधि विधान से क्रिया सम्पन्न होने की प्रक्रिया षुरू भी हो गयी। दोपहर तक अंतिम संस्कार की प्रक्रिया पूरी हो गया। सब अपने अपने घरों की तरफ चल पड़े। मैं भी उनमें भी एक था।
घर लौटते समय मन बोझिल था। दोस्त के पिता की मौत का दुख तो था ही, इससे कहीं ज्यादा दुख था रिष्तों के सिमटने का। मुझे याद है कि कभी मेेरे पिता और बाद में मां का देहांत हुआ। बात कोई दस साल पुरानी है। हमारे घर में किसी को खबर भी नहीं थी और दोस्त-परिचितांें ने मिलकर सारा प्रबंध कर दिया था। यहां रिष्तेदारों की कोई भूमिका नहीं थी क्योंकि हम अपनों से दूर रह रहे थे। एक वो समय था और एक यह समय है जब खुद को होकर जिम्मेदारी पूरी करनी पड़ रही है। ऐसा क्यों हुआ, यह सोचने की जरूरत है। षायद यही कारण है कि जो काम दोस्त, परिचित और रिष्तेदार किया करते थे, आज वह काम व्यवसाय के रूप में हो रहा है। यह सब दुखद है। रिष्तों का सिमटने का वक्त आ गया है। अब हम लोगों के बीच जीवंत संवाद का समय खत्म हो रहा है। विस्तार के साथ बाजार ने घेर लिया है। जीवन और मृत्यु भी बाजार की वस्तु बन गयी है। दुख अब कातर नहीं रह गया है बल्कि रस्मी बन चुका है। इतना रस्मी की कि दुख पर मुद्रा की छाप पड़ गयी है। पैसे दो और रस्म पूरी करो। पहले यह चलन सुख के समय था, अब दुख पर भी इसकी छाया पड़ गयी है।
कभी सुना करते थे कि मृत्यु के समय किराये पर रोने वाले बुलाये जाते थे। सुनकर अचरज होता था। आज यह हाल हर घर की हो रही है। यह ठीक है कि रोने के लिये किराये पर लोग नहीं लिये जा रहे हैं लेकिन रस्म की षुरूआत होती दिख रही है। बाजार तो अपने लिये जगह बना ही लेता है और बना रहा है। सवाल यह है कि संवेदनाओं को बाजार के किस तराजू पर तौलें? संवेदनाओं का क्या कीमत हो सकती है? यहां अपने को बचाने के लिये बाजार पर आरोप मढ़ सकते हैं किन्तु सच यह है कि हम दूसरों के साथ दुख बांटने में पीछे रहते हैं तो कोई क्यों हमारा दुख बांटे। समय की कमी का एक बहाना है लेकिन जब हम दूसरों के लिये यह बहाना तैयार रखते हैं तो हमें भी इसके लिये तैयार रहना चाहिये। यह समय बेहद कठिन हो चला है। संवेदनायें मर रही हैं, जीवन स्नेह के लिये तरस रहा है। पैसा हर मर्ज की दवा बन गयी है। अब तो मौत का सामान भी बाजार उपलब्ध करा रहा है। रिष्तों की यह मौत हमारे समय की मौत है। रोज ब रोज अपराधिक वारदातों को इससे अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। यह समय के बदलाव का रिफ्लेषक्षन है जिसे हम अपना ही आइना भी कह सकते हैं। समय अभी बहुत बुरा नहीं हुआ है और ना ही बदला है। थोड़ा सम्हल जायें और रिष्तों को सम्हाल लें तो किराये के लोगों को हमारी मौत का सामान न सजाना पड़े।
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