प्रो. मनोज कुमार
थोड़े दिन पहले डाकघर गया था। वहां पोस्टकार्ड देखे मन डोल गया। बरबस काउंटर पर बैठी क्लर्क से चार पोस्टकार्ड मांग लिया। पोस्टकार्ड का आकर, उसकी खुशबू जैसे मुझे पुराने दिनों की ओर खींच ले गई। कभी धर्मयुग के संपादक गणेश मंत्री के हस्ताक्षर युक्त तो कभी किसी अन्य संपादक के हस्ताक्षर के साथ रचना प्रकाशन के लिए स्वीकृति का पोस्ट कार्ड मिलते ही मैं मुस्करा उठता। पिछले कुछ साल तक दादा बालकवि बैरागी जी एवं विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ के कुलसचिव का नियमित पोस्ट कार्ड मिलता रहा। दादा बैरागी जी के नहीं रहने से यह सिलसिला भी टूट गया।
मोबाइल और ईमेल के ज़माने में लिखना और छपना तो खूब हो रहा है। मन भी प्रसन्न है कि मैं लिख रहा हूं लेकिन खतों किताबत का दौर कई बार उदास कर जाता है। एक समय था जब लिखने और लिख कर डाक में डालने की होड़ लगी होती थी। कुछ दिन पहले अब मुंबई में बस चुके मित्र नीलकंठ पारठकर से बात करते हुए वही दिन याद आ गए। दोनों को मालूम था कि चाहे कितनी जल्दी करें, डाक एक साथ ही निकलेगी लेकिन डिब्बे में लिफाफा पहले कौन डालेगा, इसकी होड़ लगी होती थी। रपट, लेख लिखने के लिए देर रात तक जागना। वो भी मजे के दिन थे। फिर रोज डाकिया का इंतजार कि वह जल्दी से संपादक की मंजूरी की चिट्ठी लेकर आए। वो दिन हवा हुए।
अब हाथ से लिखने का चलन खत्म हो गया। टाइप कीजिए और बना बनाया लेख, समाचार अखबारों को, पत्रिकाओं को भेज दीजिए। लौटती डाक तो छोड़िए, एक संदेशा भी नहीं आता है कि छापा जाएगा या नहीं। वाट्सअप पर आने वाले पीडीएफ फाइल में तलाश कीजिए। छप गया तो मुस्कान और नहीं तो अगले दिन की प्रतीक्षा।
थोड़े समय से अखबारों में संपादक के नाम पत्र की आंशिक वापसी हुई है। संपादक के नाम पत्र लिखने के लिए अब पोस्ट कार्ड की जरूरत नहीं होती है। लिखकर वाट्सअप कर दें या ईमेल। राहत यही है कि कुछ तो पीछे लौटे। संपादक के नाम पत्र एवं पोस्टकार्ड का आपस में गहरा रिश्ता है। यह नए लेखकों के लिए लिखने का तरीका सिखाता है। कम शब्दों में अपनी बात कैसे कहना। मैं जब कभी, जहां कहीं मीडिया के स्टूडेंट्स को पढ़ाने गया, वहां पोस्ट कार्ड जरूर लेकर जाता हूं। यह सीखने, बताने के लिए कि सीखने की यह पहली कड़ी है। बहुत सारे स्टूडेंट्स को तो पोस्टकार्ड भी नहीं मालूम। तभी तो सुनिए, पढ़िए जिंदगी का पोस्टकार्ड।
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