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मुद्दा

तो फिरोजाबाद की चूड़ियां ढूंढ़ते रह जाओगे
मनोज कुमार

आज से कोई 30-35 बरस पहले मेरी बड़ी भाभी पायल को महिलाओं के लिये बेड़ियां कहती थी। तब मुझे इस बात का अंदाज नहीं था कि उम्र के इस पड़ाव पर पहुंच कर उनकी उस बात का अहसास अब होगा। आज जब महिलाओं को चूड़ियों से परे होते हुए, माथे से बिंदिया लगाने से बचते हुए और मांग में सिंदूर भरने से परहेज करते हुए देखता हुआ तो मेरी भाभी मुझे याद आ जाती हैं। आखिर ऐसा क्या हुआ कि जो कल तक नारी के श्रृंगार की वस्तुएं थी, जिसमें स्त्रियां अपना सौभाग्य देखती थीं, आज उनके लिये बंधन हो गया है। उनके लुक को खराब करने लगा है। इस मुद्दे को विस्तार के साथ देखना होगा। यहां मैं जिस चूड़ी, बिंदी और सिंदूर की बात कर रहा हूं, उसका सीधा वास्ता तो स्त्रियों से है किन्तु इससे भी बड़ा वास्ता बाजार से है। फिरोजाबाद का नाम भारत के कोने कोने में जाना जाता है तो इसलिये कि वहां किसम किसम की चूड़ियां बनती हैं। षायद बिंदी और सिंदूर बनाने का काम भी होता होगा। इस बारे में मेरी जानकारी थोड़ी कम है। जब स्त्रियां श्रृंगार की इन महत्वपूर्ण वस्तुओं का त्याग करना आरंभ कर देंगी तो फिरोजाबाद के कारखाने मर जाएंगे। एक दो नहींे सैकड़ों परिवारों के समक्ष भूखों मरने की नौबत आ जाएगी। भारत में जिस तरह कई प्राचीन लघु और गृह उद्योग खत्म होते रहे हैं, वैसे ही एक और लघु और गृह उद्योग खामोषी से मर जाएगा। बिलकुल उसी तरह जिस तरह पावरलूम खत्म होते जा रहे हैं, जिस तरह भोपाल का जरी उद्योग सांसें गिन रहा है। आधुनिक मषीनें कपड़े बुन रही हैं और महंगे लेदर के पर्स।क्या चूड़ी, बिंदी और सिंदूर त्यागने से स्त्री आजाद हो जाएगी? क्या वह श्रृंगार की इन वस्तुओं का उपयोग नहीं करेगी तो उसकी षान पर कोई फर्क पड़ जाएगा, षायद नहीं। इसे और विस्तार से देखना होगा कि किस तरह हमारी भारतीय अर्थव्यवस्था को चैपट करने के लिये खेल खेला जा रहा है। भारतीय स्त्रियों के साथ ही भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं को भी भेंट चढ़ाया जा रहा है। बदलते समय के साथ स्त्री की दुनिया को विस्तार मिला है। कल तक चैके चूल्हे में सिमटी स्त्रियां आज हमकदम बन कर चल रही हैं। हालांकि मेरी मान्यता यह है कि स्त्री कभी पराधीन थी ही नहीं। भारतीय षास्त्रों का अध्ययन करेें तो सहज ही पता चल जाता है कि कोई भी घर स्त्री के बिना अधूरा है। समय की जरूरत के अनुरूप भारतीय स्त्री ने अपना चेहरा प्रस्तुत किया है। कभी वह अपने दुष्मनों का संहार करने के लिये दुर्गा बन जाती है तो कभी ममता लुटाने के लिये वह गंगा बनकर निस्वार्थ बहती रहती है। अपने घर और परिवार की उन्नति के लिये स्त्री ही लक्ष्मी का रूप् है। इसके बावजूद यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि स्त्रियों का दमन हुआ है। उन्हें हाषिये पर रखने की कोषिष की गई है। ऐसे में स्त्री को स्वतंत्रता मिली है, मिल रही है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन क्या किसी संस्कृति और परम्परा की बलि चढ़ाकर? किसी बाजार की षर्त को मानकर? इसका जवाब षायद नहीं में होगा लेकिन यहां मौन रह कर बाजार की हर षर्त को मंजूर किया जा रहा है।कथित विकास ने हमारे सोचने की ताकत को कम कर दिया है और भीड़ में हम खोने के लिये मजबूर हो गये हैं। हम यह भी नहीं सोच पा रहे हैं कि जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं वह रास्ता हमारे लिये ही बंद हो रहा है। चूड़ी, बिंदी और सिंदूर त्यागकर हम अपने आपको आधुनिक बन जाने का सुख तो पा रहे हैं लेकिन इन छोटी छोटी चीजों को छोड़ कर जाने कितने पेट को भूखे सोने के लिये मजबूर कर रहे हैं, इसका आपको अंदाज है? षायद नहीं। दिनोंदिन बढ़ती महंगाई के लिये क्या हमारा चरित्र जिम्मेदार नहीं है? देष की अर्थव्यवस्था को चैपट करने में हमारा योगदान नहीं है? फौरीतौर पर बात भले ही समझ न आये क्योंकि इस समय हम आधुनिकता की आंधी की गिरफ्त में हैं लेकिन इसे समझने की जरूरत होगी।मानव श्रम को हम कैसे बेकार और बेबस बना रहे हैं, इस संदर्भ में स्टेषन पर खड़े कुलियों को देखकर अंदाज लगाया जा सकता है। कल तक ये कुली हमारा बोझ उठाकर अपने कंधों पर रखे बोझ को कम कर लेते थे आज वे अपने ही बोझ तले दब रहे हैं। बड़ी नामी कंपनियों ने आधुनिक किस्म के सूटकेस तैयार कर दिये। अब खुद ही कुली बन जाओं और अपना सामान खुद खींचते हुए मंजिल तय कर लो। जिस स्टेषन पर कुलियों की संख्या कभी दस और बीस हुआ करती थी, वहां अब गिने चुने ही मिलेंगे क्योंकि यात्रियों की सूरत में कुलियों की तादात इतनी बढ़ गयी है कि अब वास्तविक कुलियों की जरूरत नहीं रही। कल्पना कीजिये कि आपके बोझ को कंधे पर ढोते इन कुलियों के घरों के चैके-चूल्हे जलते थे और अब इनके दिल। वक्त अभी भी है। बस समझने की जरूरत है कि चूड़ी, बिंदी और सिंदूर त्यागने से आधुनिकता नहीं आयेगी और न खुद के सूटकेस खींचने से अमीरी। सोच बदलने की जरूरत है और यह बदली हुई सोच कई परिवारों को दो वक्त का खाना दे पायेगी। संस्कृति और परम्परा की रक्षा भी हम कर पाएंगे लेकिन तभी जब हमारी सोच बदल जाए।

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