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असत्य ही असत्य!


मनोज कुमार
इस बार जब मेरे मोहल्ले में रावण का कद नापा गया तो इस बार उसका कद कुछ फीट और बढ़ गया था। मैं पिछले कई सालों से देख रहा हूं कि मेरे मोहल्ले का रावण साल दर साल ऊंचा होता चला जा रहा है। बिलकुल वैसे ही जैसा कि हमारा असत्य। हम मोबाइल के जरिये असत्य के प्रतीक हो गये हैं। हर पल झूठ, हर पल धोखा और न जाने क्या क्या। ऐसे में मेरे मोहल्ले का रावण कुछ फीट और ऊंचा हो जाए तो हमें एतराज नहीं करना चाहिए और न ही इतराना चाहिए कि हमने रावण का कद और ऊंचा का पाठ तो जरूर पढ़ाते हैं लेकिन व्यवहार में सत्य को पराजित करने में कभी पीछे नहीं रहते। कर दिया। एतराज इसलिये नहीं होना चाहिए कि असत्य के इस प्रतीक ने हमसे ऊंचा होने की हिमाकत नहीं की है और इतराना इस बात पर नहीं चाहिए कि हमने असत्य के इस प्रतीक को इतना ऊंचा कर दिया। सच तो यह है कि हमें विजयादशमी मनाने का कोई नैतिक हक है ही नहीं क्योंकि हम अपनी पीढ़ी को असत्य पर सत्य की जीत का पाठ तो जरूर पढ़ाते हैं लेकिन व्यवहार में सत्य को पराजित करने में कभी पीछे नहीं रहते।

परम्परागत विजयादषमी का पर्व मनाने की तैयारी में पूरा समाज जुट गया है। हर साल हम खुद रावण बनाते हैं और उसे मारने का स्वांग भी खुद ही रच डालते हैं। परम्परा का निर्वाह करने के पीछे सत्य और असत्य की परख करना एक पैमाना हो सकता है किन्तु आज की स्थिति में क्या हम विजयादशमी मनाने की स्थिति में हैं? क्या वास्तव में हमने असत्य पर विजय पा ली है? सैंकड़ों साल पहले न जाने राम नाम के एक सात्विक ने रावण का वध किया था, सैकड़ों साल पहले न जाने एक युवा ने पिता के वचन की लाज रखने के लिये वनवास जाना मंजूर कर लिया था। रावण को मारने का हमारा साहस कब का मर चुका है और पिता के वचनों के खातिर वनवास जाने की बात कल्पना से परे है। जब भी वनवास जाने की बात होगी तो हम पिता को ही वनवास भेज देंगे। हमने इसके लिये वृद्धाश्रम बना दिया है। बात जहां तक रावण के मारने की है तो हम अपने आपको क्यों और कैसी सजा दें? आज हम अनैतिकता की पराकाष्ठा को छू रहे हैं। लोकलाज को त्याग दिया है और अराजकता के घोर अंधेरे में भटक रहे हैं। असत्य को असत्य से मारने की हरसंभव हम कोषिष कर रहे हैं। सत्य से हम दूर जा चुके हैं। जीवन की सुबह असत्य से होती है और इसी असत्य को बिछाकर सो जाते हैं।
विजयादषमी का अर्थ होता है विजय की दषमी और हम हर पल पराजित हो रहे हैं। हर कदम पर हमारी पराजय है। इस पराजय के काल में किसकी विजयादषमी और कौन मनाये विजयादशमी। विजयादशमी एक उत्सव की बेला है और यह बेला है असत्य पर सत्य की विजय की। सत्य से हम कोसों दूर हैं। सत्य का अर्थ सिर्फ असत्य बोलना और बोना है। असत्य का यह घनघोर अंधेरा, समाज के किसी कोने में नहीं है बल्कि हर कोना असत्य से काला काला हुआ जा रहा है। किसी समय अपनी मेहनत के बिना कमाने वाले धन को पाप की कमाई कहा जाता था और कोशिश होती थी कि बच्चों को इससे दूर रखा जाये। आज सारे पर्दे गिर गये हैं और बच्चों को पता है कि उसके ठाठ के रास्ते कहां से शुरू होता है। बचपन जब इस पाप की कमाई से बड़ा होता है तो सत्य कहां टिक पायेगा।

मुझे स्मरण हो आता है कि कभी अपने गांव में रामलीला किया करते थे। लगातार आठ नौ दिन की रामलीला। पूरा का पूरा आयोजन जुगाड़ से। हल्की ठंड में लोग अपने अपने घरों से बैठने की व्यवस्था कर आते। मजे लेते और अपने बच्चों को भी अगले बरस रामलीला मंे भागीदार बनने के लिये प्रोत्साहित करते। घर घर से मदद आती। इस रामलीला का मकसद हुआ करता सत्य का संदेश पहुंचाना। इसका मकसद हुआ करता था लोगों के भीतर छिपी प्रतिभा से समाज को अवगत कराना लेकिन अब रामलीला होती है तो पूरी साज-सज्जा के साथ। उस काल के राम आज हमारे बीच आ जाएं तो साज-सज्जा देखकर चौंक जाएं। यह बाजार है और बाजार की लीला से भला कौन अपरिचित है। यह रामलीला की लीला है जो संदेश देती है स्वयं के विजय हो जाने का। जो बताती है बाजार के रास्ते चलो, सत्य और असत्य के फेर में मत पड़ो। विजयादषमी का जो अर्थ बाजार सिखाता है, वही विजयादशमी है क्योंकि अब यह परम्परा का उत्सव नहीं, बदलते बाजार का फेस्टिवल है।

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