21 मार्च विश्व कठपुलती दिवस पर विशेष
प्रो. मनोज कुमार
डोर में बंधी कठपुतली इशारों पर कभी नाचती, कभी गुस्सा करती और कभी खिलखिलाकर हमें सम्मोहित करती..यह यादें आज भी अनेक लोगों के जेहन में तरोताजा होंगी. कुछ यादें ऐसी होती है जो बचपन से लेकर उम्रदराज होने तक जिंदा रहती हैं और इसमें कठपुतली को दर्ज कर सकते हैं. कठपुतली उस समय हमारे साथ होती थी जब हमारे पास मनोरंजन का कोई साधन नहीं होता था. जेब में इतने पैसे भी नहीं होते थे कि शहरी बाबूओं की तरह थियेटर में जाकर मजे ले सकें. तब आप और हम मां और बापू के साथ कठपुतली नाच देखने चले जाते थे. समय बदला और कल तक मनोरंजन करती कठपुतली अब जनजागरूकता का अलख जगाने निकल पड़ी. सामाजिक रूढिय़ों के खिलाफ लोगों को चेताती तो समाज को संदेश देती कि अब हमें बदलना है. बदलाव की इस बयार में कठपुतली ने समाज को तो बदला और खुद भी बदल गई. नयी पीढ़ी को कठपुतली कला के बारे में बहुत कुछ नहीं मालूम होगा क्योंकि मोबाइल फोन पर थिरकती अंगुलियां नयी पीढ़ी को कठपुतली से दूर कर दिया है. हालांकि अभी भी कठपुतली का प्रभाव है लेकिन उसकी सिसकी साफ सुनाई देती है. आज 21 मार्च को अन्य दिवसों की तरह कठपुतली दिवस मनाते हैं. हालांकि साल 2003 में कठपुतली दिवस मनाने की शुरूआत हुई लेकिन संचार के सबसे पुरातन माध्यम होने के बाद भी आधुनिक संचार माध्यमों में कठपुतली के लिए कोई खास जगह बनती दिखाई नहीं देती है.
कठपुतली कला का इतिहास रोचक है. कठपुतली कला का इतिहास 3000 साल से भी पुराना है. सबसे पहले कठपुतलियों की शुरुआत संभवत: मिस्र में हुई थी। यूनियन इंटरनेशनेल डे ला मैरिओनेट या इंटरनेशनल पपेट्री एसोसिएशन की स्थापना 1929 में प्राग में हुई थी। यह यूनेस्को से संबद्ध है और अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संस्थान का सदस्य है. आधुनिक कठपुतली एक आभासी वातावरण में डिजिटल रूप से एनिमेटेड 2डी या 3डी आकृतियों और वस्तुओं का हेरफेर और प्रदर्शन है जो कंप्यूटर द्वारा वास्तविक समय में प्रस्तुत किया जाता है. इसका सबसे अधिक उपयोग फिल्म निर्माण और टेलीविजन निर्माण में किया जाता है. इसका उपयोग इंटरैक्टिव थीम पार्क आकर्षण और लाइव थिएटर में भी किया गया है.
आधुनिक कठपुतली क्या है और क्या नहीं, इसकी सटीक परिभाषा कठपुतली कलाकारों और कंप्यूटर ग्राफिक्स डिजाइनरों के बीच बहस का विषय है. हालाँकि, आमतौर पर इस बात पर सहमति है कि डिजिटल कठपुतली पारम्परिक कंप्यूटर एनीमेशन से अलग है क्योंकि इसमें पात्रों को फ्रेम दर फ्रेम एनिमेट करने के बजाय वास्तविक समय में प्रदर्शन करना शामिल है. विश्व कठपुतली दिवस की शुरुआत 2003 में यूनेस्को से संबद्ध एक गैर-सरकारी संगठन हृढ्ढरू्र द्वारा की गई थी. 21 मार्च 2003 को पहला विश्व कठपुतली दिवस मनाया गया। मनोरंजन का सशक्त माध्यम रहीं कठपुतलियां जागरूकता का काम भी कर रही हैं। कठपुतली कला मंच, टेलीविजन और फिल्म पर नाट्य प्रदर्शनों के लिए कठपुतलियों को बनाने और उनका उपयोग करने की कला है। कठपुतली एक मानव, पशु या अमूर्त आकृति है जिसे मानव प्रयास द्वारा चलाया जाता है। ऐतिहासिक उदाहरणों और समकालीन उपयोग के आधार पर, अध्ययन में छाया रंगमंच, मुखौटा रंगमंच, हाथ की कठपुतली, छड़ी कठपुतली और कठपुतलियों को शामिल किया जा सकता है। कठपुतली चलाने वाले हाथों और भुजाओं की हरकतों का उपयोग करके छड़ या डोरियों जैसे उपकरणों को नियंत्रित करते हैं ताकि कठपुतली के शरीर, सिर, अंगों और कुछ मामलों में मुँह और आँखों को हिलाया जा सके। कठपुतली चलाने वाला कभी-कभी कठपुतली के पात्र की आवाज़ में बोलता है, जबकि अन्य समय में वे रिकॉर्ड किए गए साउंडट्रैक पर प्रदर्शन करते हैं.
भारतीय संस्कृति में कठपुतली कला का दार्शनिक महत्व है. भगवद् गीता में, भगवान को एक कठपुतली के रूप में दर्शाया गया है, जो ब्रह्मांड को तीन तारों से नियंत्रित करता है : सत्व, रज और तम. भारतीय रंगमंच में कहानीकार को सूत्रधार कहा जाता है, जिसका अर्थ है ‘तार धारण करने वाला.’ ेेभारत में कठपुतली परम्पराओं का एक विविध स्पेक्ट्रम उभरा है, प्रत्येक कठपुतली की अपनी विशिष्ट शैली के साथ. प्रेरणा पौराणिक कथाओं, लोककथाओं और स्थानीय किंवदंतियों से ली गई थी. कठपुतली को चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य और रंगमंच के साथ जोड़ा गया है, जिसके परिणामस्वरूप एक अद्वितीय कलात्मक अभिव्यक्ति हुई है हालाँकि समर्पित प्रशंसकों की आवश्यकता और वित्तीय अनिश्चितताओं के कारण हाल के वर्षों में यह रचनात्मक रूप लगातार कम हो गया है.
भारत के विभिन्न राज्यों में कठपुतली कला अलग-अलग नाम से प्रचलन में है. राजस्थान में इन्हें कठपुतली के नाम से जाना जाता है। इसे लकड़ी के एक ही टुकड़े से बनाया गया है और ये कठपुतलियाँ बड़ी गुडिय़ा की तरह हैं जिन्हें राजस्थानी शैली में रंग-बिरंगे कपड़े पहनाए गए हैं। कठपुतली कलाकार उन्हें दो से पाँच तारों से संचालित करते हैं जो आम तौर पर उनकी अँगुलियों से बंधे होते हैं। ओडिशा में इन्हें कुंधेई के नाम से जाना जाता है। यह हल्की लकड़ी से बना है जिसमें पैर नहीं हैं लेकिन लंबी बहने वाली स्कर्ट पहनते हैं । यह कभी-कभी ओडिसी नृत्य के संगीत से प्रभावित भी देखा जाता है। कर्नाटक में इन्हें गोम्बेयट्टा कहा जाता है। इन्हें क्षेत्र के पारम्परिक थिएटर रूप यक्षगान के पात्रों की तरह स्टाइल और डिज़ाइन किया गया है। गोम्बेयट्टा में अभिनीत एपिसोड आमतौर पर यक्षगान नाटकों के प्रसंगों पर आधारित होते हैं। तमिलनाडु में इन्हें बोम्मालट्टम के नाम से जाना जाता है। यह छड़ी और डोरी दोनों कठपुतलियों की तकनीकों को जोड़ती है। वे लकड़ी के बने होते हैं और हेरफेर के लिए तार एक लोहे की अंगूठी से बँधे होते हैं जिसे कठपुतली अपने सिर पर मुकुट की तरह पहनता है। कुछ कठपुतलियों के हाथ और जोड़ जुड़े हुए होते हैं, जिन्हें छड़ों से संचालित किया जाता है।
पश्चिम बंगाल में इसे पुतुल नाच के नाम से जाना जाता है। वे लकड़ी से बनाए गए हैं और एक विशेष क्षेत्र की विभिन्न कलात्मक शैलियों का पालन करते हैं। पश्चिम बंगाल के नादिया जिले में छड़ी-कठपुतलियाँ जापान की बूनराकू कठपुतलियों की तरह मानव आकार की हुआ करती थीं।
ओडिशा में पारम्परिक छड़ी कठपुतली दूसरों से कुछ अलग है। यहाँ रॉड कठपुतलियाँ आकार में बहुत छोटी होती हैं, आमतौर पर लगभग बारह से अठारह इंच। इनमें भी अधिकतर तीन जोड़ होते हैं लेकिन हाथ छड़ों के बजाय तारों से बंधे होते हैं। इस प्रकार कठपुतली के इस रूप में छड़ और डोरी कठपुतलियों के तत्वों को संयोजित किया जाता है। बिहार में पारम्परिक छड़ी कठपुतली को यमपुरी के नाम से जाना जाता है। इसमें अनूठी विशेषताएं हैं जो इसे एक दिलचस्प घड़ी बनाती हैं। ये कठपुतलियाँ लकड़ी की बनी होती हैं।
कठपुतली कला महज़ मनोरंजन का साधन नहीं है बल्कि सूचना और शिक्षा का बुनियादी तत्व भी समाहित हैं. कठपुतलियों के साथ जुडक़र, बच्चे विभिन्न दृष्टिकोणों को समझने और दूसरों के प्रति सहानुभूति विकसित करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं. कठपुतलियाँ बच्चों को अपने विचारों, भावनाओं और कथाओं को अधिक स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने में मदद करती हैं. कठपुतलियाँ सामाजिक संपर्क और सहयोग को प्रोत्साहित करती हैं. आइए एक बार फिर हम सब अपनी प्यारी कठपुतलियों पर चर्चा करें क्योंकि कठपुतली समाज का मन बदलती है. तस्वीर गुगल से साभार
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें