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जिम्मेदारी की स्लेट


मनोज कुमार
कोई छह या सात बरस की होगी पिंकी। इस समय वह तीसरी दर्जे में पढ़ रही है। सुबह तेजी से काम निपटा कर भागकर स्कूल जाना और लौट कर घर का काम निपटाना। बाद में ट्यूशन पढऩे जाना और फिर रात में घर का काम निपटाना। पिंकी स्लेट में लिखती तो अक्षर है और उसे सीखने की कोशिश भी करती है लेकिन उसकी स्लेट पर जो इबारत लिखी हुई है उसे जिम्मेदारी कहते हैं। जिस उमर में उसे दूसरे बच्चों की तरह खेलना और मौज करना चाहिये था, उस उमर में वह जिम्मेदारी निभा रही है। छोटे-छोटे हाथों से अपने भाइयों के लिये खाना पकाना और उन्हें खिलाकर तृप्त हो जाना कि भाई भूखे नहीं हैं। उसके भाई शारीरिक रूप से कमजोर नहीं है। इसी मोहल्ले में गोलगप्पे का व्यवसाय करते हैं लेकिन पिंकी से उनकी अपेक्षायें होती हैं। अपेक्षा केवल पिंकी द्वारा भोजन पकाने की नहीं है बल्कि गोलगप्पे बनाने में मदद करे, यह भी वे चाहते हैं। पिंकी को यह सब करते हुये किसी से कोई शिकायत नहीं है और वह शिकायत का अर्थ भी नहीं जानती होगी बल्कि उसके लिये तो यही रोजमर्रा की जिंदगी है। 
पिंकी खुश रहती है। नाखुश रहने की भी कोई वजह नहीं है। नाखुश तो तब होती जब उसे पता होता कि जो काम कर रही है, उसके हिस्से का नहीं है। वह तो अनचाहे में इसे अपनी जिम्मेदारी और अधिक व्यवहारिक होकर कहें तो गरीब परिवार का धर्म निभा रही है। उसे किसी ने यह बात भी कभी किसी ने सिखाया नहीं होगा कि जिस स्लेट पर वह लिखती है, उसे जिंदगी बनाना सिखाती है। उसे तो स्लेट और लिखने का मतलब इतना ही मालूम है कि वह कुछ सीख कर, कुछ समझ कर इतना जान ले कि बनिया हिसाब में कोई गड़बड़ ना करे। पिंकी के सपने, उसकी दुनिया, उसकी खुशी, उसका दुख इन सबके बीच मे विचरता रहता है। बेखौफ और बिना शिकायत।
पिंकी को इस बात का भले ही पता नहीं होगा कि जिस स्लेट पर वह शब्द गढ़ रही है, वह जिम्मेदारी की है लेकिन वह नम्बरों के दौड़ में आगे निकल जाना चाहती है। वह अनजाने में दुनिया जीतने निकल पड़ी है। वह हर विषय में अच्छे नम्बर लाना चाहती है। साथ में पढ़ रहे बच्चों के सामने वह किसी भी तरह से खुद को कम होता नहीं देखना चाहती। छोटे से बदन में थकान कितनी होती है या तनाव कितना होता होगा, इससे भी पिंकी बेखबर है। रात होते होते वह ऊंघने लगती है क्योंकि सुबह जिम्मेदारी की कोरी स्लेट उसके सामने होती है जिसमें रोटी बनाना, कपड़े धोना, सूखे कपड़ों को तह कर रखना लिखा हुआ है तो स्कूल जाने से पहले खुद को संवारना भी नहीं भूलती है। जिम्मेदार होती पिंकी भाइयों से पूछ लेती कि किसी को कुछ चाहिये तो नहीं। एक तरह से वह बेफ्रिक हो जाना चाहती है। 
पिंकी स्लेट पर जिम्मेदारी की इबारत जरूर लिखी हुई है लेकिन उसके सपने जिंदा है। वह भी दूसरे बच्चों की तरह नयी फ्राक पहनकर चांद को मुठ्ठी में कर लेना चाहती है। वह बारिश की पानी में भीगना चाहती है, गुनगुना चाहती है। वह चाहकर भी मजे मजे में एक पत्थर हवा में नहीं उछाल पाती क्योंकि उसे पता है कि इस पत्थर ने किसी का नुकसान कर दिया तो हर्जाना भरने की ताकत नहीं। उसे शायद पता नहीं कि कैसे उसके बचपन के सपने टूट रहे हैं लेकिन अहसास किसी उसके भीतर पल रहा है। गुस्सा आये तो सूरज से भी आंखें चार करने की ताकत रखती है पिंकी। पिंकी को बढ़ते, पढ़ते देखते हुये सहसा लगता है कि एक तरफ जहां सुविधाभोगी बच्चे अक्षर ज्ञान कर रहे हैं। कई क्लास पढ़ जाने के बाद भी उनकी स्लेट पर लिखी इबारत कोई सूरत नहीं बना पाती है। पिंकी शायद बीच में स्कूल छोड़ दे लेकिन जिम्मेदारी के स्लेट में लिखी इबारत ने जो अनुभव उसे दिये हैं, उसका कोई सानी नहीं है। वह विद्यार्थी होकर भी शिक्षक बन गयी है। जिंदगी की शिक्षक। 

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