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जून 13, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अपनी बात

रिश्तांे को ढोने से तो अच्छा ही होगा... तलाक शब्द किसी भी भारतीय स्त्री की मन और उसकी अस्मिता को तार तार कर देता है। एक भारतीय स्त्री चाहे कितनी भी तकलीफ में क्यों न हो, वह आखिरी सूरत तक तलाक से दूर रहना चाहती है। वह अपना मान और प्रतिष्ठा एक परिवार में ही देखती है और इसके बाद उसकी चिंता के केन्द्रबिन्दु में उसके बच्चे होते हैं। वह मन से भले ही तलाक लेने की ख्वाहिश रखती हो लेकिन उसे व्यवहार रूप् में तब्दील नहीं कर पाती है। पति जितना भी निकम्मा और नालायक हो लेकिन स्त्री के लिये बच्चे उसकी पूंजी होते हैं। एक स्त्री जानती है कि तलाक के बाद यह निर्मम पुरूष किसी और स्त्री को अपने भोग के लिये ले आयेगा। आने वाली दूसरी स्त्री मन से कम, मतलब से ज्यादा आती है और उसके लिये किसी और के बच्चे को पालने की न तो कोई मंशा होती है और न लगाव। यहां तक कि जिसके साथ और जिसके लिये वह आयी है, उससे भी उसका संबंध केवल देह तक होता है और बाकि समय वह उन सुविधाओं का अधिकाधिक लाभ उठाना चाहती है जिससे अब तक वह वंचित रही है। कहने का अर्थ यह कि अक्सर दूसरी शादी भावना कम, मजबूरी ज्यादा होती है और यह मजबूरी एकाएक भौतिक लाभ