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अगस्त 5, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मीडिया का बाजारवाद

-मनोज कुमार      मीडिया का बाजारवाद कहें अथवा बाजार का मीडिया, दोनों ही अर्थों में मीडिया और बाजार एक-दूसरे के पर्याय हैं। मीडिया का बाजार के बिना और बाजार का मीडिया के बिना गुजारा नहीं है। दरअसल, दोनों ही एक सायकल के दो पहिये के समान हैं जहां एक पहिया बाहर हुआ तो सायकल विकलांग होने के कगार पर खड़ी होगी। मीडिया का बाजारवाद बहुआयामी अर्थों वाला है। मीडिया से बाजार का संचालन होता है फिर वह मसला खबरों को बेचने और खरीदने का हो, लोगों की भावनाओं को खरीदने या बेचने का हो या समाज की जरूरत की वस्तुओं  की तरफ लोगों को आकर्षित करने का हो।  ध्यान रहे कि यहां हम मीडिया के बाजारवाद की बात कर रहे हैं न कि पत्रकारिता की। पत्रकारिता का न तो कभी कोई बाजार रहा है और न ही उसका बाजारवाद से कभी कोई रिश्ता बन सकता है क्योंकि पत्रकारिता खरीदने अथवा बेचने की वस्तु नहीं बल्कि वह समाज को दिशा देने का कार्य करती रही है और अपने जिंदा रहने तक यह दायित्व निभाती रहेगी। पत्रकारिता का फलक इतना विस्तारित है कि उसे किसी सीमा में बांधा नहीं जा सकता है। समाज में उपजने वाली विसंगति के केन्द्र में पत्रकारिता है, लो