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अगस्त 9, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
राजधानी भोपाल के अंदाजे बयां और है... . मनोज कुमार भो पाल एक शहर नहीं बल्कि राजधानी है और राजधानी होने का अर्थ एक आम शहर से अलग होना है। भोपाल में भी दो भोपाल बसा हुआ है। यादों और वादों का भोपाल। यादों का भोपाल अर्थात पुराना भोपाल और वादों का भोपाल अर्थात नया भोपाल जिसे हम मध्यप्रदेश की राजधानी कहते हैं। भोपाल शहर नहीं, राजधानी है और एक वीवीआयपी शहर की तरह वह पिछले तिरपन वर्षाें से जी रहा है। हालांकि इस शहर की भी समस्याएँ बिलकुल वैसी ही हैं जैसे मध्यप्रदेश के अन्य शहरों की लेकिन मुसीबतजदा इस शहर को अपने ऊपर राजधानी होने का गर्व है। यह गर्व अकारण नहीं है। यहां महामहिम राज्यपाल रहते हैं और प्रदेश के मुख्यमंत्री की सत्ता भी इसी शहर से चलती है जिसकी गूंज झाबुआ से मंडला तक गूंजती है। विधानसभा भी भोपाल में हैं तो मंत्रालय के साथ वल्लभ भवन, सतपुड़ा और विंध्याचल भी भोपाल में है। तिरपन बरस पहले का भोपाल राजा भोज की नगरी थी। कहा जाता है कि तब यह भोपाल न होकर भोजपाल हुआ करता था और इस भोपाल शहर को उस समय के नवाबों ने संजोया और संवारा। तब भोपाल राजधानी भी नहीं था। तिरपन बरस पहले जब नये मध्यप्रदेश
खबर की कीमत तो तय होने दीजिये जनाब! मनोज कि सी भी अखबार के पहले पन्ने पर लीड स्टोरी का मूल्य क्या होगा? बाॅटमस्टोरी महंगी होगी या फिर सिटी पेज की स्टोरी की कीमत अधिक होती है? 9बजे प्राइम टाइम पर प्रसारित होने वाला कौन सा समाचार किस कीमत पर बेचाजाएगा अथवा रेडियो पर प्रसारित होने वाली खबरों की भी कोई कीमत आप लगासकते हैं? प्रधानमंत्री जी का वक्तव्य महंगा होगा या बिपाषा बसु के बारेमें बतायी जा रही खबर की भी कोई कीमत हो सकती? आप सोच रहे होंगे कि यहकैसा बेहूदा सवाल है। भला खबर की भी कोई कीमत आंकी जा सकती है? मैं भीआपकी तरह ही सोचता हूं कि पत्रकारिता कभी भी व्यवसायिक नहीं हो सकती हैकिन्तु जब सब तरफ ढोल पीटा जा रहा है कि पत्रकारिता व्यवासायिक हो गई हैतब यह सवाल जरूरी हो जाता है। मुझे यह भी नहीं मालूम कि मेरी इस राय सेकितने लोग इत्त्ेाफाक रखते हैं लेकिन मेरी अपनी राय है कि पत्रकारिता नतो आजादी के पहले व्यवसायिक थी और न आज व्यवसायिक हुई है। आजादी के समयथोड़ी और आजादी के बाद बदलते दौर में समाचार पत्रों का व्यवासायीकरण तेजीसे हुआ है। तकनीक के विस्तार के साथ समाचार पत्रों की छपाई का खर्च बढ़तागया
यह मीडिया की भाषा तो नहीं हैमनोज कुमारभारत सरकार की रेलमंत्री ममता बेनर्जी ने रेल बजट पेश किया तो अखबारों ने हेडलाइन बनायी ममता ने ममता उडेला, ममता दीदी की ममता वगैरह वगैरह और इसके थोड़े अंतराल में जब केन्द्रीय वित्तमंत्री ने देश का बजट पेश किया ता फिर अखबारों ने लिखा प्रणव दा......इन सबके पहले 30 जून को जब मध्यप्रदेश के नवनियुक्त राज्यपाल ने पदभार ग्रहण किया तो अखबारों का शीर्षक था ठाकुर ने पदभार सम्हाला....यह शीर्षक बनाने वालों ने भी नहीं सोचा होगा कि वे क्या लिख रहे हैं, उनके दिमाग में केवल एक बात रही होगी कि लोकप्रिय शीर्षकों का गठन कैसे किया जाये। उन्हें इस बात का भी ध्यान नहीं रहा कि शीर्षक के गठन की एक मर्यादा होती है और उस मर्यादा की सीमारेखा को कितना लांघा जाए? ममता बेनर्जी ने बजट केन्द्रीय रेलमंत्री की हैसियत से पेश किया था और प्रणव मुखर्जी ने देश का बजट केन्द्रीय वित्त मंत्री के नाते। ऐसे में स्वाभाविक रूप से उनका मीडिया से नाता केन्द्रीय मंत्री के रूप में है न कि मीडिया से रिश्तेदारी। इसी तरह मध्यप्रदेश के राज्यपाल के पदग्रहण करने पर जो शीर्षक अखबारों ने लगाया उसमें महामहिम