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दिसंबर 6, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक त्रासदी का खबरनामा

-मनोज कुमार तीस बरस का समय कम नहीं होता है। भोपाल के बरक्स देखें तो यह कल की ही बात लगती है। 2-3 दिसम्बर की वह रात और रात की तरह गुजर जाती किन्तु ऐसा हो न सका। यह तारीख न केवल भोपाल के इतिहास में बल्कि दुनिया की भीषणतम त्रासदियों में शुमार हो गया है। यह कोई मामूली दुर्घटना नहीं थी बल्कि यह त्रासदी थी। एक ऐसी त्रासदी जिसका दुख, जिसकी पीड़ा और इससे उपजी अगिनत तकलीफें हर पल इस बात का स्मरण कराती रहेंगी कि साल 1984 की वह 2-3 दिसम्बर की आधी रात कितनी भयावह थी। 1984 से लेकर साल दर साल गुजरते गये। 1984 से 2014 तक की गिनती करें तो पूरे तीस बरस इस त्रासदी के पूरे हो चुके हैं। समय गुजर जाने के बाद पीड़ा और बढ़ती गयी। इसे एक किस्म का नासूर भी कह सकते हैं। नासूर इस मायने में कि इसका कोई मुकम्मल इलाज नहीं हो पाया या इस दिशा में कोई मुकम्मल कोशिशें नहीं हुई। इस पूरे तीस बरस में इस बात पर जोर दिया गया कि त्रासदी के लिये हमसे से कौन कसूरवार था? किसने यूनियन कार्बाइड के कर्ताधर्ता वारेन एंडरसन को भोपाल से दिल्ली और दिल्ली से उन्हें अपने देश भागने में मदद की? हम इस बात में उलझे रहे कि कसूरवार कि