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अप्रैल 22, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जल परम्परा और बाजार

मनोज कुमार एक समय था जब आप सफर पर हैं तो पांच-दस गज की दूरी पर लाल कपड़े में लिपटा पानी का घड़ा आपकी खातिरदारी के लिए तैयार मिलेगा. पानी के घड़े के पास जाते हुए मन को वैसी ही शीतलता मिलती थी, जैसे उस घड़े का पानी लेकिन इस पाऊच की दुनिया में मन पहले ही कसैला हो जाता है. आज समय बदल गया है. जेब में दो-दो रुपये के सिक्के रखिये और किसी दुकानदार से पानी का पाऊच मांगिये. पानी का यह पाऊच आपकी प्यास तो थोड़ी देर के लिए शांत कर सकता है लेकिन मन को शीतलता नहीं दे सकता है. आखिर ऐसा क्या हुआ और क्यों हुआ कि हमने अपने आपसे इस घड़े को परे कर दिया है? पानी का यह घड़ा न तो पर्यावरण को प्रदूषित करता था और न ही शरीर को किसी तरह का नुकसान पहुंचाता था. देखते ही मन को भीतर ही भीतर जो खुशी मिलती थी, वह कहीं गुम हो गई है, उसी तरह जिस तरह लाल कपड़े में लिपटा पानी का घड़ा लगभग गुम हो गया है.  इस घड़े का गुम होते जाना, सिर्फ एक घड़े का गुम हो जाना नहीं है बल्कि एक संस्कार का और परम्परा का गुम हो जाना है. जो लोग इस बात को तो हवा दे रहे हैं कि अबकी विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा, क्या वे लोग इस घड़े को बच