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मई 11, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
ऐसे में कैसे बचेगी लाडली? मनोज कूमार रूढ़िवादी भारतीय समाज की पहली पसंद हमेशा से बेटा रहा है। बेटियों को दूसरे दर्जे पर रखा गया। यही नहीं, पालन पोषण में भी उनके साथ भेदभाव जगजाहिर है। बेटियों को जन्म से माने के पहले मार देने की निर्मम खबरें अब बासी हो गयी है। बेटियों के साथ इस सौतेलेपन का दुष्परिणाम यह हुआ कि आहिस्ता आहिस्ता बेटियों की तादाद घटती गयी। यह स्थिति किसी भी समाज अथवा देश के लिये ठीक नहीं कहा जा सकता और भारत के स्तर पर तो यह बेहद चिंता का विषय रहा है। इस स्थिति से उबरने के लिये सरकार और समाज लगातार सक्रिय है। पिछले एक दशक में इस दिशा में खासा प्रयास किया गया। इन प्रयासों में करोड़ों के बजट का प्रावधान किया गया नतीजतन परिणाम सौ प्रतिशत भले ही न रहा हो लेकिन एक कदम तो आगे बढ़ा गया। कहना न होगा कि इन प्रयासों का परिणाम आने वाले समय में और भी व्यापक स्तर पर देखने को मिलता किन्तु एक साजिश के साथ न केवल लाड़ली पर खतरा मंडरा रहा है, सरकारी और निजी प्रयासों पर पानी फेरा जा रहा है बल्कि समाज में अनैतिकता को खामोशी के साथ बढ़ाया जा रहा है। टेलीविजन के पर्दे पर और समाचार पत्रों में सेक्स को