रविवार, 16 अगस्त 2009

पत्रकारों की बेकारी पर खामोशी कब तक?

एक तरफ मीडिया का विस्तार हो रहा है और दूसरी तरफ मंदी के बहाने पत्रकारों की लगातार छंटनी की जा रही है। जिन संस्थानों में छंटनी नहीं किया जा रहा है उन्हें अपने शहर से इतनी दूर कर दिया जा रहा है कि वे खुद होकर नौकरी छोड़ दें. हाल ही में खबर आयी है कि हमारे बीच के एक वरिष्ठ पत्रकार इलाज के अभाव में अकाल मौत के शिकार हो गये. समाज के लिये अपना सर्वस्व त्याग करने वाले पत्रकारों के साथ ऐसा व्यवहार कब तक होता रहेगा. क्या इस तरह पत्रकारों की नौकरी जाने से रोकने के लिये कोई एकजुट प्रयास नहीं किये जा सकते हैं. आप भी इस बारे में सोचते होंगे. किसी साथी की नौकरी जाने पर आप भी दुखी होते होंगे. संभव है कि जो साथी असमय नौकरी छूट जाने की वजह से बेकार हों, उनमें से एक आप भी हों. इस स्थिति में हम सब क्या कर सकते हैं, यह सोचना होगा. क्या आप अपनी खामोशी तोड़ना चाहेंगे? अविलम्ब इस बारे में अपनी राय रखें.

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