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मई 28, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सम्मान एवं सहारे का सवाल

30 मई हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर विशेष मनोज कुमार एक बार फिर हम हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाने की तैयारी में हैं. स्मरण कर लेते हैं कि कैसे संकट भरे दिनों में भारत में हिन्दी पत्रकारिता का श्रीगणेश हुआ था तो आज यह विश£ेषण भी कर लेते हैं कि कैसे हम सम्मान को दरकिनार रखकर सहारे की पत्रकारिता कर रहे हैं. 1826 से लेकर 2016 तक के समूचे परिदृश्य की मीमांसा करते हैं तो सारी बातें साफ हो जाती हैं कि कहां से चले थे और कहां पहुंच गए हैं हम. इस पूरी यात्रा में पत्रकारिता मीडिया और पत्रकार मीडियाकर्मी बन गए. इन दो शब्दों को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि हम सम्मान की नहीं, सहारे की पत्रकारिता कर रहे हैं. जब हम सहारे की पत्रकारिता करेंगे तो इस बात का ध्यान रखना होगा कि सहारा देने वाले के हितों पर चोट तो करें लेकिन उसका हित करने में थोड़ा लचीला बर्ताव करें. मीडिया का यह व्यवहार आप दिल्ली से देहात तक की पत्रकारिता में देख सकते हैं. शुचिता की चर्चा भी गाहे-बगाहे होती रहती है वह भी पत्रकारिता में. मीडिया में शुचिता और ईमानदारी की चर्चा तो शायद ही कभी हुई हो. इसका अर्थ यह है कि पत्रकारिता का स्वरूप