हिन्दी को लेकर हमारी चिंता लगातार दिख रही है लेकिन ज्यादतर चिंता मंच से है. व्यवहार में हम हिन्दी को पीछे रखते हैं. यदि ऐसा नहीं होता तो पाठशाला से लेकर विश्वविद्यालय तक की परीक्षाओं में हिन्दी के विकल्प के तौर पर अंग्रेजी के प्रश्रों को मान्यता नहीं दी जाती. इसके उलट हिन्दी की स्वीकार्यता वैश्विक मंच पर हो चुकी है, जिसे हम स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. कल तक श्यामपट्ट पर लिखी जाने वाली हिन्दी अब हमारी हथेलियों पर है और मोबाइल से लेकर कम्प्यूटर तक का की-बोर्ड हिन्दी से संचालित है. हिन्दी के इस नये वैश्विक स्वरूप की चर्चा करता शोध पत्रिका ‘समागम’ का नया अंक.
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