सोमवार, 30 जून 2025

विद्या ददाति विनयम्


प्रो. मनोज कुमार

भारतीय समाज के लिए जुलाई का महीना विशेष महत्व का होता है. इस महीने ज्ञान के द्वार खुलते हैं और हँसते-मुस्कराते नन्हें शिशु मन मोह लेते हैं. इस ज्ञान के द्वार को हम पाठशाला कहते हैं. हालाँकि नए दौर में पाठशाला शब्द वि
लुप्त होकर पब्लिक स्कूल जैसा हो गया है. साथ में नेशनल और इंटरनेशनल शब्द जुड़ गया है. कभी हमें शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी कि ‘विद्या ददाति विनयम्’ और अब यह गुरु मंत्र किताबों में बंद हो गया है. सुप्रभात के स्थान पर गुडमार्निंग सुहाने लगा है. शासकीय पाठशालाओं में प्रवेशोत्सव हो रहा है तो प्रायवेट स्कूलों में मोटी फीस और एप्रोच के साथ एडमिशन हो रहा है. भारतीय शिक्षण व्यवस्था की वर्तमान की सच्चाई है. कुछ तर्कहीन लोग कहते हैं कि यह बदलाव समय के साथ जरूरी है लेकिन मुझे यह तर्क कम कुतर्क ज्यादा लगता है. जब प्रायवेट स्कूल नहीं थे तब क्या होनहार प्रतिभावान विद्यार्थी नहीं आते थे? छड़ी लिए मास्साब से खौफ खाते बच्चे अपने माता-पिता से शिकायत नहीं कर पाते थे क्योंकि शिकायत का मतलब था एक बार और कुटाई. आज के बच्चे अपने मदर-फादर से शिकायत ही नहीं करते बल्कि सजा के लिए भी टीचर को कटघरे में खड़ा करने से नहीं हिचकते. यह बदलाव कैसा है? किस समाज का हम निर्माण कर रहे हैं? कौन सा भविष्य बच्चों को दे रहे हैं?

शिक्षा में यह बदलाव एकाएक नहीं हुआ. हमारे पास कोसने के लिए अंग्रेजों के जमाने के मैकाले है. उसे हम गरियाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं. सच से मुँह चुराते हमारे समाज का सच यही है कि हम बच्चों को मात्र अक्षर ज्ञान दे रहे हैं. उन्हें ना तो शिक्षित कर रहे हैं और ना दीक्षित कर रहे हैं. संस्कार और संस्कृति तो नेपथ्य में खड़ी बिसूर रही है. महँगी फीस और चमक-धमक वाले स्कूलों में सिर्फ डिग्री हासिल हो रही है. आज भी बहुत हद तक शासकीय पाठशाला की गरिमा और दिव्यता शेष है. कवि कुमार विश्वास अपने व्याख्यान में कहते हैं कि जब राज्य फेल होता है तब निजी संस्थाएँ इसकी जिम्मेदारी लेती हैं. शायद सच हो सकता है लेकिन क्या वे बताएँगे कि राज्य फेल क्यों हुआ? क्या हम सब राज्य के जिम्मेदार नागरिक नहीं हैं? वास्तव में इस भेड़चाल में हम सब शामिल हैं. यह भी सच है कि शिक्षक और पत्रकार की कोई नौकरी नहीं होती है. वह समाज को गढऩे का कार्य करता है लेकिन दुर्भाग्य से अब इन दोनों पुण्य कार्य को नौकरी का हिस्सा बना दिया गया है. जब शिक्षकों का इम्तहान लिया जाता है तो अधिकांश सिफर साबित होते हैं. कोई इम्तहान पत्रकारों के लिए भी हो तो वह भी शायद इसी पैमाने पर उतरें. एक चलन चल पड़ा है कि देखों शिक्षा गर्त में जा रही है, देखो पत्रकारिता पर लोगों का भरोसा उठ गया है. बात सच भी है लेकिन इस बात का जवाब कौन देगा कि यह गिरावट जब आपके समय में, आपकी उपस्थिति में हो रही थी, तब आपने क्या किया?

सिर्फ दोषारोपण से कुछ नहीं होने वाला. शिक्षा की जो हमारी गुरुकुल परम्परा है, जो ‘विद्या ददाति विनयम्’ की बुनियादी अवधारणा है, उसे पुर्नजीवित करना होगा. इस दिशा में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में कुछ कारगर प्रयास किया गया है. कौशल उन्नयन को प्राथमिकता दी गई है. मातृभाषा को भी आगे रखा गया है. एक नजर में इस नवीन शिक्षा नीति की प्रशंसा की जा सकती है लेकिन इसके क्रियान्वयन में अपार बाधा है. सबसे बड़ी बाधा है बजट का और इसके बाद आधारभूत ढाँचा को सुदृढ़ बनाने की. इसके बाद अध्ययन-अध्ययापन के लिए प्रशिक्षित से ज्यादा समर्पित शिक्षकों की जरूरत होगी. जो लोग नौकरी मान कर आ रहे हैं, उनसे यह अपेक्षा बेमानी होगी कि वे विद्यार्थियों को ‘विद्या ददाति विनयम्’ का पाठ पढ़ा सकें. शिक्षक के लिए वचनबद्धता की जरूरत होगी. हम यह नहीं कहते कि उनके कार्य के लिए मानदेय ना मिले. सम्मानजनक और परिवार चलाने लायक मिले लेकिन इसमें वे सुविधाभोगी ना हो जाएँ. इस बात का विशेष खयाल रखना होगा. हम उम्मीद करते हैं कि आने वाले समय में शासकीय पाठशालाओं का गौरव बढ़ेगा. गुरुकुल की व्यवस्था संभव ना हो तो ना हो लेकिन शिक्षण व्यवस्था में उसका भाव दिखना चाहिए.

बुधवार, 25 जून 2025

हिंदी विश्वविद्यालय को मिला कुलगुरु

डॉक्टर देव आनंद हिंडोलिया अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय के नए कुलगुरु नियुक्त किए गए हैं। एक सप्ताह बाद वर्तमान कुलगुरु डहेरिया का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। डॉ. हिंडोलिया प्रवेश एवं शुल्क विनियामक समिति के सचिव हैं।

डॉ. अजीत पाठक फिर नेशनल चेयरमेन

पब्लिक रिलेशन सोसायटी ऑफ इंडिया के लिए वर्तमान अध्यक्ष डॉ. अजीत पाठक को पुन: निर्विरोध चुन लिया गया है. डॉ. पाठक लगातार 21 वर्षों तक पीआरएसआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने जाने का एशिया क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किया है। राष्ट्रीय पदाधिकारियों में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एस.पी.सिंह (पश्चिम),  यू.एस.शर्मा (दक्षिण), नरेन्द्र मेहता (उत्तर), सुश्री अनु मजूमदार (पूर्व) , राष्ट्रीय महासचिव डॉ पी.एल.के.मूर्ति तथा राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष श्री दिलीप चौहान चुने गए हैं। अगले नेशनल कांफ्रेंस देहरादून में किए जाने की घोषणा भी की गई। 

रामनाथ गोयनका अवार्ड के लिए आवेदन 30 तक

देश के प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका अवार्ड के लिए आवेदन करने की अंतिम तारीख 30 जून है. किसी भी भारतीय समाचार पत्र/पत्रिका/ऑनलाइन/टीवी चैनल (देश में प्रकाशित/प्रसारित) के लिए काम करने वाले पत्रकार आवेदन करने के पात्र हैं। भारतीय भाषा के अखबारों को अपनी कहानियों को अंग्रेजी में अनुवाद के साथ भेजना चाहिए। विदेशी संवाददाता भी आवेदन कर सकते हैं। अगर कहानी अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य भाषा में है तो कहानियों के साथ अनुवाद भी भेजना चाहिए। विजेताओं को समर्पित रामनाथ गोयनका पत्रकारिता उत्कृष्टता पुरस्कार ट्रॉफी का डिज़ाइन. निब और लौ, साहस और ईमानदारी की पत्रकारिता का प्रतीक है.

जुलाई में सब अपनी-अपनी जगह पर होंगे

आकाशवाणी, दूरदर्शन और पीआईबी में जो फेरबदल हुआ है उसमें जुलाई के पहले सप्ताह में सब अपना काम सम्हाल लेंगे. सुश्री पूजा वर्धन आकाशवाणी के साथ पीआईबी का दायित्व सम्हालेंगी. उनके स्थान पर दूरदर्शन में कौन आएगा, तय नहीं है. पीआईबी के प्रशांत पाठराबे अहमदाबाद भेजे गए हैं जबकि वहीं प्रेम बाबू गोरखपुर आकाशवाणी स्थानांतरित किए गए हैं. आकाशवाणी भोपाल के समाचार संपादक संजीव शर्मा हिमाचल पीआईबी का कार्य देखेंगे. 

एमसीयू को चाहिए गेस्ट लेक्चर 

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ने अतिथि शिक्षकों के लिए भर्ती निकाली है. सभी पाठ्यक्रमों के लिए शिक्षकों की जरूरत है. यूजीसी की निर्धारित योग्यता रखने वालों के साथ दस वर्ष या अधिक का अनुभव रखने वालों से भी आवेदन आमंत्रित किया गया है. चयन प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही शिक्षण का अवसर मिलेगा. कार्य व्यवहार कुशल रहा तो एक और अकादमिक वर्ष के लिए कार्यकाल भी बढ़ाया जा सकता है, इस बात का आश्वासन भी एमसीयू ने दिया है. 8 से 10 जुलाई को बिशनखेड़ी कैम्पस में इच्छुक उम्मीदवारों का साक्षात्कार होगा. अन्य जानकारी एमसीयू की वेबसाइट पर देखी जा सकती है.

http//samagam.co.in

शनिवार, 21 जून 2025

#आम का स्वाद और बचपन

डिजिटल जमाने में बच्चे ननिहाल से दूर हो गए हैं। अब उन्हें नानी मामा के घर जाना नहीं सुहाता है। मोबाइल उनकी दुनिया है। घर पर भी सबके बीच रहते हुए वे अकेले हैं। ऐसे में ननिहाल, मामा, बाई बहन और आम का स्वाद कैसे मिलेगा। आज आम का स्वाद नहीं है तो आने वाले कल में अपने बच्चों को बताने के लिए कुछ खट्टी मीठी यादें भी नहीं। खुद में डूबे बच्चों को देख कर पीड़ा होती है लेकिन वहीं शाश्वत सत्य क्या किया जा सकता है? 

आम का दिन ढलने लगा है। अब वह आम जिसे सफेदा, टपका या चूसनी कहा जाता है, आने लगा है। इसी आम का स्वाद लेते समय एक ऐसा आम का स्वाद मुंह में आया कि झटके में बचपन में पहुंच गया। स्वाद ऐसा कि ननिहाल की याद आ गई। वहीं स्वाद जो कभी बचपन में मामा के घर आम खाते हुए आता था। उम्र के छठे पड़ाव पर हूं और कहते हैं कि इस उम्र में स्वाद जाता रहता है। यानी कल तक खाने के लिए जीते थे और अब जीने के लिए खाना है। 

खैर, याद आया कि हमारे बड़े भैया मुन्ना भइया गर्मियों की छुट्टी में हम भाई बहिनों और मां मौसी को लेने आते थे। कुल मिलाकर हम सब 20 लोगों के आसपास होते थे। रायपुर रेलवे स्टेशन पर हम सब डेरा डाल देते थे। तब रायपुर से अकलतरा जाने के लिए जेडी ट्रेन हुआ करती थी। लगभग वह अपने नियत समय से देर से ही चला करती थी। कोई शाम 4 बजे अकलतरा पहुंचने वाली ट्रेन दो घंटे देरी से पहुंचती। फिर अकलतरा से ट्रकनुमा वाहन से बलौदा अपने ननिहाल का सफर शुरू होता। एकाध घंटे बाद बुचीहल्दी और फिर वहां से पैदल हंगामा करते घर पहुंचते। दिन भर सफर के बाद भी थकान का नामोनिशान नहीं। बड़ी मामी हम सबके लिए भोजन बनाने में जुट जाती। मौसी और मां उनकी मदद करती। हम बच्चों की पंगत लग जाती। एक परांठे के चार टुकड़े कर चार लोगों की थाली में दिया जाता। ऐसे ही दूसरी चार और तीसरी चार थाली में। यह दौर लंबा चलता।

रात होते ही छत पर बिस्तर लग जाता। बिस्तर क्या कुछ दरी, चटाई और गद्दे। गद्दे पर मां और मौसी का कब्जा हुआ करता था। हम में से कुछ टीन की चादर पर ही पसर जाते थे। अगले दिन हम सबको शाम होने की प्रतीक्षा होती थी। मामाजी हम सब के लिए एक एक बाल्टी में आम लाते थे। यह सिलसिला भी दो तीन घंटे चलता और जबतक वापसी नहीं हो जाती, चलता ही रहता।

मामा के घर गए हैं तो नए कपड़े भी सिलेंगे और यह होता भी था। यह वह खूबसूरत समय था जब पूरा गांव हमारा मामा, मौसी, बुआ और ऐसे ही रिश्तों में गुथा हुआ करता था। दर्जी मास्बाब अपनी मर्जी से कपड़ा सिलते थे। हमारी कोई सुनवाई या पसंद नहीं चलता था। जो सिल दिया, वही फायनल। अब वो दिन भी बिसर गए। अब तो घर पर काम करने वालों को पिद्दी से बच्चे नाम से पुकारते हैं। यह डोर टूटने के साथ ही रिश्तों की मिठास भी खत्म हो चली है।

मुझे याद आता है कि मामा के घर के सामने संतोष मामा रहते थे। सरदार संतोष, यह नाम तो आज भी याद नहीं। मामा और मामी याद है। उनके घर भी हमारे आने से उत्सव का माहौल हो जाता। मामी बड़े चाव से हमारे लिए खाना बनाती, लाड़ करती। कभी ख्याल भी नहीं आया कि वो हमसे अलग हैं। किशोर भैया बलौदा छोड़ कर बिलासपुर आ गए हैं। सालों से उनसे मुलाकात नहीं है। लेकिन जब भी मिलेंगे, लगेगा कि कल ही तो मिले थे। 

एक आम के स्वाद ने पांच दशक पहले बचपन की याद दिला दी। डर यह है कि डिजिटल बच्चों को कौन सा स्वाद इस उम्र में याद रहेगा

सोमवार, 16 जून 2025

##विश्व सिकलसेल दिवस 19 जून







सिकलसेल के खिलाफ महामहिम का सामाजिक सरोकार

प्रो. मनोज कुमार

महामहिम अर्थात राज्यपाल के बारे में आमतौर पर धारणा यह है कि उनका सरोकार राज्य की सत्ता पर निगरानी रखना होता है और यह कि वे सामाजिक सरोकार से दूर रहते हैं। मध्यप्रदेश के महामहिम मंगूभाई पटेल ने इस धारणा को ध्वस्त करते हुए जता दिया है कि राज्यपाल राजभवन की चहारदीवारी में रहने के लिए नहीं बल्कि उनका भी समाज में हस्तक्षेप जरूरी है। सिकल सेल बीमारी को नेस्तनाबूद करने के लिए मध्यप्रदेश के गर्वनर मंगूभाई पटेल ने सर्वाधिक सक्रियता के साथ इस अभियान में जुटे हुए हैं। मध्यप्रदेश में गर्वनर श्री पटेल लगातार लोगों के बीच जाकर जागरूकता फैला रहे हैं। गर्वनर के इन प्रयासों का समाज में असर देखने को मिल रहा है। मध्यप्रदेश के शहडोल जिले से सिकल सेल एनीमिया के खात्मे के संकल्प के साथ एक जनअभियान की शुरूआत हो चुकी है। 

यह जान लेना जरूरी है कि सिकल सेल एनीमिया किस तरह आदिवासी समाज का काल का ग्रास बना रही है, यह जानने से पहले जरूरी है कि यह जान लें कि अकेले मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि देश के करीब 17 राज्यों 7 करोड़ से अधिक आदिवासीजन इस बीमारी की चपेट में हैं। आबादी के मान से मध्यप्रदेश एक बड़ा आदिवासी प्रदेश है लिहाजा मध्यप्रदेश सर्वाधिक प्रभावित राज्य माना जा सकता है. वैसे इस समय देश के 17 जिलों में इस बीमारी का प्रकोप है जिनमें मुख्य रूप से ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और केरल में यह बीमारी जड़े जमाए हुए है। आए दिन जनजातीय समुदाय की मौतें एनीमिया सिकल सेल में कारण हो रही है। मध्यप्रदेश में एनीमिया सिकलसेल आदिवासी बाहुल्य इलाकों में ज्यादा फैला हुआ है उनमें शहडोल, उमरिया, अनुपपुर, बालाघाट, डिंडोरी, मंडला, सिवनी, छिंदवाड़ा, बड़वानी, अलीराजपुर, बुरहानपुर, बैतूल, धार, शिवपुरी, होशंगाबाद, जबलपुर, खंडवा, खरगोन, रतलाम, सिंगरौली और सीधी के नाम शामिल हैं. सिकल सेल रोग (एससीडी) एक क्रोनिक एकल जीन विकार है जो क्रोनिक एनीमिया, तीव्र दर्दनाक एपिसोड, अंग रोधगलन और क्रोनिक अंग क्षति और जीवन प्रत्याशा में महत्वपूर्ण कमी की विशेषता वाले दुर्बल प्रणालीगत सिंड्रोम का कारण बनता है।

एक रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी जिलों में सरकारी स्वास्थ सेवाओं के हाल में पहले की तुलना में सुधार तो हुआ है लेकिन सिकल सेल एनीमिया को उतनी गंभीर बीमारी नहीं माना जा रहा है जितनी यह गंभीर है। हालाँकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत, भारत सरकार अपने वार्षिक पीआईपी प्रस्तावों के अनुसार सिकल सेल रोग की रोकथाम और प्रबंधन के लिए राज्यों का समर्थन करती है।  वित्त वर्ष 2023-24 के केंद्रीय बजट में, 2047 तक सिकल सेल एनीमिया को खत्म करने के लिए एक मिशन शुरू करने की घोषणा की गई है। इस मिशन में जागरूकता सृजन, प्रभावित क्षेत्र में 0-40 वर्ष आयु वर्ग के लगभग सात करोड़ लोगों की सार्वभौमिक जांच पर ध्यान केंद्रित किया गया है। केंद्रीय मंत्रालयों और राज्य सरकारों के सहयोगात्मक प्रयासों के माध्यम से जनजातीय क्षेत्रों और परामर्श. सिकल सेल रोग की जांच और प्रबंधन में चुनौतियों से निपटने के लिए मध्यप्रदेश में राज्य हीमोग्लोबिनोपैथी मिशन की स्थापना की गई है। प्रधानमंत्री द्वारा बीते 15 नवंबर 2021 को मध्यप्रदेश के झाबुआ और अलीराजपुर जिले और परियोजना के दूसरे चरण में शामिल 89 आदिवासी ब्लॉकों में स्क्रीनिंग के लिए एक पायलट परियोजना शुरू की गई। राज्य द्वारा दी गई रिपोर्ट के अनुसार कुल 993114 व्यक्तियों की जांच की गई है जिनमें से 18866 में एचबीएएस (सिकल ट्रेट) और 1506 (एचबीएसएस सिकल रोगग्रस्त) पाए गए हैं। इसके अलावा, राज्य सरकार ने रोगियों के उपचार और निदान के लिए 22 जनजातीय जिलों में हीमोफिलिया और हीग्लोबिनोपैथी के लिए एकीकृत केंद्र की स्थापना की है।

सिकल सेल एनीमिया खून की कमी से जुड़ी एक बीमारी है। इस आनुवांशिक डिसऑर्डर में ब्लड सेल्स या तो टूट जाती हैं या उनका साइज और शेप बदलने लगती है जो खून की नसों में ब्लॉकेज कर देती हैं। सिकल सेल एनीमिया में रेड ब्लड सेल्स मर भी जाती हैं और शरीर में खून की कमी हो जाती है। जेनेटिक बीमारी होने के चलते शरीर में खून भी बनना बंद हो जाता है। वहीं शरीर में खून की कमी हो जाने के कारण यह रोग कई जरूरी अंगों के डेमेज होने का भी कारण बनता है। इनमें किडनी, स्प्लीन यानि तिल्ली और लिवर शामिल हैं। 

लक्ष्य है कि साल 2047 तक इस रोग को भारत से जड़ से खत्म कर दिया जाए। इसी कड़ी में पीएम मोदी ने शहडोल में सिकल सेल कार्ड वितरण कर बीमारी की स्क्रीनिंग के लिए लोगों को जागरूक करने का संदेश दिया था। गर्वनर की देखरेख में राज्य सरकार भी सक्रिय हुई और पहले की तुलना में काफी कुछ सुधार देखने को मिल रहा है। सिकलसेल के खिलाफ इलाज और परीक्षण से ज्यादा जरूरी आदिवासी समाज को जागरूक करना है। इस बीमारी में सबसे अहम सिकल सेल बीमारी को रोकने का एक प्रभावी तरीका इस रोग से ग्रस्त स्त्री-पुरुषों में विवाह को रोकना है। लेकिन यह तभी संभव है, जब सिकल सेल रोगग्रस्त लोगों की पहचान हो और उनके बीच विवाह संबंधों पर रोक लगे। यह काम लोगों में इस रोग के प्रति जागृति फैलाने से ही हो सकता है।

विशेषज्ञों के अनुसार सिकल सेल एनीमिया 3 प्रकार का होता है। पहला प्रकार सिकल वाहक है, सिकल वाहक में कोई लक्षण दिखाई नहीं देते और ऐसे व्यक्ति को उपचार की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन ऐसे व्यक्ति को यह पता होना चाहिये कि वह सिकल वाहक है। यदि अनजाने में सिकल वाहक दूसरे सिकल रोगी से विवाह करता है, तो सिकल पीडि़त संतान पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है। दूसरे प्रकार के सिकल रोगी में सिकल सेल बीमारी के लक्षण दिखाई देते हैं। इन्हें उपचार की आवश्यकता होती है। सिकल बीटा थेलेसिमिया तीसरे प्रकार का सिकल सेल रोग है। बीटा थैलेसिमिया बीटा ग्लोबिन जीन में दोष के कारण होता है। सिकल सेल बीमारी अनुवांशिक बीमारी है. सिकल सेल रोगी के साथ खाना खाने, साथ रहने, हाथ मिलाने अथवा गले मिलने से यह रोग नहीं होता। यह बीमारी केवल माता-पिता से ही बच्चों में आ सकती है। सिकल सेल में रोगी की लाल रक्त कोशिकाएं हंसिए के आकार में परिवर्तित हो जाती हैं। हंसिए के आकार के ये कण शरीर के विभिन्न अंगों में पहुंच कर रुकावट पैदा करते हैं। इस जन्मजात रोग से ग्रसित बच्चा शिशु अवस्था से बुखार, सर्दी, पेट दर्द, जोड़ों एवं घुटनों में दर्द, सूजन और कभी रक्त की कमी से परेशान रहता है। सिकलसेल-एनीमिया ऐसा रक्त विकार है, जिसमें लाल रक्त कोशिकाएं जल्दी टूट जाती है। इसके कारण एनीमिया और अन्य जटिलताएं जैसे कि वेसो-ओक्लुसिव क्राइसिस, फेफड़ों में संक्रमण, एनीमिया, गुर्दे और यकृत की विफलता, स्ट्रोक आदि की बीमारी और यहां तक की पीडि़त के मौत तक की आशंका रहती है। 

सिकल सेल एनीमिया रोग दुनिया में है तो काफी पहले से, लेकिन वैज्ञानिकों को इसका पता पहली बार 1910 में कैरेबियाई देश ग्रेनाडा में चला। वहां इसे एक मेडिकल छात्र लिनस पॉलिंग और उसके सहयोगियों ने खोजा। उन्होंने बताया कि इस रोग से ग्रस्त रोगियो में सिकल हीमोग्लोबिन में एक असामान्य परिवर्तित इलेक्ट्रोफोरेटिक (विद्युत कण संचलन) गतिविधि देखने में आई है। 1949 में पहली बार इसे आण्विक रोग के रूप में पारिभाषित किया गया। 1957 में वेर्नन इनग्राम ने बताया कि सिकल सेल हीमोग्लोबिन रोग का मूल कारण हीमोग्लोबिक अणुओं में एकल अमीनो एसिड का प्रतिस्थापन है। इस रोग के कारणो का तो कुछ पता लग गया है, लेकिन इसका स्थायी इलाज अभी तक नहीं खोजा जा सका है। लिहाजा देश में सिकल एनीमिया को लेकर शुरू किया गया देशव्यापी अभियान इसी अनिवार्यता का हिस्सा है। 

मध्यप्रदेश के राज्यपाल श्री मंगूभाई पटेल इस बीमारी के खिलाफ जन-जागृति के लिए प्रयासरत हैं. अपने हर कार्यक्रम में वे लोगों को इस बीमारी के बारे में बताते हैं और इस बीमारी के खिलाफ खड़े होने का आग्रह करते हैं. सिकल सेल एनीमिया के खिलाफ इस जंग में सरकारों को राजनीतिक लाभ ना मिले लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता मौत के मुंह में समा रहे लोगों को नया जीवन जरूर मिल सकेगा. सिकल सेल एनीमिया के खिलाफ सरकार ने जो अभियान शुरू किया है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि इसका सुपरिणाम देखने को मिलेगा. इसमें सबसे प्रबल पक्ष यह है कि लोगों तक शासकीय अस्पतालों में उपलब्ध सुविधाओं की जानकारी पहुंचे. यही नहीं, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का दस्ता घर-घर जाकर सरकारी दवाखाना में आने के लिए प्रेरित करे. स्कूलों, पंचायतों और आंगनवाड़ी में कैम्पेन चलाया जाए. सरकार ने अभियान शुरू किया है, यह तो एक पक्ष है लेकिन समाज का साथ में सक्रिय होना भी जरूरी है. राज्य की मोहन सरकार ने भी इस दिशा में सकरात्मक प्रयास कर रही है जिसका असर दिख रहा है. हालाँकि बीमारी का निदान किया जाना कठिन है लेकिन जनजागरूकता से इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है। एक संभावना का उदय हो चुका है. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं) 

गुरुवार, 12 जून 2025

मोदी मैजिक के 11 वर्ष


       

 प्रो. मनोज कुमार
            साल 2014 के पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि देश की सत्ता में गैर-कांग्रेसी दल लगातार तीन बार सत्ता में बनी रह सकती है और अभी संभावना विपुल है. यह सोच स्वाभाविक भी थी कि जिस देश में एक वोट से केन्द्र की गैर-कांग्रेसी सरकार गिर जाए. खैर, यह चमत्कार है लोकतंत्र का तो यह कमाल है मोदी मैजिक का. प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने भारतीय समाज की नब्ज को थामा, जाँचा और उनकी जरूरतों के मुताबिक फैसले किए. यह कहना भी सर्वथा उचित नहीं है कि उनके सारे फैसले सार्थक साबित हुए लेकिन यह कहना उचित है कि उनके ज्यादतर फैसले जनता के हक में था. गाँव से लेकर सात समुंदर पार तक मोदी की आवाज गूँजती है. हालिया ऑपरेशन सिंदूर ने मोदी सरकार की लोकप्रियता को हजारों गुना बढ़ा दिया है. जैसा कि होता है विपक्ष सत्तासीन दल को निशाने पर लेती है लेकिन यह सब एक रिवाज है.  मोदी मैजिक यूँ ही नहीं चलता है. वह जानते हैं कि कब क्या कहा जाए और कब क्या फैसला किया जाए. उन्हें इस बात का भी अहसास है कि मीडिया जनता का मन बदलने की ताकत रखती है तो वे ऐसी जुगत बिठाते हैं कि मीडिया खुद उनकी मुरीद हो जाती है.  
        11 वर्ष पहले जाकर कुछ पलट कर देखना होगा. तब मोदी गैर-कांग्रेसी सरकार के पहले दमदार प्रधानमंत्री होते हैं पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने वाले.  स्वाभाविक है कि दशकों से सत्ता में काबिज लोगों के लिए यह सदमा सा था और मोदी को कमजोर करने के लिए वे रणनीति बनाते लेकिन वे मोदी मैजिक को समझ ही नहीं पाए. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं होकर अपने दस लाख के लिबास को चर्चा में ला दिया. मोदी विरोधी उनके लिबास की कीमत में उलझ गए और जनता को संदेश चला गया कि विरोधी मोदी को कमजोर करना चाहते हैं. भव्यता की यह रणनीति कारगर साबित हुई और विपक्ष का कीमती समय व्यर्थ के विवाद में आज भी जाया हो रहा है. मोदी मैजिक भारतीय मन को जानता है और चुपके से वे भव्यता से दिव्यता की ओर चल पड़े. उन्होंने पारम्परिक भारतीय परिधान को अपनी जीवनशैली में शामिल कर लिया. अब वे पायजामा कुरता के साथ जैकेट पहन कर सादगी के प्रतीक हो गए. यहाँ भी कमाल हो गया कि नेहरू जैकेट को रिप्लेस कर मोदी जैकेट ने युवाओं को मोह लिया. यही मोदी मैजिक है जो लोगों को बार-बार लुभाता है और वे पूरी ताकत के साथ सत्ता में वापसी करते हैं.  
        मोदी भारतीय मन को बेहतर ढंग से जानते हैं लेकिन मोदी को समझना किसी पहेली को हल करने जैसा है. 11 वर्षों के उनके कार्यकाल की समीक्षा की जाए तो देश में अपवाद स्वरूप कोई मिल जाएगा जिसे मोदी के अगले कदम के बारे में कुछ पता हो या वह यह बता पाए कि मोदी क्या करने वाले हैं. थोड़ा पीछे चलें तो देखेंगे कि वे गुजरात राज्य के सबसे लम्बे कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री थे जिन्हें भाजपा और संघ ने 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री का चेहरा बनाया था. तब की सरकार को कटघरे में खड़ा कर युवाओंं के बीच एक नायक की तरह उभरे थे. यह वह वर्ग था जिसे राजनीति की समझ बहुत नहीं थी लेकिन देश में बदलाव की चाहत थी. चाय पर चर्चा से लेकर वे तूफानी गति से देश के दिल में जगह बना रहे थे. और भारतीय राजनीति में ऐसा कायापलट हुआ कि भारतीय जनता पार्टी नरेन्द्र मोदी को कैश कर केन्द्र की सत्ता पर काबिज हो गई. नरेन्द्र मोदी से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बखूबी यह जानते थे कि जिस तेजी से उनकी लोकप्रियता आम भारतीय के मन में बनी है, उसे लम्बे समय तक बनाये रखना एक चुनौती है. जो आम आदमी के झटके में कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों को जमीन दिखा सकता है, वह मोदी के साथ भी ऐसा कर सकता है. और खांटी राजनीतिक दल और राजनेता मोदी को कटघरे में खड़ा करेंगे. मोदी का मीडिया मैनेजमेंट इतना सधा हुआ था कि खांटी राजनेता भी मात खा गए. विरोधी ही नहीं, उनके अपनी पार्टी के लोगों की समझ से भी बाहर रहे मोदी. मोदी जानते थे कि विरोधियों से लेकर मीडिया तक को भटकाना है तो कुछ ऐसा किया जाए कि उनकी चर्चा और आलोचना के केन्द्र मेें मोदी की राजनीति नहीं, बल्कि उनके दूसरे पक्ष को लेकर वे चर्चा में बने रहे.
        विपक्षी नेताओं को तो समझ ही नहीं आया तो उनके अपने ही विरोधी धड़ा भी शांत बैठ गया. परिणामत: पाँच वर्ष बाद केन्द्र में वापस मोदी सरकार की वापसी होती है. यही नहीं, अनेक राज्यों में भी भाजपा की सरकार सत्तासीन होती है बल्कि रिकार्ड कार्यकाल बनाती है. छत्तीसगढ़ में 15 साल तो मध्यप्रदेश में 18 महीने के छोटे से ब्रेक के बाद 20 वर्षों से अधिक समय से वह सत्तासीन है. इसके अलावा अनेक राज्यों में भाजपा सत्तासीन है. महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में भी भाजपा की सत्ता कायम है. आलम यह है कि मीडिया कभी सटीक रूप से यह नहीं बता पाया कि मोदीजी का अगला कदम क्या होगा? मीडिया अनुमानों को ही हेडलाइन बनाते रहे और हर बार गच्चा खाते रहे. कई बार तो मोदीजी के फैसलों से यह भी पता नहीं चलता कि उन्हें स्वयं को पता होता है कि नहीं कि उनका अगला कदम क्या होगा? उनके लिए फैसले का दूरगामी परिणाम क्या होगा, इसकी मीमांसा की जाती है लेकिन फौरीतौर पर मीडिया और आम आदमी को वे चमत्कृत कर जाते हैं.
        वे भारतीय मानस की नब्ज को बेहतर ढंग से पकड़ते हंै और उसी के अनुरूप वे फैसला करते हैं. भारत एक विशाल देश है और इस बहुसंख्य आबादी जिसमें बहु भाषा-भाषायी लोगों तक पहुँचना सरल नहीं होता है. ऐसे में उन्होंने आकाशवाणी पर प्रत्येक माह ‘मन की बात’ कार्यक्रम की शुरूआत की. ‘मन की बात’ कार्यक्रम के जो तथ्य और आँकड़ें को समझने की कोशिश की गई तो इसके लिए बकायदा एक रणनीति के तहत देशभर के अनाम से गाँव और ग्रामीणों को ‘मन की बात’ कार्यक्रम के लिए जोड़ा गया. देश का प्रधानमंत्री जब अपने कार्यक्रम में सुदूर आदिवासी गाँव की किसी महिला अथवा कोई उपलब्धि का उल्लेख करते हैं तो वह क्या, एक बड़ी आबादी उनकी मुरीद हो जाती है. लोग इस प्रयास में लग जाते हैं कि अगली बार ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री उनकी या उनके गाँव की कामयाबी का उल्लेख करें. आँकड़ों को जाँचें तो पता चलेगा कि घाटे में जा रहे आकाशवाणी की आय में बेशुमार वृद्धि हुई है. मोदीजी की तर्ज पर पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह और शिवराजसिंह ने भी रेडियो को माध्यम बनाया था लेकिन उन्हें वह सफलता नहीं मिली, जो मोदीजी के कार्यक्रम को मिल रही है. यही नहीं, ‘मन की बात’ कार्यक्रम की निरंतरता भी अपने आप में मिसाल कायम करती है. मोदीजी के पहले महात्मा गाँधी और इंदिरा गाँधी ने रेडियो के महत्व को समझा था लेकिन ‘मन की बात’ कार्यक्रम की तरह वे ऐसा कोई कार्यक्रम शुरू नहीं कर पाए थे.
        11 साल के मोदी सरकार के कार्यकाल की समीक्षा की जाए तो सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि समूचे भारतीय समाज की सोच और उनकी कार्यवाही को डिजीलाइटेशन कर दिया. अब हर सौदा-सुलह ऑनलाइन होगा. सरकारी दफ्तरों सेे कार्य के लिए भटकने की जरूरत नहीं है क्योंकि एक क्लिक पर आपका काम हो जाता है. इससे रिश्तवखोरी पर नियंत्रण पाया जा सका है. जन्म प्रमाण पत्र बनाने से लेकर पासपोर्ट बनाने तक के लिए अब दफ्तरों के चक्कर काटने की जरूरत नहीं है. मोदीजी बतौर प्रधानमंत्री सोशल मीडिया की ताकत भी जानते हैं सो वह अपनी बात एक्स से लेकर रील्स और इंटस्टा तक लेकर जाते हैं. यह पूरी कवायद करने के लिए उनकी टीम है लेकिन इसका मॉडल ऐसा बना हुआ है कि हर आम आदमी को महसूस होता है कि मोदीजी सीधे उनसे रूबरू हो रहे हैं. यही मोदीजी की ताकत बनती है और यही उनकी लोकप्रियता का कारण भी है.
        भारतीय राजनीतिक इतिहास में गैर-कांग्रेसी दल से तीसरी बार केन्द्र में सत्तासीन होने वाले मोदी हैं. मोदीजी का सबसे प्रबल पक्ष है कम्युनिकेशन का. कम्युनिकेशन की थ्योरी कहती है कि वही कामयाब कम्युनिकेटर है जो लोगों तक अपनी बात प्रभावी ढंग से पहुँचा सके. इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस दौर के सबसे बड़े संचारक के रूप में स्वयं को स्थापित किया है. वे जनसभा में लोगों को मोहित कर लेते हैं. आम आदमी से सीधे संवाद से मोदी सरकार के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ता है. मोदी जी कई बार जानते हुए भी ऐसे बयान देते हैं कि विरोधी उनकी आलोचना पर उतर आते हैं. मोदीजी आम आदमी के सायक्लोलॉजी को भी बेहतर ढंग से समझते हैं. अनेक बार स्थिति-परिस्थितियों के चलते आम आदमी निराशा में डूब जाता है तब यह देश के मुखिया की जवाबदारी होती है कि कैसे उसे उबारे और उसमें उत्साह का संचार करे. भारत ही नहीं, समूचे वैश्विक परिदृश्य में देखें तो महँगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दे मुंहबाये खड़े हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नौकरी करना नहीं, नौकरी देना सीखो के मंत्र के साथ नवउद्यमी बनाने के लिए स्र्टाटअप के लिए प्रोत्साहित किया. डेढ़ सौ करोड़ की आबादी को कम लागत वाले काम करने के लिए प्रोत्साहित किया. तब उनकी आलोचना इस बात को लेकर हुई कि भारत का युवा अब पकौड़े तलेगा लेकिन आलोचना करने वालों का तब मुँह बंद हो गया जब एक पानीपुरी बेचने वाले को आइटी ने पकड़ा तो वह करोड़पति निकला. मोदीजी आईटी से जुडऩे के लिए भारतीय युवाओं को प्रोत्साहित करते रहे हैं. एआई और चैटजीपीटी आने के बाद रोजगार के अवसर घट रहे हैं लेकिन एआई और चैटजीपीटी सीख लेते हैं तो रोजगार के नए विकल्प आपका इंतजार कर रहा है.
        निश्वित रूप से 11 वर्ष के कार्यकाल में सबकुछ भला-भला हुआ हो, यह तय नहीं है. एक मनुष्य के नाते अनेक अच्छी पहल हुई तो कुछ गलतियाँ भी हुई होंगी. वे क्या, पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री भी इसी श्रेणी में आते हैं. कई बार उनकी पार्टी के नेताओं के कदाचार पर उनसे प्रतिक्रिया माँगी जाती है तो यह बेमानी लगता है क्योंकि इस पर बोलने और कार्यवाही करने की जवाबदारी पार्टी की है ना कि प्रधानमंत्री की हैसियत से सरकार की. वे भारतीय और भारतीयता के लिए लोगों में जज्बा पैदा करते हैं और सनातन युग की ओर वापसी का संकेत देते हैं. डिग्री वाली शिक्षा से बाहर लाकर स्किलबेस्ड शिक्षा भारत को गुरुकुल की ओर ले जाता है. मानना चाहें तो मोदीजी का कार्यकाल आपको देशहित में लग सकता है और न मानना चाहें तो खामियाँ गिनाते रहिए.
        अपनी लम्बी राजनीतिक पारी और केन्द्र में 11 वर्ष के अपने कार्यकाल में मोदीजी युवा नेता नहीं रहे लेकिन वे एक जिम्मेदार बुर्जुग की भूमिका में आ गए हैं. यकिन ना हो तो अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वेंस की पत्नी उषा वेंस के अनुभव और उनकी बातों से समझ लें. इसी साल बीते अप्रैल में भारत दौरे को उपराष्ट्रपति जेडी वेंस का परिवार आया था. वेंस की पत्नी ने यह भी कहा कि उनके तीन छोटे बच्चों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में उनके दादाजी की झलक दिखी. उन्होंने पीएम मोदी से मिलते ही उन्हें दादा जी माना लिया और वे उनसे लडिय़ाते रहे. उपराष्ट्रपति जेडी वेंस के साथ उषा वेंस और उनके तीन छोटे बच्चे इवान, विवेक और मीराबेल भी थे. दादा जी बन जाने की यह छवि भारतीय मन को जोड़ता है. यही भारत है, यही श्रेष्ठ है.(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)

विद्या ददाति विनयम्

प्रो. मनोज कुमार भारतीय समाज के लिए जुलाई का महीना विशेष महत्व का होता है. इस महीने ज्ञान के द्वार खुलते हैं और हँसते-मुस्कराते नन्हें शिशु ...