मनोज कुमार इंदौर में मौत की बावड़ी से धडक़न टूटने की गिनती हो रही है। सबके अपने सूत्र, सबके अपने आंकड़ेें। पलकें नम हो गई हैं। हर कोई इस विपदा से दुखी और बेबस है। खबरों की फेहरिस्त है। कोई शासन-प्रशासन को गरियाने में लगा है तो कोई इस बात की तह तक जाने की जल्दबाजी में है कि हादसा हुआ कैसे? सब खबरों और हेडलाइंस तक अपने आपको सीमित रखे हुए हैं। इस हादसे में अगर प्रशासन नाकाम है तो यह कौन सी नयी बात है? राजनेता हादसे को भुनाने में लग गए तो इसमें हैरानी कैसी? यह ना तो पहली दफा हो रहा है और ना आखिरी दफा है। प्रशासन का निकम्मापन हमेशा और हर हादसे में उजागर होता रहा है और शायद आगे भी उसका वही रवैया रहे। इसमें सयापा करने की कोई बहुत ज्यादा जरूरत नहीं है। जिंदगी को रूसवा करने और मौत को रुपयों से तौलने की रवायत भी पुरानी हो चुकी है। रुपये नम आंखों में खुशी ला सकते तो क्या बात थी कि हर रईस मौत से मालामाल हो जाता। कभी उन घरों में आज से चार-छह हफ्ते बाद जाकर पूछे और देखें उन बच्चों को जिनकी मां ने उनके सामने दम तोड़ दिया या पिता का साया सिर से उठ गया। किसी का पति चला गया तो किसी का घर सुना हो गया। थोड
मनोज कुमार रेडियो अपने जन्म से विश्वसनीय रहा है. सुभाष बाबू का रेडियो आजाद हिन्द हो या आज का ऑल इंडिया रेडियो. प्रसारण की तमाम मर्यादा का पालन करते हुए जो शुचिता और सौम्यता रेडियो प्रसारण में दिखता है, वह और कहीं नहीं. मौजूं सवाल यह है कि रेडियो प्रसारण सेवा का आप कैसे उपयोग करते हैं? इस मामले में महात्मा गांधी से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो अभिनव प्रयोग किया है, वह अलहदा है. गांधीजी ने रेडियो को शक्तिशाली माध्यम कहकर संबोधित किया था और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे चरितार्थ कर दिखाया. संचार के विभिन्न माध्यमों के साथ मोदीजी का दोस्ताना व्यवहार रहा है लेकिन रेडियो प्रसारण के साथ वे मन से जुड़ते हैं. मन से मन को जोडऩे का उपक्रम ‘मन की बात’ के सौ एपिसोड पूरे होने जा रहे हैं तो इसके प्रभाव को लेकर कुछ चर्चा किया जाना सामयिक है. कहने को सौ एपिसोड बहुत आसान सा लगता है लेकिन देखा जाए तो यह एक कठिन टास्क है जिसे मोदीजी जैसे व्यक्ति पूरा कर सकते थे और किया भी. ‘मन की बात’ शीर्षक को लेकर लोगों को लगने लगा कि वे अपने मन की बात कह रहे हैं लेकिन ‘मन की बात’ कार्यक्रम का कोई भी एपि