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#प्रो मनोज कुमार की किताब "टारगेटेड जर्नलिज्म"

 "डायबिटीज का इलाज गुलाब जामुन से संभव है" इस चेतावनी से सजग  करती प्रो मनोज  कुमार की किताब  "टारगेटेड जर्नलिज्म"           नैतिक आचरण पर आधारित परिवार की अगली पीढ़ी अगर मूल्यविहीन हो जाये, तो जो पीड़ा घर के सबसे बड़े बुजुर्ग की होती हैं, उसी दर्द को महसूस करने का नाम है,  प्रो मनोज कुमार की नई किताब "टारगेटेड जर्नलिज्म" ।           यह किताब कल ही मेरे हाथ में आई है। लेखक एवं प्रोफेसर भाई मनोज कुमार से मेरा तीन दशक पुराना संबंध है। मैंने पत्रकारिता का ककहरा पहले दिन से इनके सानिध्य में बैठकर शुरू किया है। जब मैंने 1991 में पत्रकारिता में पहला कदम रखा था, तब यह विधा अपनी नैतिकता के चर्मोत्कर्ष को छूकर उतार पर चल पड़ी थी।           देश को साहित्यकार एवं संपादक देने वाला नई दुनिया विभाजन के बाद बिकने पर आ गया था। कलरफुल फिल्मी कलाकारों के पोस्टर छाप कर दैनिक भास्कर अपनी ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहा था। पाठकों की संख्या में नवभारत एवं दैनिक भास्कर रोज पूरे पेज के विज्ञापन छाप कर अपने पा...
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#पंचायतों में आत्मनिर्भर होती महिलाएं

  राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस पर 24 अप्रैल पर विशेष पंचायतों में आत्मनिर्भर होती महिलाएं मनोज कुमार  73वें संशोधन के बाद पंचायती राज व्यवस्था में जो कमियां-खामियां थी, उसे दूर करने का प्रयास किया गया है और इस प्रयास के जरिए गाँधी के ग्राम स्वराज का स्वप्र मध्यप्रदेश की धरती पर सच होता नजर आ रहा है. इस संशोधन को लागू करने वाला मध्यप्रदेश पहला राज्य था. आहिस्ता-आहिस्ता पंचायत की सत्ता में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ायी गई. यही वजह है कि मध्यप्रदेश की स्त्री अब अधिकार सम्पन्न और आत्मनिर्भर हो चली हैं. स्वयं सहायता समूह ने पंचायतों की व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है. अब गाँव की स्त्रियां आर्थिक रूप से मजबूत ही नहीं हैं बल्कि वे जागरूक भी हैं और समाज को जगा भी रही हैं. मध्यप्रदेश के गाँव-गाँव में स्व सहायता समूह अलख जगा रही हैं. स्त्रियों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सरकार के प्रयासों ने सार्थक भूमिका निभायी है. हालांकि यह कहना पूरी तरह सही नहीं होगा कि स्त्रियों  की सत्ता में स्वतंत्र भूमिका है. आज भी सरपंच पति जैसी घटनाएं आम है. पंचायत सत्ता की इस कमी ...

#Manoj मनोज कुमार की नयी किताब #Targeted Journlism

 किताब का शीर्षक ‘टारगेटेड जर्नलिज्म’ आपको सोचने के लिए विवश करेगा और कुछेक के मन में आएगा कि यह क्या नकरात्मक शीर्षक है. दरअसल ऐसा कुछ नहीं है. यह तो सभी सुधिजन मानते हैं कि वर्तमान समय पत्रकारिता का नहीं है. यह मीडिया का दौर है और मीडिया के इस दौर में ध्येनिष्ठ पत्रकारिता को विलोपित कर टारगेटेड जर्नलिज्म में गढ़ दिया गया है. पत्रकारिता परिवार के हमारे पुराधाओं ने पत्रकारिता के लिए कहा करते थे-‘ठोंक दो’ अर्थात मुरब्बत करने की जरूरत नहीं लेकिन बदलते दौर में  ‘निपटा दो’ में बदल दिया है. पहले में एक ध्य था और अब लक्ष्य है. सच या गलत में कोई अंतर नहीं करना है बल्कि जो विरोध में खड़ा हो, उसे निपटा देना है. शायद इस सोच के चलते पत्रकारिता सवालोंं के घेरे में है. यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि आज पत्रकारिता करना कितना कठिन कार्य है. बाहरी दबाव की बात ना भी करें तो संस्थान के भीतर मैनेजमेंट का दबाव इतना होता है कि हम निर्भिक होकर अपनी बात नहीं कह पाते हैं. ऐसे में स्वतंत्र रूप से लेखन एक माध्यम बच जाता है जहां हम अपने मन की बात कर सकते हैं. अपने लिखे को समाज तक पहुंचाने का संकट ...

#Samagma ka Naya Ank April 2025

 

भारतीय जनता पार्टी : स्थापना दिवस 6 अप्रेल पर विशेष

शून्य से शिखर का सफर मनोज कुमार व्यक्ति या संस्था जब शिखर पर होता है तब उसकी विजयगाथा गायी जाती है और यह स्वाभाविक भी है. आज की भारतीय जनता पार्टी की बुनियाद में उसके संघर्ष के दिनों की यात्रा उसकी नींव है. 1951 में जनसंघ के रूप में यात्रा शुरू हुई और जनता पार्टी के रूप में विस्तार मिला और 6 अप्रेल 1980 को स्वयं की पहचान के साथ भारतीय जनता पार्टी की यात्रा आरंभ हुई तो अविरल चल रही है. कभी दो सांसदों के साथ लोकसभा में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने वाली भारतीय जनता पार्टी आज देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में उपस्थित है.     यहां यह जान लेना जरूरी है कि भारतीय जनता पार्टी की यात्रा का आरंभ कहां से शुरू होता है. वैसे तो यह सबको पता है कि 6 अप्रेल 1980 को भाजपा का एक राजनीतिक पार्टी के रूप में गठन हुआ लेकिन भाजपा की रीति-नीति हिन्दुत्व की रही है और इसी आधार पर तब 1951 में हिंदू समर्थक समूह की राजनीतिक शाखा के रूप में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नींव डाला था. ध्येय था हिंदू संस्कृति के अनुसार भारत के पुनर्निर्माण की वकालत की और एक मजबूत एकीकृत राज्य के गठन का आह्वान...

गाँधी विचार का रास्ता

मनोज कुमार   रिश्तों में घुलती कड़वाहट और एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू समाज का डरावना चेहरा हम रोज़-ब-रोज़ देख रहे हैं. कहीं अपने गैर-कानूनी रिश्तेे के लिए पति को मारकर ड्रम  में भर देने का मामला हो या पति के फोन पर बात करने से रोकने पर कॉफी में ज़हर देने का. इधर पति भी कम जल्लाद नहीं है और इनके किस्से तो पुराने हो चुके हैं या पत्नी को काट कर गाड़ देना या फिर टुकड़े कर फ्रिज में भर देने की वारदात हम नहीं भूले हैं. तंदूर कांड तो याद में होगा ही और आज भी ऐसी घटनाएँ लगातार जारी है. पति-पत्नी ही क्यों, किसी बेटा माँ की जान ले रहा है तो कहीं माँ बेटे की जान ले रही है. पिता असुरक्षित है तो घर के बच्चे भी डर के साये में जीवन बसर कर रहे हैं. ऐसी ख़बरें ना केवल हमें चौंकाती हैं बल्कि डराती भी हैं. सवाल यह है कि हमारा समाज इतना असहिष्णु कैसे हो गया? हिंसा की इस प्रवृत्ति ने तमाम किस्म के नैतिक मूल्यों को ताक पर रख दिया है. आधुनिक जमाने के साथ चलने की हरसत ने रिश्तों को बेमानी कर दिया है. आखिऱ हम किस समाज का निर्माण कर रहे हैं?    कई बार इस बात पर भरोसा नहीं होता कि हम क्या सच...

मन बदलती कठपुतली को याद करने का समय

 21 मार्च विश्व कठपुलती दिवस पर विशेष मन बदलती कठपुतली को याद करने का समय प्रो. मनोज कुमार डोर में बंधी कठपुतली इशारों पर कभी नाचती, कभी गुस्सा करती और कभी खिलखिलाकर हमें सम्मोहित करती..यह यादें आज भी अनेक लोगों के जेहन में तरोताजा होंगी. कुछ यादें ऐसी होती है जो बचपन से लेकर उम्रदराज होने तक जिंदा रहती हैं और इसमें कठपुतली को दर्ज कर सकते हैं. कठपुतली उस समय हमारे साथ होती थी जब हमारे पास मनोरंजन का कोई साधन नहीं होता था. जेब में इतने पैसे भी नहीं होते थे कि शहरी बाबूओं की तरह थियेटर में जाकर मजे ले सकें. तब आप और हम मां और बापू के साथ कठपुतली नाच देखने चले जाते थे. समय बदला और कल तक मनोरंजन करती कठपुतली अब जनजागरूकता का अलख जगाने निकल पड़ी. सामाजिक रूढिय़ों के खिलाफ लोगों को चेताती तो समाज को संदेश देती कि अब हमें बदलना है. बदलाव की इस बयार में कठपुतली ने समाज को तो बदला और खुद भी बदल गई. नयी पीढ़ी को कठपुतली कला के बारे में बहुत कुछ नहीं मालूम होगा क्योंकि मोबाइल फोन पर थिरकती अंगुलियां नयी पीढ़ी को कठपुतली से दूर कर दिया है. हालांकि अभी भी कठपुतली का प्रभाव है लेकिन उसकी सिसकी स...