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नवंबर 26, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

rone ke liye hum nahi

विलाप नहीं, कीमत खुद तय करें -मनोज कुमार एक नौजवान पत्रकार साथी ने शोषण के संदर्भ में एक अखबार कह कर जिक्र किया है और संकेत के तौर पर साथ में एक टेबुलाइड अखबार देने की बात भी कही है। समझने वाले समझ गये होंगे और जो नहीं समझ पाए होंगे, वे गुणा-भाग लगा रहे होंगे। यहां पर मेरा कहना है कि एक तरफ तो आप शोषण की कहानी साथियों को बता सुना रहे हैं और दूसरी तरफ आपके मन में डर है कि अखबार का नाम बता देने से आपका भविष्य संकट में पड़ सकता है। आप नौजवान हैं और पत्रकारिता के चंद साल ही हुए हैं। अपने आरंभिक दिनों में यह डर मुझे कुछ ठीक सा नहीं लगता है। बोलते हैं तो बिंदास बोलिये वरना खामोशी ही बेहतर। पत्रकारिता में आने वाले हर साथी से हमारा आग्रह है और उन्हें सलाह भी कि पत्रकारिता में हम तो गंवाने ही आये हैं, कमाना होता तो इतनी काबिलियत है कि कहीं बाबू बन जाते और बैठकर सरकार को गालियां देते रहते। ये हमारी फितरत में नहीं है। इस तस्वीर को बदलने के लिये ही हम आए हैं। जहां तब बात शोषण की है तो सभी को यह समझ लेना चाहिए कि यह शोषण हमारी ट्रेनिंग की पहली सीढ़ी है। जब हम खुद शोषित होते हैं तो पता चलता है कि स