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जुलाई 25, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

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पत्रकारिता से पवित्र पेशा और कोई नहीं मनोज कुमार इन दिनों पत्रकारिता को लेकर काफी बहस हो रही है। बहस यदि पत्रकारिता के कार्य और व्यवहार की आलोचना को लेकर होती तो ठीक है बल्कि उसकी सीमा को लेकर हो रही है। वे लोग पत्रकारिता की सीमारेखा की बातंे कर रहे हैं जिन्होंने हर हमेशा अपनी सीमाएं लांघी हैं। इन दिनों पत्रकारिता की आलोचना शब्दों से नहीं, बल्कि उन पर हमला कर हो रही है जिसकी किसी भी स्थिति में निंदा होनी चाहिए। मेरा अपना मानना है कि पत्रकारिता संसार का सबसे पवित्र पेशा है और वह हमेशा से अपनी जवाबदारी निभाता आया है। मुझे व्यक्तिगत रूप् से दुख है कि हमारे लोग ही एक आवाज में अपने बारे में बात नहीं कर पा रहे हैं। ग्वालियर से साथी पंकज की बातों से मैं सहमत हूं। पंकज के लिखे के बहाने एक टिप्पणी में मैं कुछ अनुभवों को सुनाना चाहूंगा कि जो लोग अखबारों से शीर्ष पर पहुंच गये और आज उसी के बूते शीर्ष पर खड़े हैं किन्तु लगभग नफरत की दृष्टि भी बनाये हुए हैं। करेगा। पंकज बहुत सुंदर लिखा है। बधाई। मैं अपनी पत्रकारिता के आरंभिक दिनों से इसे संसार का सबसे पवित्र पेशा मानकर चला हूं। पत्रकारिता की आलोचना

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जननी हमें माफ कर देना मनोज कुमार भारतीय संस्कृति में स्त्री की तुलना आदिकाल से देवीस्वरूपा के रूप् में की जाती रही है किन्तु सुप्रीमकोर्ट की फटकार के बाद केन्द्र सरकार का एक नया चेहरा सामने आया है जिसमें उनका रवैया स्त्री के प्रति नकरात्मक ही नहीं, अपमानजनक है। यहां मैं उन शब्दों का उपयोग करने से परहेज करता हूं जो श्रेणी स्त्री के लिये केन्द्र सरकार ने तय की है। यह इसलिये नहीं कि इससे किसी का बचाव होता है बल्कि मैं यह मानकर चलता हूं कि बार बार इन स्तरहीन शब्दों के उपयोग से स्त्री की प्रतिष्ठा पर आघात पहुंचाने में मैं भी कहीं न कहीं शामिल हो जाऊंगा और मैं इस पाप से स्वयं को मुक्त रखना चाहता हूं। केन्द्र सरकार के इस रवैये से केवल स्त्री जाति की ही नहीं बल्कि समूचे भारतीय समाज का अपमान हुआ है। एक स्त्री मां होती है, बहन होती है, भाभी होती है, मांसी होती है और उसके रिश्ते नाना प्रकार के होते हैं जिसमें वह गंुथकर एक परिवार को आकार देती है। स्त्री गृहणी है तो उसका दायित्व और बढ़ जाता है। उसे पूरे परिवार को सम्हाल कर रखने की जवाबदारी होती है। कहना न होगा कि हर स्त्री यह जवाबदारी दबाव में नही