रविवार, 25 जुलाई 2010

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पत्रकारिता से पवित्र पेशा और कोई नहीं
मनोज कुमार
इन दिनों पत्रकारिता को लेकर काफी बहस हो रही है। बहस यदि पत्रकारिता के कार्य और व्यवहार की आलोचना को लेकर होती तो ठीक है बल्कि उसकी सीमा को लेकर हो रही है। वे लोग पत्रकारिता की सीमारेखा की बातंे कर रहे हैं जिन्होंने हर हमेशा अपनी सीमाएं लांघी हैं। इन दिनों पत्रकारिता की आलोचना शब्दों से नहीं, बल्कि उन पर हमला कर हो रही है जिसकी किसी भी स्थिति में निंदा होनी चाहिए। मेरा अपना मानना है कि पत्रकारिता संसार का सबसे पवित्र पेशा है और वह हमेशा से अपनी जवाबदारी निभाता आया है। मुझे व्यक्तिगत रूप् से दुख है कि हमारे लोग ही एक आवाज में अपने बारे में बात नहीं कर पा रहे हैं। ग्वालियर से साथी पंकज की बातों से मैं सहमत हूं। पंकज के लिखे के बहाने एक टिप्पणी में मैं कुछ अनुभवों को सुनाना चाहूंगा कि जो लोग अखबारों से शीर्ष पर पहुंच गये और आज उसी के बूते शीर्ष पर खड़े हैं किन्तु लगभग नफरत की दृष्टि भी बनाये हुए हैं। करेगा। पंकज बहुत सुंदर लिखा है। बधाई।

मैं अपनी पत्रकारिता के आरंभिक दिनों से इसे संसार का सबसे पवित्र पेशा मानकर चला हूं। पत्रकारिता की आलोचना आज और अभी नहीं हो रही है बल्कि यह पुरानी परम्परा है। साहित्य और आलोचना का जिस तरह का साथ है लगभग पत्रकारिता में भी वही परम्परा है किन्तु इन दिनों आलोचना के नाम पर हमले हो रहे हैं। शाब्दिक और शारीरिक। संभवतः पत्रकारिता ही एकमात्र ऐसा प्रोफेशन है जिसकी आलोचना करने की आजादी सर्वाधिक है। पत्रकारिता इन आलोचना को आत्मसात करता है। मीमांसा करता है और अपने आपको सुधरने का मौका देता है। अपनी गलती मानने में भी पत्रकारिता ने कभी गुरेज नहीं किया तो समाज के कोढ़ को सामने लाने में भी वह सबसे आगे रहा। शायद यही कारण है कि समाज हर पेशे की गलती को व्यवसायिक होने का लिबास पहना कर मुक्त कर देता है किन्तु पत्रकारिता को वह नहीं बख्शता है बल्कि वह गहरे से अपने विरोध दर्ज कराता है। समाज से यहां आशय उस आम आदमी से है जिसकी आशा और निराशा अखबारों से जुड़ी होती है। उसके लिये न्याय का मंच, बहरे कानों तक बात पहुंचाने का माध्यम अखबार ही हैं। ऐेसे में वह चाहता है कि पत्रकारिता और मजबूत हो।

रही बात फिल्म लम्हा में ऐश्वर्या के नाम का इस्तेमाल करने और अमिताभ के नााराज होने की तो यह उनका व्यवसायिक मामला है और इससे फिल्म को लोकप्रियता मिलती है और अमिताभ इतने नासमझ नहीं हैं िकवे ऐसे डायलाग पर ऐतराज करें वह भी तब जब ऐश्वर्या के बहाने मीडिया पर वार किया जा रहा है। एक तीर से दो निशाने लगा है एक तरफ ऐश्वर्या की लोकप्रियता दिखायी गयी है तो दूसरी तरफ मीडिया को ऐश्वर्या के करीब लाकर खड़ा कर दिया गया है। यह एक सुनियोजित ढंंग से मीडिया को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश है। मुझे तो इस बात की खुशी है कि अनुपम खेर जैसा सकरात्मक सोच का अभिनेता ऐसे छोटे डायलाग से अमिताभ से डर रहा है। साथी पंकज क ेलेख के प्रतिक्रियास्वरूप् किसी सज्जन ने रामकृष्ण परमहंस का उदाहरण दिया है। यह ठीक उदाहरण है और मेरी समझाइश है कि अनुपम खेर रामकृष्ण परमहंस के उदाहरण से कुछ सीख लें, फिर फिल्मों के जरिये आम आदमी को सिखाने और समझाने की कोशिश करें क्योंकि एक डरा हुआ व्यक्ति आम आदमी के डर को भला कैसे और किस तरह दूर करेंगे।

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जननी हमें माफ कर देना

मनोज कुमार

भारतीय संस्कृति में स्त्री की तुलना आदिकाल से देवीस्वरूपा के रूप् में की जाती रही है किन्तु सुप्रीमकोर्ट की फटकार के बाद केन्द्र सरकार का एक नया चेहरा सामने आया है जिसमें उनका रवैया स्त्री के प्रति नकरात्मक ही नहीं, अपमानजनक है। यहां मैं उन शब्दों का उपयोग करने से परहेज करता हूं जो श्रेणी स्त्री के लिये केन्द्र सरकार ने तय की है। यह इसलिये नहीं कि इससे किसी का बचाव होता है बल्कि मैं यह मानकर चलता हूं कि बार बार इन स्तरहीन शब्दों के उपयोग से स्त्री की प्रतिष्ठा पर आघात पहुंचाने में मैं भी कहीं न कहीं शामिल हो जाऊंगा और मैं इस पाप से स्वयं को मुक्त रखना चाहता हूं। केन्द्र सरकार के इस रवैये से केवल स्त्री जाति की ही नहीं बल्कि समूचे भारतीय समाज का अपमान हुआ है।
एक स्त्री मां होती है, बहन होती है, भाभी होती है, मांसी होती है और उसके रिश्ते नाना प्रकार के होते हैं जिसमें वह गंुथकर एक परिवार को आकार देती है। स्त्री गृहणी है तो उसका दायित्व और बढ़ जाता है। उसे पूरे परिवार को सम्हाल कर रखने की जवाबदारी होती है। कहना न होगा कि हर स्त्री यह जवाबदारी दबाव में नहीं बल्कि स्वयं के मन से लेती हैं। स्त्री को परिवार की प्रथम पाठशाला कहा गया है। आप और हम जब कल बच्चे थे तो मां रूपी स्त्री ने हमारे भीतर संस्कार डाले, जीवन का पाठ पढ़ाया, नैतिक और अनैतिक की समझ पैदा की और आज उसी स्त्री को हम ऐसे शब्द दे रहे हैं। मां रूपी इसी स्त्री ने हमें धन कमाने के गुण दिये, साहस दिया और वह समझ जिसमें किसी का नुकसान न हो और वही स्त्री आज हमारे लिये दया की पात्र बन गयी है, यह बात शायद किसी के समझ में न आये।
एक स्त्री जो रिश्ते में हमारी बहन होती है और हम भाई होने के नाते उसकी अस्मत की रक्षा की जवाबदारी लेते हैं। हर रक्षाबंधन पर वह हमारी कलाई पर राखी बांध कर हमारे उत्तरदायित्व का बोध कराती है, आज उसी स्त्री के लिये हमारे मन में यह कलुषित विचार कैसे आ सकते हैं। जिसकी जवाबदारी हमने ले रखी है, उससे हम कैसे फिर सकते हैं। मुझे लगता है िकइस बार रक्षाबंधन में हर बहन की आंखों में सवाल होगा कि क्या अब भी तुम मेरी रक्षा का वचन देते हो? हर भाई कहेगा हां लेकिन उसका मन आत्मग्लानि से भरा होगा।
एक स्त्री जिसे हम भाभी का संबोधन देते हैं, मां की अनुपस्थिति में वह मां की भूमिका में रहती है। क्या इन्हें हम ऐसा कुछ कहेंगे जिससे उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचे? क्या उस स्त्री को हम ऐसा कुछ कह पाएंगे जिसे हम मांसी कहते हैं अर्थात मां जैसी को? क्या हम उन सारे रिश्तों को कभी ऐसा कहने की सोच भी सकते हैं जिनके कहने पर हम हमारी नजरों में छोटा हो जाते हैं।
आखिर में। क्या हम उस स्त्री को कुछ ऐसा अप्रतिष्ठाजनक कह पाएंगे जिसे हमारी संस्कृति, हमारे वेद अर्धाग्नि कहते हैं। अर्धाग्नि का अर्थ पुरूष का आधा हिस्सा। सात फेरों में हम समाज के सामने वचन देते हैं कि एक-दूसरे के सुख और दुख में सहभागी होंगे, क्या उन्हें हम ऐसे हिकारत भरे शब्दों से नवाज सकते हैं? नहीं, कभी नहीं। सुप्रीमकोर्ट ने फटकार लगाकर स्त्री के आत्मसम्मान और उसकी अस्मिता को सम्मान देते हुए जो भूमिका अदा की है, उससे अदालत के प्रति समाज के मन में सम्मान का भाव बढ़ा है। हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में भी कोर्ट इसी तरह चिंता कर गलत कामों को निरूत्साहित करता रहेगा। फिलहाल, जो स्थितियां हैं, उसमें मैं और हम जननी से उनकी प्रतिष्ठा पर आयी आंच के लिये माफी मांगते हैं।

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