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अप्रैल 23, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जीवन की पाठशाला

मनोज कुमार किसी नन्हें शिशु के लिये मां ही उसकी पहली पाठशाला होती है और बाद के बढ़ते उम्र में अक्षर ज्ञान के लिये उसे स्कूल जाना होता है। इन दोनों शालाओं से लगभग हर व्यक्ति का साबका पड़ता है लेकिन जीवन की एक और पाठशाला होती है जहां सही अर्थों में जीवन को समझा जा सकता है। इस पाठशाला का नाम है अस्पताल। अपने सम्पर्क, रिश्तेदारी और कुछ मानव भाव से अक्सर मुझे अस्पताल की तरफ जाना होता है। इस बार काफी अरसा गुजर जाने के बाद अस्पताल जाने का मौका मिला था। अस्पताल में कोई आपका अपन भर्ती हो या आप किसी की देखरेख में गये हों, मन में एक तनाव सा होता है लेकिन इस बार बहुत कुछ ऐसा नहीं था। मेरे परिवार की बड़ी बिटिया ने एक शिशु को जन्म दिया था। रिश्ते में मैं नाना बन चुका था। सचमुच में मन को आल्हादित करने का सुखद अवसर था। सबकुछ ठीक होने की वजह से मैं रिलेक्स था और सोचा क्यों न अस्पताल का एक चक्कर लगा आऊं। पत्रकार एवं लेखक होने के नाते मन हमेशा से जिज्ञासु रहा है सो अस्पताल का चक्कर लगाते हुये भी मन कुछ सोच रहा था। तभी देखा कि एक आदमी दो लोगों के सहारे डाक्टर के कमरे की तरफ जा रहा है। किसी एक बिस्तर म