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जुलाई 29, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रेमचंद को पढ़ें ही नहीं, गढ़े भी

मनोज कुमार हम लोग ईश्वर,अल्लाह, गुरूनानक और ईसा मसीह को खूब मानते हैं लेकिन उनका कहा कभी नहीं मानते हैं बिलकुल वैसे ही जैसे ह म प्रेमचंद को पढक़र उनकी तारीफ करते अघाते नहीं लेकिन कभी उनके पात्रों को मदद करने की तरफ हमारे हाथ नहीं उठते हैं। प्रेमचंद पर बोलकर, लिखकर हम वाहवाही तो पा लेते हैं लेकिन कभी ऐसा कुछ नहीं करते कि उनका लिखा सार्थक हो सके। प्रेमचंद की जयंती पर विशेष आयोजन हो रहे हंै, उनका स्मरण किया जा रहा है। लाजिमी है कि उनके जन्म तारीख के आसपास ही ईद का पाक उत्सव भी मनाया जाता है। ईद को केन्द्र में रखकर गरीबी की एक ऐसी कथा प्रेमचंद ने ईदगाह शीर्षक से लिखी कि आज भी मन भर आता है।  सवाल यह है कि दशक बीत जाने के बाद भी हर परिवार उसी उत्साह से ईद मना पा रहा है। शायद नहीं, इस बात का गवाह है ईद के दिन अपनी गरीबी से तंग आकर एक युवक ने मौत को गले लगा लिया। उसे इस बात का रंज था कि वह ईद पर अपने दो बच्चों के लिये नये कपड़े नहीं सिला पाया। उन्हें ईदी भी नहीं दे पाया होगा। एक पिता के लिये यह शायद सबसे ज्यादा मुश्किल की घड़ी होती है। मरने वाला संवेदनशील था और उसे अपनी बेबसी का मलाल