मनोज कुमार जो मटका हमारे सूखे गले को अपने भीतर समाये ठंडे जल से तर करता रहा है। आज वही मटका आंसूओं में डूबा हुआ है। कोरोना ने मनुष्य को तो मुसीबत में डाला ही है। मटका भी इसका षिकार हो चुका है। बात कुछ अलग किसम की है। आपने कभी मटके से बात की हो तो आप समझ सकते हैं। आपने मटके का पानी तो बार बार पिया होगा लेकिन जिस स्नेह के साथ वह आपको अपने भीतर रखे जल से आपको राहत देता है, उसे कभी महसूस किया हो तो आपको मटके का दर्द पता चलेगा। मटका चिल्लाकर अपना दुख नहीं बता सकता है। वह अपने भीतर का दर्द भी नहीं दिखा सकता है। उसे आप निर्जीव मानकर चलते हैं। लेकिन सही मायने में वह भी आपको महसूस करता है। कोरोना के इस दबे आक्रमण के कारण मटका दरकिनार कर दिया गया है। मटका कह रहा है-भाई इस समय मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है। मैं किसी के पेट की आग नहीं बुझा सकता हूं, यह सच है। लेकिन यह भी सच है कि मैं मनुष्य के प्यास को बुझा सकता हूं। मेरी शक्ति को पहचानो। आज तक मैंने इसके सिवा किया क्या है? तपती सड़कों पर चलते मनुष्य को एक गिलास ठंडा पानी ही तो दिया है। कुछ लोग मुझे संवार कोई सौ-पांच सौ मीटर की दूरी पर
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