मनोज कुमार इस समय की पत्रकारिता को सम्पादक की कतई जरूरत नहीं है। यह सवाल कठिन है लेकिन मुश्किल नहीं। कठिन इसलिए कि बिना सम्पादक के प्रकाशनों का महत्व क्या और मुश्किल इसलिए नहीं क्योंकि आज जवाबदार सम्पादक की जरूरत ही नहीं बची है। सबकुछ लेखक पर टाल दो और खुद को बचा ले जाओ। इक्का-दुक्का अखबार और पत्रिकाओं को छोड़ दें तो लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में ‘‘ टेग लाइन ‘‘ होती है- ‘‘ यह लेखक के निजी विचार हैं। सम्पादक की सहमति अनिवार्य नहीं। ‘‘ इस टेग लाइन से यह बात तो साफ हो जाती है कि जो कुछ भी छप रहा है , वह सम्पादक की सहमति के बिना है। लेकिन छप रहा है तो सहमति किसकी है लेखक अपने लिखे की जवाबदारी से बच नहीं सकता लेकिन प्रकाषन की जवाबदारी किसकी है ? सम्पादक ने तो किनारा कर लिया और लेखक पर जवाबदारी डाल दी। ऐसे में यह प्रश्न उलझन भरा है और घूम-फिर कर बात का लब्बोलुआब इस बात पर है कि प्रकाशनों को अब सम्पादक की जरूरत ही नहीं है और जो परिस्थितियां हैं , वह इस बात की हामी भी है। इस ‘‘ टेग लाइन ‘‘ वाली पत्रकारिता से हम टेलीविजन की पत्रकारिता ...
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