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एक दिन की मां !

-मनोज कुमार बहुत सालों से और बहुत बार मां की एक कहानी सुनता आ रहा हूं। मां और उसका एक बेटा था। गरीब और विपन्न। पिता का साया उठ गया था। बेटे की चिंता करती मां को रात रात भर नींद नहीं आती थी। खुद भूखे रहकर बेटे को खाना खिलाती। दिन गुजरते गये। बेटा निकम्मा और आवारा हो गया था। मां को चिंता लगी रहती कि उसके मर जाने के बाद क्या होगा। दिन मां अपने निकम्मे और नाकारा बेटे को दुनियादारी समझाने बैठी तो बेटे को गुस्सा आ गया। गुस्से में फरसे से मां की गर्दन उड़ा दी। कटी गर्दन से आवाज आयी, बेटे तुम्हें चोट तो नहीं लगी? मां की यह सूरत हम भारत के हर गांव और घर में पाते हैं। इस दुलारी मां को बाजार ने प्रोडक्ट बना दिया है मदर्स डे के रूप में। जो मां अपनी कोख में नौ महीने हमें रखे और अंगुली पकड़कर दुनियादारी के लायक बनाये, उस मां के लिये हमारे पास बस एक दिन! सुन कर और सोचकर मन जख्मी हो जाता है। इस निगोड़े बाजार ने न केवल मां के लिये एक दिन तय किया है बल्कि हर रिश्तों के लिये उसके पास एक एक दिन है। बाजार चाहता है कि साल के तीन सौ पैंसठ दिन, दिन न रहकर उत्सव बन जाएं। इन उत्सवी दिनों के बह