बुधवार, 14 मार्च 2012

Aaj-Kal

इस परम्परा पर रोक लगे

मनोज कुमार

उत्तराखंड में कांग्रेस ने सरकार बनाने का दावा पेश किया और राज्यपाल ने उनके दावे पर भरोसा कर उन्हें सरकार बनाने का अवसर दिया। यह पूरी प्रक्रिया वैधानिक है और इस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती है सो नहीं हुयी। आपत्ति है तो इस बात की कि कांग्रेस ने बिना मुखिया तय किये ही सरकार बनाने का दावा कैसे ठोंक दिया। एक कांग्रेसी सांसद बहुगुणा को राज्य की कमान सौंप दी। बहुगुणा को कमान सौंपने पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती है किन्तु आपत्ति इस बात को लेकर है कि वे पहले से सांसद थे और उनके मुख्यमंत्री बनाये जाने से दो उपचुनाव राज्य की जनता के मत्थे मढ़ दिया गया है। पहले वे कानूनी तौर पर छह माह के भीतर विधायक का चुनाव लड़ेंगे। इसके लिये भी कांग्रेस के निर्वाचित विधायक को इस्तीफा देना होगा। इस तरह दो उपचुनाव का खर्चा जनता के मत्थे कांग्रेस ने अपनी कलह मिटाने के लिये थोप दिया है। इस सबके बाद भी यह कोई नहीं कह सकता कि बहुगुणा की सरकार स्थिर होगी और जिन कांग्रेसियों को असंतोष है, वे समस्या नहीं खड़ी करेंगे।

नेतृत्व का संकट कांग्रेस के समक्ष हमेशा से रहा है और इस संकट का समाधान वह अपने तरीके से निकालती रही है जैसा कि उसने इस बार किया। हालांकि यह संकट अब दूसरे राजनीतिक दलों के समक्ष भी हैं और वे भी कांग्रेस के रास्ते पर चल रही हैं। मध्यप्रदेश में ऐसा प्रयोग अनेक बार हो चुका है। २००३ से २००८ के चुनाव के बीच राज्य में तीन मुख्यमंत्री बदले गये जिसमें पहली दफा उमा भारती मुख्यमंत्री बनी और उन्हें पद छोड़ना पड़ा तो राज्य के एक मंत्री बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री बना दिया गया था किन्तु एक साल बाद जब गौर को कुर्सी छोड़नी पड़ी तो शिवराजसिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया गया। चौहान उस समय सांसद थे सो उत्तराखंड वाली कहानी दोहरायी गयी।

राजनीतिक दल अपनी सुविधा के लिये कोई भी फैसला लेने को आतुर रहते हैं और वे यह बात भूल जाते हैं कि उनके इन फैसलों से आम आदमी पर कितना बोझ पड़ता है। वर्तमान कानून में इस बात का कोई इंतजाम नहीं है कि वे राजनीतिक दलों को इस तरह के फैसले लेने से रोक सकें लिहाजा अपनी सुविधा और सत्ता के लिये ऐसे फैसले बार बार लिये जाते रहे हैं। जब हम चुनाव कानून में सुधार की बात करते हैं तो हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए। यह एक गंभीर मामला है और इस पर सभी राजनीतिक दलों को संजीदा रहने की जरूरत है। इसी तरह पराजय के भय से अनेक बार एक प्रत्याशी द्वारा दो दो विधानसभा अथवा लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ना, अपने निर्वाचन क्षेत्र से बाहर जाकर चुनाव लड़ना आदि-इत्यादि ऐसे मसले हैं जिस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

samagam seminar Jan 2025