रविवार, 29 नवंबर 2009

गैस त्रासदी

बरसी पर ही याद किये जाएंगेे गैस पीड़ित?
मनोज कुमार
पच्चीस साल पहले भोपाल को मिक गैस ने लील लिया था और इसी के साथ ही भोपाल में छिपी संवेदना का ज्वार उभर कर आया था। मदद करने के लिये हजारों हाथ आगे आये थे। तब किसी ने किसी का मजहब नहीं पूछा। तब सबके सामने एक ही सवाल था कि जिंदगी कैसे बचायें? समय गुजरता गया और संवेदनाओं का ज्वार उतरता गया। संवेदनाआंे का स्वर कहीं दब गया और उस पर राजनीति करने वाले भारी पड़ने लगे। गैस पीड़ितों की सेवा के नाम पर राजनीति होने लगी। थोड़ी निर्दयता के साथ ही सही, लेकिन पिछले पन्ने पलटें तो पाएंगे कि एक समय तो गैस पीड़ितों को देखने के लिये, उन्हें सहारा देने के लिये राजनीतिक दल भी आगे थे। समय गुजरने के साथ साथ सबने हाथ पीछे कर लिये। इस बरस अचानक गैस पीड़ितों का मामला गर्मा रहा है। दर्द का दरिया फिर बहने लगा है। यह अचानक इतनी चिंता क्यों? मीडिया भी एकाएक सक्रिय हो गया है। कहने वाले कह सकते हैं कि त्रासदी की उम्र पच्चीस साल होने के कारण एक बार फिर मामले को खंगाला जा रहा है लेकिन भोपाल के बरक्श देखें तो इस बार साथ साथ नगरीय निकायों के चुनाव होने हैं और कदाचित ये लोग ही अपने पार्षद और महापौर का फैसला करेंगे। चिंता की इस वजह को सिरे से नकारा नहीं जा सकता है।अच्छा होता कि गैस पीड़ितों की चिंता 2-3 दिसम्बर को न होकर उस समय तक चले जब तक कि उनके साथ न्याय न हो जाये। उन्हें इलाज मिले और जीने का हक। केवल बातों में ही चिंता उनकी तकलीफों को कम नहीं कर पायेगी।

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