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जुलाई 15, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अविश्वास की आंखें

मनोज कुमार अविश्वास की आंखें? जब मेरे दोस्त ने कहा तो सहसा मुझे यकिन ही नहीं हुआ। उल्टे मैं उससे सवाल करने लगा कि भाई झूठ के पांव नहीं होते हैं, यह तो सुना था। अविश्वास की आंखें, यह कौन सी नयी आफत है। इस पर दोस्त ने तपाक से कहा कि यह विकास की देन है। दूसरा सवाल और भी चौंकाने वाला था। समझ नहीं आ रहा था कि विकास की देन अविश्वास की आंखें? खैर, दोस्त तो अपनी पहेली छोडक़र चला गया था लेकिन एक पत्रकार एवं लेखक होने से भी ज्यादा एक बड़ी होती बिटिया के पापा की जिम्मेदारी ने इस पहेली के प्रति जिज्ञासा बढ़ा दी। मैं अपने आसपास तलाश करता रहा कि अचानक एक खबर ने मेरी चूलें हिला दी। दैनिक अखबार के किसी पन्नेद पर खबर छपी थी कि शहर के एक बड़े शॉपिंग मॉल में चोरी करते हुये दो युवक को कैमरे ने पकड़ा।  शॉपिंग मॉल, चोरी, कैमरा और जब्ती। अब मुझे अविश्वास की आंखों का अर्थ समझ आने लगा। दोस्त ने जिसे विकास की देन कहा था वह अविश्वास की आंखों और कोई नहीं कैमरा ही था। विकास के परवान चढ़ते नये नये टेक्रालॉजी के बारे में लिखना अच्छा लगता है। लिखता भी हूं लेकिन बड़े  शॉपिंग मॉल में प्रवेश करते ही मैं एक मामूल