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जुलाई 30, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

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मेरे अपने लोग मनोज कुमार तीस बरस एक लम्बा समय होता है। अनुभव की एक बड़ी लायब्रेरी होती है। एक ट्रेनी जर्नलिस्ट से संपादक बन जाने के सफर में अनेक नाम और अनाम लोगों का साथ मिला जो मुझे यहां तक पहुंचाने में मददगार रहे। इन सालों में मैंने हर डेस्क पर काम किया। पत्रकारिता के दिग्गजों में अनेक नाम हैं लेकिन इससे इतर उनकी तादात भी कम नहीं है जो संपादकीय विभाग के साथी तो नहीं थे लेकिन उनसे भी कमतर नहीं। इन सबको याद करते हुए मैं अपने पुराने दिनों में लौट जाना चाहता हूं। बहरहाल, इस बारे में बातंे तफसील से करता हूं। गुुजरे दो दशक में पत्रकारिता का चेहरा बदल गया है। टेक्नॉलाजी ने विस्तार पा लिया है। अब हेंड कम्पोजिंग का जमाना गया। फोरमेन भी नहीं रहे जो आपके हाथों के लिखे पन्नों को देखकर बता दें कि कितने कॉलम की खबर होगी। जब हेंड कम्पोजिंग अथवा नये दौर में प्रवेश करते फोटो कम्पोजिंग की बात करें तो कुछ यादें साथ चलती हैं। पत्रकारिता के मेरे आरंभिक दिनों में लीलू भइया नाम के फोरमेन देशबन्धु में हुआ करते थे। उन्हें गुस्सा शायद आता ही नहीं था। वे कई दिग्गजों के साथ काम कर चुके थे। मेरे और मेरे साथ उस दौ