REPORTER
हिन्दी पत्रकारिता पर एकाग्र, शोध एवं अध्ययन का मंच
बुधवार, 10 दिसंबर 2025
सोमवार, 8 दिसंबर 2025
ये आकाशवाणी का उज्जैन केन्द्र है...
प्रो. मनोज कुमार
ये आकाशवाणी का उज्जैन केन्द्र है... मैं डॉ. मोहन यादव बोल रहा हूँ.. यह उद्घोषणा सुनने में रूटीन सा लगता है लेकिन मध्यप्रदेश के लिए यह आवाज अहम है. जब देश भर में भारत सरकार आकाशवाणी केन्द्रों को समेट रही है तब उज्जैन में आकाशवाणी केन्द्र का आरंभ होना एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर गिना जाएगा. मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के अथक प्रयासों का सुपरिणाम है कि उज्जैन में आकाशवाणी केन्द्र को ना केवल मंजूरी मिली बल्कि अल्प समय में इसका प्रसारण शुरू हो गया. पूर्ववर्ती सरकारों से तुलना करें तो मध्यप्रदेश के कई आकाशवाणी केन्द्रों का आकार सीमित कर दिया गया है या बंद कर दिया गया है लेकिन इस पर कोई पहल नहीं की गई, तब मुख्यमंत्री डॉ. यादव की पहल ऐतिहासिक माना जाएगा. लगभग एक सप्ताह पश्चात जब डॉ. मोहन यादव के दो वर्ष के कार्यकाल की समीक्षा की जाएगी कि इन दो साल में प्रदेश की क्या उपलब्धि रही या क्या खोया तब ऐसे अनछुए कार्य उनके खाते में गिने जाएंगे. सामाजिक समरसता के साथ सामाजिक सद्भाव के साथ नवाचार के लिए मोहन सरकार ने स्वयं को रेखांकित किया है. कई मिथकों को तोड़ते हुए अनेक नए आयाम छूूने की कोशिश में डॉ. मोहन यादव आगे निकल गए हैं.
13 दिसम्बर, 2023 को जब डॉ. मोहन यादव ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो राजनीतिक विश£ेषकों के साथ स्वयं डॉ. यादव चौंक गए थे. वे कहते हैं कि उन्होंने कभी भी ऐसी बड़ी जवाबदारी के लिए खुद को तैयार नहीं किया था और ना ही उनकी अपेक्षा थी लेकिन जो कुछ होता है, वह भाग्य में लिखा होता है और इसे मंजूर भी करना पड़ता है. इसके बाद वे कहते हैं कि इससे आगे इस जिम्मेदारी के भरोसे को जितना सबसे बड़ी चुनौती होती है. बेशक, जैसी कामयाबी की उम्मीद उनसे हो, वह पूरी ना हो पायी हो लेकिन किसी भी मोर्चे पर वे असफल नहीं दिखते हैं. अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री की तरह उनके काम करने का तरीका और सोच अलग था. वे परम्परागत सोच से बाहर नवाचार पर जोर देते रहे. आज जब पूरी दुनिया एआई के नक्शे पर है, डिजीटली दुनिया हो चुकी है तो वे अपने मध्यप्रदेश को भी इसी के साथ चलाने की मंशा रखते हैं. उनके कार्यकाल का संभवत: पहला प्रयोग साइबर तहसील का था. देश में पहली बार यह प्रयोग किया गया और जो जिस तहसील में है, उसके कार्य वही निपटा दिए गए. राजधानी या मुख्यालय की गणेश परिक्रमा से मुक्त कर दिया गया. यही कार्य उन्होंने संपदा-2 में किया. जमीन-जायदाद के मामले घर बैठे निपटने लगे. रजिस्ट्री से नामांकन तक की प्रक्रिया सहजता से आम आदमी का होनेे लगा. कुछ तकनीकी दिक्कत शुरू में आती है, सो आयी लेकिन बाद के दिनों में सहजता से आम आदमी का काम होने लगा.
रघुकुलवंश की ‘प्राण जाए पर वचन ना जाए’ कि भाँति उन्होंने लाडली बहनों से किया गया वायदा पूरा किया. नियत तय तारीख पर उन्हें बढ़ी हुई स्वाभिमान राशि बहनों के खाते में 1500 रुपये ट्रांसफर कर उनका भरोसा जीत लिया. विपक्ष तो उन्हें कटघरे में कटघरे में खड़ा कर ही रहा था, अपने भी उनके खिलाफ हो चले थे लेकिन वे अपनी नियत योजनाओं को मूर्त रूप देने में लगे रहे. सबका साथ, सबका विकास के तर्ज पर उन्होंने दशकों से उदास रूठे सैकड़ों मजदूरों के जीवन में खुशी की दस्तक देने में वक्त नहीं गंवाया. हुकूमचंद कपड़ा मिल इंदौर के सैकड़ों मजदूर अपना अधिकार पाने के लिए परेशानहाल थे जिन्हें मोहन सरकार ने राहत दी. डॉ. मोहन के नेतृत्व वाली सरकार ने प्रदेश के सभी मिलों का परीक्षण किया जा रहा है ताकि मजदूर परिवारों को राहत मिल सके. यह भी शायद पहली-पहली बार हो रहा है क्योंकि उनके पूर्ववर्ती सरकारों ने ऐसा कुछ नहीं किया था. किसान, महिला, पिछड़ा, आदिवासी वर्गों के लिए नित नए कल्याणकारी योजनाओं का आगाज हो रहा है. यह अतिशयोक्ति नहीं है बल्कि हकीकतबयानी है जो बीते दो वर्ष में हुआ और हो रहा है.
मध्यप्रदेश शांति का टापू कहलाता है और इस पर एक बार फिर डॉ. मोहन यादव के नेतृत्व में मुहर लग गई है. स्मरण रहे कि उज्जैन नगर विकास के लिए अनेक धर्मस्थलों को हटाया जाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था लेकिन डॉ. मोहन यादव की सूझबूझ और समरसता के प्रयासों से यह कार्य भी सरलता से पूर्ण हो गया. यह संभवत: देश का पहला मसला रहा होगा जब बिना किसी हो-हल्ला यह काम पूर्ण हो गया. सनातनी परम्परा को एक नया आयाम देने के लिए डॉ. मोहन यादव ने प्रदेश के समस्त धर्मस्थलों को नवीन स्वरूप देने का प्रयास किया. इसी क्रम में मध्यप्रदेश में होने वाले प्रतिष्ठित सिंहस्थ के लिए लैंड पुलिंग एवं ममलेश्वर लोक निर्माण का प्रस्ताव सरकार ने किया था लेकिन विरोध के बाद सरकार ने पूरी सह्दयता के साथ दोनों ही प्रस्ताव को वापस कर लिया. सरकार को घेरने के इरादे से इसे बैकफुट पर जाना कहा गया लेकिन सत्यता है कि मुख्यमंत्री डॉ. मोहन सरकार का यह फैसला बेकअप देना था. वे कोई भी फैसला जनमानस के समर्थन के बिना नहीं लेते हैं और लैंड पुलिंग तथा ममलेश्वर के मामले को इसी संदर्भ में देखा और समझा जाना चाहिए. वे सीधी बात पर यकीन करते हैं और ऑन द स्पॉट फैसला लेते हैं. इसलिए उनके लिए कहा गया-नो बकवास, सीधी बात. अपराधों के खिलाफ उनका रूख निर्मम प्रशासक का है तो आम आदमी के साथ संवेदनशील होना डॉ. मोहन यादव का गुण है. दो वर्ष का कार्यकाल बहुत छोटा होता है, खासतौर पर मध्यप्रदेश जैसे बड़े भौगोलिक प्रदेश के लिए लेकिन देखा जाए तो अनेक फैसलों ने अमलीजामा पहन लिया और आने वाले समय में परिणाम देखने को मिलेगा. डॉ. मोहन यादव के लिए विपक्ष तो परेशानी का सबब है ही, अपनों का साथ भी नहीं मिल पा रहा है. बावजूद इसके महाकाल के बेटे डॉ. मोहन यादव नित नयी कामयाबी गढ़ रहे हैं. उन्होंने दशकों से स्थापित इस मिथक को चटका दिया है जिसमें कहा जाता था कि उज्जैन का राजा महाकाल है और कोई राजा उज्जैन में नहीं रूक सकता है. इस मिथक को दोहराने वाले भूल गए थे कि डॉ. मोहन यादव राजा नहीं, शासक नहीं अपितु महाकाल के बेटे हैं और महाकाल का उन पर आशीष है. नवीन मध्यप्रदेश से प्रवीण मध्यप्रदेश की ओर डॉ. मोहन सरकार की सवारी चल पड़ी है. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबंद्ध हैं)
मंगलवार, 2 दिसंबर 2025
विज्ञापन की ‘लक्ष्मण रेखा’
यह सच है कि दुनिया का पहला विज्ञापन वर्तमान मध्यप्रदेश के मंदसौर (तत्कालीन दशपुर) में पाया गया था, जो कि दशपुर अभिलेख है। यह गुप्त काल में 436-455 ईस्वी के आसपास संस्कृत में लिखा गया एक शिलालेख है। इस अभिलेख में रेशम बुनकरों के एक संघ के गुजरात से दशपुर आने और एक सूर्य मंदिर के निर्माण का वर्णन है, जिसे दुनिया के सबसे पुराने विज्ञापनों में से एक माना जाता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि देश का ह्दयप्रदेश मध्यप्रदेश के खातेे में दुनिया का पहला विज्ञापन करना भी है. समय के साथ विज्ञापन के तेवर और तासीर बदलता गया. हम यह मान सकते हैं कि विज्ञापन का मूल ध्येय समाज को सूचित करना होता है जैसा कि गुप्त काल में 436-455 निर्मित विज्ञापन के संदर्भ में भी उल्लेखित है कि इसका मुख्य उद्देश्य रेशम बुनकरों के संघ की उपलब्धि (एक सूर्य मंदिर का निर्माण) का प्रचार करना था। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि विज्ञापन का प्रथम गुण समाज को सूचित करना है. जिस गुप्तकाल के विज्ञापन की चर्चा हम कर रहे हैं और जिस काल में हम हैं, संचार साधनों की व्यापकता हो चुकी है. विज्ञापनों के इर्द-गिर्द हर पल-छिन कैद हो चुका है. आँख खुलने के साथ, बिस्तर में जाते तक विज्ञापन हमें बताता है कि क्या करना है और क्या नहीं करना है.
विज्ञापन का मनोविज्ञान यह भी कहता है कि एक ही उत्पाद को हर तरह से ऐसे प्रचारित करो कि उपभोक्ता उसे क्रय करने अथवा उपयोग करने के लिए विवश हो जाए. इसे अंग्रेजी में हैमरिंग भी कहते हैं अर्थात दिमाग में बार-बार जोर डालना. विज्ञापन तो कोई भी हो सकता है लेकिन विज्ञापन का निर्माण कैसे किया जाए? यहाँ विज्ञापन निर्माण कौशल की चुनौती होती है और इसमें सबसे जरूरी होता है कि विज्ञापन के लिए संवाद कैसे लिखें जाएं. इस संदर्भ में हाल ही में हमसे बिछुड़े पीयूष पांडे एक मानक गढ़ गए हैं. विज्ञापन लोगों के दिलों तक कैसे उतरे? पीयूष ने रोजमर्रा की जिंदगी से शब्द उठाये और उसे गढ़ा. जैसे चल मेरी लूना, क्या स्वाद है जिंदगी में, मिले सुर मेरा तुम्हारा, अबकी बार मोदी सरकार, दो बूंद जिंदगी की, एमपी गजब है, ठंडा मतलब कोका-कोला, बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर, हमारा बजाज, हर घर कुछ कहता है। विज्ञापनों मेंं उल्लेखित ये शब्द वो हैं जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में उपयोग में आते हैं और जब ये शब्द विज्ञापन के रूप में रेडियो, टेलीविजन और अखबारों के पन्ने पर उतरे तो लगा कि हमारी बात हो रही है. मन को मथने वाले शब्द ही बेजान वस्तुओं को भी जानदार बना देते हैं. यह कमाल पीयूष पांडे ने किया और वे सबको याद आए. याद करना होगा कि ‘वाशिंग पावडर निरमा’ भी ऐसा ही विज्ञापन है जो दशकों से लोग गुनगुना रहे हैं.
विज्ञापन के व्यवसायिक पक्ष के साथ उसके सामाजिक और नैतिक मूल्यों की बात करते हैं तो केनवास बड़ा हो जाता है. यूँ तो विज्ञापन का बेसिक कांसेप्ट उत्पाद का अधिकाधिक विक्रय करना होता है लेकिन सामाजिक और नैतिक मूल्य का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. नयी पीढ़ी को स्मरण नहीं होगा कि कोई चार दशक पहले मॉडल मधु सप्रे ने नंगे बदन सांप लपेटकर विज्ञापन किया था जिसकी भत्र्सना हुई. ऐसे और भी कई विज्ञापन हैं जिसे समाज ने नकार दिया. यह भारतीय समाज है और यहाँ वाशिंग पावडर निरमा या हमारा बजाज जैसा संवाद ही सफल हो पाता है. हमारे घरों में चींटियों से बचाव के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’ का उपयोग किया जाता है. हम सबको पता है कि माँ सीता की सुरक्षा के लिए लक्ष्मण ने जो रेखा बाँधी थी जिसे ‘लक्ष्मण रेखा’ कहा गया. इस पंक्ति को उत्पादक ने खूबसूरत ढंग से उपयोग किया और सालों से बिना विवाद ‘लक्ष्मण रेखा’ का विक्रय कर रहे हैं.
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की टीम ने कुछ ऐसे राजनीतिक विज्ञापन जारी किए जिसे आम मतदाता समझ ही नहीं पाया लेकिन 2014 में अबकी बार मोदी सरकार या चाय पर चर्चा सफलता का पैमाना बनी. कम्पनियाँ बारीकी से उपभोक्ता के व्यवहार को जाँचती है. कहा जाता है कि टूथपेस्ट की बिक्री बढ़ाने के लिए कंपनी ने पेस्ट का मुँह अपेक्षाकृत बड़ा कर दिया जिससे जो पेस्ट एक माह चलता था, उसकी खपत बढ़ गयी. अन्य उत्पादों में समय-समय पर यह तकनीक अपनाया जाता है.
बावजूद इसके यह भारतीय समाज है जो कितना भी आधुनिक हो जाए, वह अपनी जमीन नहीं छोड़ता है. रिसर्च जर्नल ‘समागम’ का यह अंक पीयूष पांडे को समर्पित है और उनके बहाने हम विज्ञापन के समाज का आकलन कर रहे हैं. विज्ञापन की दुनिया में जाने के लिए नयी पीढ़ी के पास बेशुमार अवसर है. और वह पीयूष पांडे के शब्द संयोजन को सीख ले तो आसमां और ऊँचा हो जाता है. विज्ञापन से सिर्फ उत्पाद नहीं बेचे जो बल्कि दिल का रिश्ता बनता है.
सोमवार, 1 दिसंबर 2025
#बहने से बिसराने तक की ‘गैस गाथा’
छायाचित्र वरिष्ठ छायाकार श्री प्रकाश हतवलने की फेसबुक वॉल से साभार
प्रो. मनोज कुमार
चालीस बरस पहले भोपाल की में ‘हवा में जहर’ घुल गया था. यह जहरीली हवा जिंदा बस्तियों में बहने लगी. इस जहरीली गैस को नाम दिया गया ‘मिक’ यानि मिथाइल आइसोसाइनेट और इसे गर्भाधारण किया था अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड ने. आँख, गला के जरिए शरीर के हर अंग में यह जहरीली हवा घुल गई. रात के घुप्प अँधेरे में घुली जहरीली गैस ने जैसे पूरी जिंदगी को जहरीला बना दिया. 2-3 दिसंबर की वह दरम्यानी भयावह रात जब एक-दूसरे को कुछ सूझ नहीं रहा था. आँखों के सामने अँधेरा, धडक़न रूक रही थी. जाड़े के दिनों में बिस्तरों में लुके-छिपे लोगों में अचानक बला की जान आ गई. एक शोर उठा पीछे से. भागो, जान बचाओ. गैस रिस गई है. जानलेवा गैस. पलक झपकते ही सैकड़ों लोग भागने लगे. एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते जान बचाने के लिए दौड़ पड़े. अपनी अपनी धडक़न बचाने की जद्दोजहद में रिश्ते बेमानी हो गए. कोई पिता को छोडक़र भाग रहा था तो कोई बच्चे को. माँ को खबर नहीं, बहू पीछे छूट गई. बचपन में हमनिवाला भाई-बहिन एक-दूसरे का हाथ छुड़ाकर खुद की जान बचाने में जुट गए थे. यह खौफनाक मंजर था उस रात की.
हवा में बहती जहरीली गैस के खिलाफ पुराने भोपाल ने दौड़ लगा दी थी. कोई जयप्रकाश नगर से भाग रहा था तो किसी की टोली टीलाजमालपुरा से थी. आसपास के सारे मोहल्लेदार हवा में जहरीली गैस के विपरीत दिशा में भाग रहे थे. जिसे जो साधन मिला, उसी के हो गए. कौन छूटा और कौन साथ चल पड़ा, यह पलटकर देखने की फुर्सत किसी को नहीं थी. खाँसते, आँखें मलते लोगों से सीहोर-रायसेन जाने वाली सडक़ बेतरतीब भीड़ से भर गई. यह शिकायत बेनामी होगी कि कोई किसी का नहीं रहा. सच तो यह है कि वह वक्त किसी का नहीं था. जो भाग सके, भाग गए, जो जान बचा सके, वो बचा ले गए. पीछे मौत का मंजर था. लाशों का अंबार था. दिल दहलाने देने वाला मंजर. आँखों का पानी तो कब का सूख चुका था. आँसू आए भी तो कैसे? कहा गया कि यह दुनिया की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना थी. इसके पहले शायद ही दुनिया में कहीं इस तरह मौत का मातम मनाया गया हो.
यह भोपाल की खासियत है कि दिन बेहतर है तो रोज झगड़ेंगे लेकिन विपदा है तो मदद के लिए हजारों हाथ बढ़ जाएंगे. उस दिन भी वही हुआ. पुराना भोपाल और उसके वाशिंदे जार-जार रो रहे थे. उनके आँसू पोंछने के लिए भोपाल के हर कोने से हजारों हाथ मदद के लिए उठ खड़े हुए. जिन्हें बचा सकते थे, बचा लिए. हस्पताल लाशों और बीमारों से पट गया था. जहाँ-तहाँ पड़े हुए थे. आज चालीस साल बाद भी उस मनहूस रात को याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. बहने से बिसराने तक की गैस गाथा में कई अहम पड़ाव हैं. थोड़ा पीछे पलटकर देखें तो लगेगा कि ‘गैस गाथा’ आगे पाठ, पीछे सपाट वाली कथा बनकर रह गई है. जिन इलाकों में गैस रिसी थी, वे बेबस थे, मजबूर थे. यूका के खिलाफ आवाज उठाना तो क्या अपनी मदद के लिए भी आवाज नहीं उठा पा रहे थे. दिसंबर की तारीख आगे बढऩे लगी. दर्द बेइंतहा था लेकिन इलाज मामूली. मरने वाले मर रहे थे, कुछ वहीं पर तो कुछ तिल-तिल कर लेकिन भोपाल की छाती को छलनी करने वाली यूका वैसे ही बेशर्म की तरह मुस्कराता हुआ खड़ा था. हादसा बेबसी का ना होता और कोई दुर्घटना किसी आमफहम शहर में होती तो यूका की बिल्डिंग और इतराते गेस्टहाऊस को जमींदोज कर दिया जाता, जैसा गुस्साई भीड़ अक्सर कर दिया करती है. सत्ता के गठजोड़ ने यूका को बचा लिया.
खैर, इसके बाद शुरू हुआ ‘राहत की गैस गाथा’. अंतरिम राहत के नाम पर छोटी-मोटी राशि लोगों को मरहम लगाने के नाम पर मिलने लगी. ‘गैस गाथा’ में प्रेमचंद की कहानी कफऩ अपने आपको दोहरा रहा था. ‘गैस गाथा’ में कफनचोरों की निकल पड़ी. बड़ी संख्या में बेनामी लोग खुद को कागज में गैस पीडि़त बताकर मुआवजा माँगने लगे. यहां भी ‘राहत की गैस गाथा’ में वही हुआ, जो होता आया है. पहले-पहल तो अपने अपने वोट बैंक पक्का करने के लिए बड़े राजनेता वहाँ पहुँच कर श्रद्धांजलि अर्पित करते थे. शोकसभा का आयोजन होता था और आहिस्ता आहिस्ता ‘राहत की गैस गाथा’ अब मुआवजे तक सिमट गया. इस ‘गैस गाथा’ में कई संवेदनशील और मानवीय प्रसंग भी सुनने और देखने को मिला. उस समय का एक कड़ुआ सच यह भी था कि गैस रिसी पुराने भोपाल में और अफवाह पहुँची भोपाल के कोने-कोने में. इसके बाद डर और जिंदगी बचाने की जद्दोजहद ने पूरा मंजर ही बदल दिया. उस समय के चश्मदीद बताते हैं कि इस अफवाह का शिकार एक नवविवाहित दंपति भी हुआ. पति बाथरूम में था और पत्नी उसका इंतजार में बैठी थी तभी ‘गैस गाथा’ के साथ पहुँची भीड़ ने उस नवविवाहिता को कहा कि अपनी जान बचाओ. वह कहने लगी, मेरे पति को आने दें लेकिन भीड़ ने नहीं सुना और उसे अपने साथ ले गई. कोई घंटा भर ना बीता होगा, अफवाह की धुँध छटी और वह वापस घर पहुँची. ‘गैस गाथा’ ने इस परिवार की खुशी को भी निगल लिया. आहत पति ने फरमान सुना दिया कि-जब वह चंद मिनट उसकी प्रतीक्षा नहीं कर सकती तो जीवन का साथ कैसे चलेगा. स्वाभाविक रूप से ‘गैस गाथा’ की अफवाह ने जिंदगी शुरू होने से पहले ही उसे मार दिया. ऐसे अनेक प्रसंग उस दरम्यान गुजरे.
‘गैस गाथा’ का सबसे अहम किरदार मेरी रिपोर्टिंग में सुनील राजपूत मिला. उसने बताया था कि इस हादसे में उसके परिवार के 11 जनों की मौत हुई थी. एक छोटे भाई और एक छोटी बहन के साथ वह बच गया था. ‘गैस गाथा’ के वक्त सुनील कोई नौ बरस का था. वह अमेरिका तक गवाही देने गया. पूरे परिवार की अंतरिम राहत के रूप में लाखों रुपये मिले. भोपाल से अमेरिका पहुँचते-पहुँचते तक 9 बरस का सुनील सयाना हो गया था. पैसों की चकाचौंध ने उसका बचपन छीन लिया था. वह चालाक हो गया था. साल-दर-साल उसका लालच बढ़ता गया. लालच में उसने अपनी छोटे भाई-बहिन को जलाने की कोशिश की. वह गलत सोहबत में भी पड़ गया था. हालाँकि समय गुजरने के साथ वह बदलने लगा. अपने छोटे-भाई बहिन को खुशहाल जिंदगी देने की कोशिश की. इस सब में वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठा था. ‘गैस गाथा’ में सेवा कर रही संस्था ने सुनील की सुध ली और एक दिन वह भी दुनिया को अलविदा कह गया. ऐसे अनेक प्रसंग है जो ‘गैस गाथा’ को और भी संवेदनशील बना देते हैं. ‘राहत की गैस गाथा’ का एक दुखद पहलू यह भी रहा कि अनेक लोग बेकार और बेकाम हो गए. साथ में बाजार की रंगत भी बदलने लगी. राहत राशि से सौदा-सुलह बढ़ गया.
इन सबके बीच ‘गैस गाथा’ का चालीसवां भी होने को आ गया. इन चालीस सालों में यक्ष प्रश्र की तरह यूका का कचरा पड़ा रहा. जहरीली गैस बहने से लेकर बिसराने तक विवादों का लंबा सिलसिला चल पड़ा. ‘गैस गाथा’ का यह डरावना पक्ष था कि जितनी तबाही जहरीली हवा ने की थी, उससे कहीं अधिक तबाही का डर इस जहरीले कचरे से था. सरकार, जनता और अदालत से होता हुआ ‘गैस गाथा’ को बिसराने का समय आ गया था. अदालती आदेश के बाद पीथमपुर में जहरीले कचरे कें निपटान के लिए सहमति बनी. इसे लेकर अनेक तरह की आशंकाएँ व्यक्त की गईं लेकिन परीक्षण और जाँच के बाद सर्तकता के साथ बिसरा दिया गया. ‘गैस गाथा’ का यह अहम पड़ाव था. कल तक भोपाल भयभीत था, अब पीथमपुर में ‘जहर का डर’ समा गया था. ‘गैस गाथा’ का चालीसवां होने के साथ फौरीतौर पर ‘एंड’ मान लिया जाए लेकिन ‘एंडरसन गाथा’ इतिहास के काले पन्ने में दर्ज है. ‘गैस गाथा’ ने झीलों के शहर को दर्द के ऐसे सैलाब में डुबो दिया है कि चालीस क्या, चार सौ साल बाद भी जख्म दुखते रहेंगे. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)
शुक्रवार, 28 नवंबर 2025
बुधवार, 26 नवंबर 2025
रविवार, 16 नवंबर 2025
प्रशांत किशोर कागज के फूल साबित
बिहार इलेक्शन में प्रशांत किशोर कागज के फूल साबित हुए हैं. चुनाव परिणाम के पहले वे कह रहे थे कि उनकी पार्टी जनसुराज को 135 सीट मिली तो यह उनकी बड़ी हार होगी. यानि वे डेढ़ सौ से पार सीट की उम्मीद लगाये बैठे थे लेकिन परिणाम में वे शून्य पर खड़े रहे. वैसे थोड़ा उन्नीसा-बीसा मान लें तो बिहार का चुनाव परिणाम बहुत ज्यादा चौंकाने वाला नहीं है. लगभग सब पहले से तय था. यह चुनाव मैनेजेंट का परिणाम है. यादा होगा कि कभी कांग्रेस के सीनियर लीडर दिग्विजयसिंह ने कहा था कि चुनाव मैनेजमेंट से जीते जाते हैं तो कोहराम मच गया था लेकिन बीते दो दशकों में चुनाव मैनेजमेंट से ही जीते जा रहे हैं. मैनेजमेंट की परिभाषा अनेक तरह से गढ़ा जा सकता है, वह भी अपने-अपने तरीके से लेकिन निष्कर्ष यही निकलता है कि चुनाव मैनेजमेंट से जीते जाते हैं. हालाँकि इस चुनाव में कभी अपने चुनाव मैनेजमेंट के लिए ख्यात रहे प्रशांत किशोर नेपथ्य में चले गए. कभी भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत दिलाने का दावा करने वाले प्रशांत किशोर का खाता भी नहीं खुला. प्रशांत किशोर का कहना था कि मुझे बिहार की सेवा करना है।’ शायद मतदाताओं ने पहले ही उनकी मन की बात पढ़ लिया था, सो उन्हें सादगी से सेवा करने के लिए शून्य पर ला खड़ा किया.
प्रशांत किशोर की पहचान चुनावी रणनीतिकार के रूप में रही है और उन्हें कामयाबी भी मिलती रही है. उन्हें यह लगने लगा था कि जितनी मेहनत मैं दूसरे राजनीतिक दलों के लिए करता हूँ, उतनी स्वयं के लिए करूं तो मेरा अपना दबदबा होगा. शायद इसी सोच के साथ पीके ने जनसुराज पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में कूद पड़े. सारी रणनीति और मंसूबे धरे रह गए. कहां तो सिकंदर बनने निकले और कहां. ये होता है और हुआ भी. हालाँकि इसका दुष्परिणाम महागठबंधन को भी भुगतना पड़ा क्योंकि उनके हिस्से का वोट बंट गया. महागठबंधन को विपक्ष में बैठना था, बैठेंगे लेकिन स्वयं पीके अपने लिए कोई ठौर नहीं बचा पाये.
प्रशांत किशोर के बारे में मेरी धारणा यही रही है कि वे चुनावी रणनीतिकार के रूप में कामयाब हैं लेकिन राजनेता के रूप में वे फेलुअर साबित होंगे. वे ना तो असम के प्रफुल्ल कुमार मोहंता बन पाए और ना दिल्ली के अरविंद केजरीवाल. पीके का मुकाबला ना तो ममता बेनर्जी से था और ना शरद पवार से. वे उम्मीदों से उपजे नेता थे. वे विद्यार्थी आंदोलन से निकले होते तो मोहंता की तरह विजयी होते और तो और किसी जनआंदोलन से भी बने होते तो केजरीवाल होते लेकिन वे कागज की नाव पर सवार थे. अब प्रशांत किशोर का नया आरोप है कि बिहार में एनडीए ने जो दस-दस हजार रुपये महिलाओं को बांटे, वो विश्व बैंक का पैसा है और केन्द्र सरकार ने इसमें मदद की है. थोड़ी देर के लिए पीके के आरोप को मान भी लें तो क्या वे बताएंगे कि चुनाव परिणाम से पहले उनका यह आरोप सामने क्यों नहीं आया? इसे कहते हैं खिसीयानी बिल्ली खंबा नोंचे. अब तो पांच साल के लिए उन्हें बाहर ही खड़ा रहना होगा. रणनीतिकार से राजनेता बनने की उनकी मंसूबा से उनकी नई नवेली पार्टी जनसुराज की नैया तो डूबती दिख रही है. अब उनकी कंपनी की साख पर भी आंच आ सकती है. कल तो जो राजनीतिक पार्टियां उनकी कंपनी को अवसर देती थीं, वह अब शायद ना मिले.
प्रशांत किशोर के इस हाल से अनायस कुमार विश्वास का स्मरण हो जाता है कि उन्हें भी लगता था कि आम आदमी पार्टी उनके दम पर ही खड़ी हुई है. दिल्ली में सरकार बनाने में सारा दारमोदार उनके कंधों पर था. पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल को हाशिये पर रखने की भरपूर कोशिश के बाद सफल नहीं होने पर कुमार विश्वास को मंच पर कविता पढऩे लौटना पड़ा. हालांकि उनके मन में राजनेता न बन पाने का ऐसा मलाल है कि हर कविता के पहले वे अपनों ने धोखा दिया का, राग जरूर अलपाते हैं. एक बार तो उन्हें लगा कि वे राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं और उनकी उम्मीद थी कि भाजपा उन्हें हाथोंहाथ लेगी. लेकिन वहां भी उन्हें निराशा मिली. ना आप ने राज्यसभा भेजा और ना भाजपा ने अपने खेमे में बुलाया. दरअसल राजनीति के मैदान में उतरना आसान है लेकिन स्वयं को बनाये रखना बहुत ही मुश्किल है. कुमार विश्वास और प्रशांत किशोर के पहले ऐसे दर्जनों लोग राजनीति में हाथ आजमा कर किनारा कर चुके हैं. आगे भी ऐेसे लोगोंं की भीड़ आएगी लेकिन राजनीति में उनका ही परचम फहरेगा जो सब छोडक़र, धक्के खाकर और उसी मेें रमे रहेंगे. राजनीति साधना और सर्मपण मांगती है. यह पार्टटाइम काम नहीं है बल्कि इसके लिए पैरों में छाले पड़ जाते हैं. कुछेक लोग होते हैं जो जहाज से उतर कर सफल हो जाते हैं लेकिन ऐसे थोड़े हैं. दिल्ली के बाद बिहार कुमार विश्वास और पीके के जरिए सिखाता है कि राजनीति की राह इतनी आसान नहीं. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)
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-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे। किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आस...
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शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक स्वाधीनता संग्राम और महात्मा गांधी पर केन्द्रीत है. ...
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-मनोज कुमार इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या मुद्रित माध्यमों का व्यवसायिकरण. इस बात में अब कोई दो राय नहीं है कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या मुद्रि...




