मंगलवार, 4 नवंबर 2025

जमीन लड़ाई और रणनीति से राजनीति का भेद

संदर्भ प्रफुल्ल कुमार महंत, ममता बेनर्जी 
और प्रशांत किशोर 

प्रो. मनोज कुमार

साल 2014 में जनआंदोलन से अरविंद केजरीवाल जैसे नेता का अभ्युदय हुआ और इसी क्रम में 2025 में प्रशांत किशोर भी बिहार में एक जननेता के रूप में स्वयं को स्थापित करने के प्रयास में जुटे हुए हैं. प्रशांत किशोर  कितना कामयाब हो पाते हैं या नहीं, यह तो भविष्य के गर्त में है लेकिन याद किया जाना चाहिए प्रफुल्ल कुमार महंत को जो छात्र राजनीति से असम की बागडोर सम्हाली थी. निश्चित रूप से नयी पीढ़ी को याद भी नहीं होगा कि कौन प्रफुल्ल कुमार महंत. बिहार विधानसभा चुनाव और प्रशांत किशोर के बहाने प्रफुल्ल कुमार महंत को याद करना जरूरी हो जाता है. याद तो ममता बेनर्जी को भी रखा जाना चाहिए जिन्होंने भारतीय राजनीति में एक इतिहास रच दिया. प्रफुल्ल कुमार महंत, ममता बेनर्जी और प्रशांत किशोर में फर्क इतना है कि वे जमीन लड़ाई लड़ कर राजनेता बने हैं और प्रशांत किशोर रणनीति से राजनीति में आए हैं.  

प्रफुल्ल कुमार महंत असम आंदोलन के नेता थे.  और असम गण परिषद (एजीपी) के सह-संस्थापक और पूर्व अध्यक्ष थे. महंत ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के पूर्व अध्यक्ष भी हैं, जिसने 1979 से 1985 तक असम आंदोलन का नेतृत्व किया था। अगस्त 2005 में, असम गण परिषद (अगप) में उनकी सदस्यता समाप्त कर दी गई। इसलिए, उन्होंने 15 सितंबर 2005 को एक नई राजनीतिक पार्टी, असम गण परिषद (प्रगतिशील) का गठन किया। छात्र जीवन के दौरान ही वे राजनीति में सक्रिय हो गए और 1979 में उन्हें राज्य के एक प्रभावशाली संगठन, अखिल असम छात्र संघ का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उसी वर्ष महंत ने बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों के खिलाफ एक आंदोलन शुरू किया जो 1985 तक चला। महंत के नेतृत्व में इस आंदोलन ने उन्हें एक छात्र संगठन के नेता से एक प्रभावशाली राजनेता बना दिया। अक्टूबर 1985 में असम गण परिषद के गठन में उनकी प्रमुख भूमिका थी और वे पार्टी के पहले अध्यक्ष चुने गए।

1985 से 1990 तक और फिर 1996 से 2001 तक असम के 11वें मुख्यमंत्री  रहे महंत पहली बार 1985 में नौगांव विधानसभा क्षेत्र से चुने गए थे। महंत अगली बार 1991 में बरहामपुर विधानसभा क्षेत्र से चुने गए। उन्होंने कांग्रेस के उम्मीदवार रमेश चंद्र फुकन को 17333 मतों से हराया। उन्होंने 1996, 2001, 2006, 2011 और 2016 में बरहामपुर का प्रतिनिधित्व किया । 4 सितम्बर 2010 को उन्हें पुन: सर्वसम्मति से असम विधान सभा में विपक्ष का नेता चुना गया । 21 अक्टूबर 2013 को, पूर्वोत्तर क्षेत्र के ग्यारह राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने क्षेत्र के लोगों के हितों की रक्षा के लिए एक नए राजनीतिक मोर्चे, उत्तर-पूर्वी क्षेत्रीय राजनीतिक मोर्चा के गठन हेतु बैठक की। महंत को इस मोर्चे का मुख्य सलाहकार नियुक्त किया गया।  2014 के लोकसभा चुनावों में कोई भी सीट न मिलने के बाद 14 जुलाई 2014 को उन्होंने असम गण परिषद के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया । 

महंत, मुख्यमंत्री बने तब देश के सबसे कम उम्र के व्यक्ति बने। हालाँकि, उनका पहला प्रशासन भ्रष्टाचार के आरोपों और यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ असम (राज्य में एक उग्रवादी अलगाववादी समूह) से जुड़ी बढ़ती हिंसा की समस्याओं से घिरा रहा। 1990 में नई दिल्ली के अधिकारियों ने एजीपी सरकार को बर्खास्त कर दिया और राज्य का प्रत्यक्ष शासन अपने हाथ में ले लिया । 1991 में पार्टी में विभाजन और अपने पहले प्रशासन में इसके प्रदर्शन से मतदाताओं के असंतोष के कारण 1991 के विधानसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन खराब रहा।

1996 के राज्य विधानसभा चुनावों में एजीपी के पुनरुत्थान के बाद, महंत दूसरी बार मुख्यमंत्री बने । उनका यह कार्यकाल बेहद विवादास्पद रहा, खासकर एक उग्रवाद-विरोधी रणनीति के खुलासे के बाद, जो कथित तौर पर महंत के निर्देशन में थी। जून 1997 में उल्फा ने महंत पर हमला किया, जिसके बाद पुलिस ने अधिकारियों के सामने आत्मसमर्पण कर चुके उल्फा कार्यकर्ताओं को सक्रिय उग्रवादियों के परिवार के सदस्यों की हत्या करने के लिए मजबूर किया। बाद में एक आधिकारिक आयोग ने इन हत्याओं की जाँच की और 2007 में यह निष्कर्ष निकाला कि महंत इस नीति के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार थे। अपने दूसरे प्रशासन के दौरान, महंत पर धोखाधड़ी वाले ऋण पत्रों से जुड़े एक भ्रष्टाचार घोटाले में शामिल होने का आरोप लगाया गया और असम के राज्यपाल के हस्तक्षेप के कारण ही वे अभियोजन से बच पाए। इसके बाद उन्हें अध्यक्ष पद से हटा दिया गया था। असम विधानसभा को सैकिया आयोग की रिपोर्ट में उल्फा सदस्यों के परिवारों के खिलाफ गुप्त हत्याओं के आरोपों का उल्लेख होने के बावजूद, महंत को राज्य के राजनीतिक नेतृत्व से दूर रखा गया। चंद्रमोहन पटवारी के अध्यक्षत्व काल में अगप (प्रगतिशील) के भंग होने के बाद, उन्हें अगप में पुन: शामिल किया गया और पार्टी में एक प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ। 2010 में एनडीटीवी साक्षात्कार में महंत ने कहा था-‘भारत की अखंडता और सुरक्षा की खातिर, हम कोई भी दोष स्वीकार करने को तैयार हैं। अगर विद्रोही समूह हमारी सेनाओं पर हमला करते हैं, तो उन्हें (सुरक्षा बलों को) जवाब देने का अधिकार होना चाहिए। हालाँकि, उल्फा समर्थकों की न्यायेतर हत्याओं का मुझ पर लगाया गया आरोप मेरी छवि खराब करने के लिए है।’

महंत दो बार असम के मुख्यमंत्री रहे और उम्र के लिहाज से उन्होंने राजनीति में एक नया मानक गढ़ा. असम के मुख्यमंत्री होने के बाद भी उनका देशव्यापी पहचान थी. इसी तरह ममता बेनर्जी का राजनीतिक कद भी वैसा ही है, जैसा महंत का. थोड़ा ममता बेनर्जी के बारे में जान लेना भी सामयिक होगा. ममता बेनर्जी आरंभ से जुझारू रही हैं. स्वाधीनता सेनानी पिता की बिटिया ममता ने सबसे पहले बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु से बलात्कार पीडि़त लडक़ी को न्याय दिलाने के लिए भिड़ गईं.  लेकिन पुलिस ने उन्हें  गिरफ्तार कर लिया और हिरासत में ले लिया। तब उन्होंने संकल्प लिया कि वह केवल मुख्यमंत्री के रूप में उस बिल्डिंग में फिर से प्रवेश करेंगे। इसके बाद से वे लगातार जनसंघर्ष करती रहीं. 1997 में अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की और दो बार रेल मंत्री बनीं। एनडीए और यूपीए दोनों के साथ गठजोड़ के बाद नंदीग्राम और सिंगूर आंदोलनों के दौरान बनर्जी की प्रमुखता और भी बढ़ गई। अंत में, वे 2011 में और 2016 में भी अधिक बहुमत के साथ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री चुनी गईं।

अपने आरंभिक दिनों में ममता  योगमाया देवी कॉलेज में अध्ययन के दौरान, उन्होंने कांग्रेस (आई) पार्टी की छात्र शाखा, छत्र परिषद यूनियंस की स्थापना की, जिसने समाजवादी एकता केन्द्र से संबद्ध अखिल भारतीय लोकतान्त्रिक छात्र संगठन को हराया। भारत (कम्युनिस्ट)। वह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस (आई) पार्टी में, पार्टी के भीतर और अन्य स्थानीय राजनीतिक संगठनों में विभिन्न पदों पर रही।

ममता बनर्जी 1984 में जाधवपुर से अपना पहला लोकसभा चुनाव जीतकर वे अपनी युवावस्था में कांग्रेस में शामिल हो गईं, उसी सीट को 1989 में उन्होंने खो दिया था और 1991 में फिर से जीत हासिल की। 2009 के आम चुनावों तक उन्होंने सीट को बरकरार रखा। उन्होंने 1997 में अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की और दो बार रेल मंत्री बनीं। ममता बनर्जी ने 1984 में जादवपुर में अनुभवी कम्युनिस्ट सोमनाथ चटर्जी को हराकर अपना पहला लोकसभा चुनाव जीता। कांग्रेस में रहते हुए, बनर्जी ने एचआरडी, युवा मामलों और खेल तथा महिला एवं बाल विकास मंत्रालयों में राज्य मंत्री के रूप में कार्य किया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद, ममता को राज्य में माओवादी खतरे से कुशलता से निपटने का श्रेय दिया जाता है।

महंत और ममता बेनर्जी जमीनी राजनीतिक लड़ाके रहे हैं और आज वे भारतीय राजनीति में अपना अलग मुकाम बनाये हुए हैं. प्रशांत किशोर रणनीतिकार से राजनीति में आए हैं. दूसरे दलों की जीत की रणनीति बनाते हुए उन्हें राजनीति की बारीकियों का ज्ञान होगा लेकिन वे इनकी तरह राजनीति मेें कितना कामयाब हो पाएंगे, यह कहना मुश्किल होगा. चूंकि उनका अपना एक कद है जिसकी वजह से मीडिया उन्हें तरजीह देता रहा है और इसका वे स्वयं की पार्टी के लिए कितनी कारगर रणनीति बना कर सफल हो पाते हैं, यह विधानसभा चुनाव परिणाम बताएगा.

सोमवार, 3 नवंबर 2025

बिहार में बहार है, पीके के क्या हाल हैं?





प्रो. मनोज कुमार

बिहार और नीतिश कुमार एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं. कुछ राजनीतिक समीक्षक अभी भी इस बात को लिख रहे हैं कि नीतिश बिहार के लिए अपरिहार्य हैं. इस समीक्षा के पीछे उनका क्या आधार है, वही जानें लेकिन बिहार की राजनीति में पी.के. यानि प्रशांत किशोर के मैदान में उतर आने से कई समीकरण बदले हैं और कई समीकरण गड़बड़ाते दिख रहे हैं. चुनाव परिणाम क्या होगा, इस बार कोई कह नहीं पा रहा है. तेजस्वी का और महागठबंध का जलवा कितना प्रभावकारी रहेगा या एनडीए अपना वर्चस्व रख पाएगी, यह अभी भविष्य के गर्त में है. फिलहाल बात प्रशांत किशोर के बारे में कि क्या वे बिहार की राजनीति मेंं धूमकेतु की तरह उभरेंगे या उनका आभा मंडल पर पूर्ण विराम लग जाएगा. हालांकि उनके मन में होगा कि कभी स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स से सीएम बनने वाले महंता या जनआंदोलन से उपजे केजरीवाल की तरह वे भी बिहार में धूमकेतु की तरह चमक सकते हैं. बिहार की राजनीति में अभी ना तो स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स का कोई हवा है और ना जनआंदोलन की भूमिका. कभी नीतिश को जिताने वाले पीके स्वयं इस समय आमने-सामने हैं. 

प्रशांत किशोर कौन हैं? क्या वे पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ हैं या राजनीति दलों को जीत दिलाने वाले एक कंपनी प्रमुख? क्या वे अरविंद केजरीवाल की तरह राजनीति में सिक्का जमा पाएंगे? ऐसे अनगिनत सवाल हैं जिसका जवाब बिहार का चुनाव परिणाम दे जाएगा. बिहार में वर्तमान विधानसभा चुनाव में उतरने के पहले प्रशांत किशोर एक राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में अलग-अलग दलों के चुनाव जीतने के लिए रणनीति तैयार करते रहे हैं. वर्ष 2014 में भाजपा और नरेन्द्र मोदी को जिताने में उनकी अहम भूमिका रही. 

साल 2013 में प्रशांत किशोर ने रॉबिन शर्मा और अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर ‘सिटिज़न्स फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस’ नामक एक मीडिया एवं जनसंपर्क संस्था की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था मई 2014 के आम चुनाव के लिए अभियान तैयार करना। उन्हें व्यापक पहचान तब मिली जब उन्होंने ‘सिटिज़न्स फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस’ नामक एक चुनावी अभियान समूह की स्थापना की, जिसने भारतीय जनता पार्टी को भारतीय आम चुनाव, 2014 में पूर्ण बहुमत से जीत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रशांत किशोर और उनकी टीम को नरेंद्र मोदी के लिए अभिनव विपणन और प्रचार अभियान तैयार करने का श्रेय दिया गया, जिनमें प्रमुख थे- चाय पर चर्चा कार्यक्रम, रैलियाँ, रन फॉर यूनिटी कार्यक्रम, मंथन और कई सोशल मीडिया अभियानों की संकल्पना। 

इसके पहले प्रशांत किशोर आठ वर्षों तक एक संयुक्त राष्ट्र समर्थित सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम में कार्यकरने के बाद भारतीय राजनीति में राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में कार्य किया। उन्होंने कई प्रमुख भारतीय राजनीतिक दलों के लिए रणनीतिकार के रूप में कार्य किया है, जिनमें बीजेपी, जेडीयू, कांग्रेस, आप, वाईएसआर कांग्रेस पार्टी, डीएमके और टीएमसी शामिल हैं।

किशोर ने भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) या गुजरात सरकार में किसी पद को स्वीकार किए बिना, वर्ष 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा की पूर्व-चुनावी रणनीति को लेकर एक प्रमुख राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में कार्य किया, और यह कार्य उन्होंने प्रो बोनो रूप में किया।

वर्ष 2015 में, उन्होंने नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली महागठबंधन को बिहार विधान सभा चुनाव 2015 में जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई। 16 सितंबर 2018 को जनता दल (यूनाइटेड) में उपाध्यक्ष के रूप में प्रशांत किशोर ने प्रवेश किया। चुनाव जीतने के बाद, नीतीश कुमार ने किशोर को ‘‘योजना एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन सलाहकार’’ नियुक्त किया, ताकि चुनाव पूर्व वादों—विशेषत: सात निश्चय योजना—को धरातल पर उतारा जा सके।

प्रशांत किशोर की को साल 2016 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, 2017 के लिए नियुक्त किया, लेकिन यह चुनाव प्रशांत किशोर की रणनीति  असफल रही और कांग्रेस मात्र 7 पर सिमट गई।   देशभर की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के साथ मिलकर सफलतापूर्वक चुनाव अभियान चलाए, जिनमें शामिल हैं: कैप्टन अमरिंदर सिंह के लिए पंजाब विधानसभा चुनाव, 2017, वाई. एस. जगनमोहन रेड्डी के लिए आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनाव 2019,  अरविंद केजरीवाल के लिए दिल्ली राज्य विधानसभा चुनाव, 2020,[30] ममता बनर्जी के लिए 2021 पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव और एम. के. स्टालिन के लिए तमिलनाडु विधानसभा चुनाव 2021। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस और डीएमके की जीत के बाद उन्होंने चुनावी रणनीतिकार के रूप में कार्य से संन्यास लेने की घोषणा कर दी। इसके करीब एक वर्ष बाद उन्होंने बिहार भर में 3,000 किलोमीटर की पदयात्रा की घोषणा की जिसका उद्देश्य था राज्य के अलग-अलग इलाकों में जाकर आम जनता से संवाद स्थापित करना। इस अभियान के तहत उन्होंने एक राजनीतिक दल के गठन का संकेत दिया, जो बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ेगा। 2 अक्टूबर 2024 को, उन्होंने ‘जन सुराज अभियान’ को एक औपचारिक राजनीतिक दल के रूप में घोषित किया, जिसका जन सुराज पार्टी रखा गया।

प्रशांत किशोर के लिए यक्ष प्रश्र यह है कि क्या वे बिहार की राजनीति में वैसी कामयाबी हासिल कर सकेंगे जो उन्होंंने एक रणनीतिकार के रूप में अन्य राजनीतिक दलों को दिलायी। उनके मन में यह विचार बना होगा कि कभी असम की राजनीति में स्टूडेंट्स मूवमेंट से दो बार मुख्यमंत्री रहे प्रफुल्ल कुमार महंता की तरह या जनआंदोलन से बने नेता  अरविंद केजरीवाल की तरह वे बिहार के विजेता बन सकते हैं. हालांकि इसके आसार कम ही हैं क्योंकि बिहार ना तो दिल्ली है और ना ही वर्तमान समय स्टूडेंट्स मूवमेंट का रहा। यह समय जेपी आंदोलन का भी नहीं है और वे स्वयं पॉलिटिशियन ना होकर रणनीतिकार रहे हैं. एक शिक्षक आईएएस बना सकता है लेकिन स्वयं आईएएस हो जाए, यह लगभग असंभव सी बात होती है. और यही बात प्रशांत किशोर पर लागू होता है. एक बात तय है कि ना तो वे महंता बन पाएंगे और ना ही केजरीवाल. वे राजनीतिक दलों के लिए कुशल रणनीतिकार हैं, अच्छे वक्ता हैं लेकिन बिहार की राजनीति में वे क्या चमत्कार कर पाएंगे, यह जानने के लिए बस कुछ समय शेष है.

बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

मैं मध्यप्रदेश हूँ... देश का ह्दयप्रदेश



प्रो. मनोज कुमार

मैं मध्यप्रदेश हूँ। हिन्दुस्तान का ह्दय प्रदेश। मेरी पहचान है  सतपुड़ा के घने जंगल, कल...कल कर बहती नर्मदा, ताप्ति, चंबल, बेतवा जैसी जीवनदायिनी नदियाँ मेरी पहचान है अकूत खनिज सम्पदा लौह, अयस्क, तांबा, जस्ता और हीरा। मैं एक प्रदेश ही नहीं हूँ... एक परम्परा हूँ। जी हाँ, सर्वधर्म और समभाव की परम्परा का प्रदेश। आज ही के दिन अर्थात एक नवम्बर को मेरा जन्म हुआ था। साल उन्नीस सौ छप्पन में जब मुझे मध्यप्रदेश का नाम मिला तब मैं भारत के सबसे बड़े भूभाग वाला प्रदेश हुआ करता था। झाबुआ से लेकर बस्तर तक मेरी धडक़न महसूस की जा सकती थी। सन् दो हजार तक मैं भारत देश का सबसे बड़ा भूभाग वाला प्रदेश था। इसी दिन मेरे जन्म के साथ मेरा विघटन भी हो गया। मुझसे अलग कर छत्तीसगढ़ को स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया। मैं देश का ह्दयप्रदेश हूँ सो इस अलगाव से दुखी नहीं हुआ बल्कि बड़े दिल का परिचय देकर मैंने स्वयं छत्तीसगढ़ राज्य बनाये जाने का मार्ग प्रशस्त किया।

उन्नहत्तर साल पहले जब मेरा जन्म हुआ था। साल 2025 में मेरा जो चेहरा-मोहरा है, वह साल 1956 में नहीं था। तब मैं आज की तरह सुडौल नहीं था। न ही मेरी विकास की कोई कहानी थी। मैं बिखरा बिखरा सा था। मेरा निर्माण विंध्य, मध्यभारत, भोपाल रियासत एवं महाकोशल को मिलाकर हुआ। स्वप्रदृष्टा पंडित रविशंकर शुक्ल के हाथों मेरा पहले-पहल लालन-पालन हुआ। पंडित शुक्ल ने मेरे लिये सपने बुने थे। नियति को यह मंजूर नहीं था। बहुत थोड़े समय अपना स्नेह देकर वे हमेशा-हमेशा के लिये मेरा साथ छोड़ कर पंचतत्व में विलन हो गये। मेरी सल्तन के पहले मुख्यमंत्री होने का गौरव पंडित रविशंकर शुक्ल के खाते में है। दिन पर दिन गुजरते गये। एक के बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे हाथों ने मुझे तराशा। मुझे संवारा। मैं आकार लेने लगा। उन्नीस सौ छप्पन से दो हजार पच्चीस तक मेरी विकास की गति थमी नहीं है।

इन सालों के सफर की कहानी रोचक है। रोमांचक है। कई कई मोड़ आये। मैंने कई शासकों को देखा है और परखा है। सबने अपनी अपनी दृष्टि और समझ से मेरे विकास की रूपरेखा तय की। राज किसी भी दल ने किया। मुख्यमंत्री कोई भी रहा। हर बार सत्ता सम्हालने वालों ने मेरे विकास के लिये रास्ता ढूंढ़ा। कहते हैं पानी अपना रास्ता स्वयं बना लेता है। बस मैं भी पानी की तरह बहता रहा। जब जहाँ जब अवसर मिला, मैंने अपने लिए विकास का रास्ता बना लिया। मेरी सल्तनत जिन हाथों ने सम्हाली उनमें सबसे कम एक दिन के मुख्यमंत्री के रूप में अर्जुनसिंह को भी याद किया जाएगा, तो पन्द्रह दिनों के लिये मुख्यमंत्री के रूप राजा नरेशचन्द्र का नाम भी इतिहास में दर्ज है। सर्वाधिक लम्बे समय तक मेरी सल्तनत सम्हालने वालों में मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराजसिंह चौहान पहले और दूसरे नंबर पर दिग्विजयसिंह रहे। वर्तमान में डॉ. मोहन यादव मुझे विकास की ऊँचाइयों तक पहुँचाने में लगे हैं। 

मेरी पहचान शांति के टापू के रूप में है। मेरी बच्चे (जनता) बेहद संयमित है। उसका संयम गजब का है। वे धर्म और जाति के नाम पर कभी फसाद नहीं करते। नर्मदा का जल उनकी रगो में है। इसलिए मुझे धर्मनिरपेक्ष, सर्वधर्म समभाव का प्रदेश भी कहा जाता है। कभी किसी की भावना आहत करना मेरे चरित्र में नहीं है। हाँ, मेरे साथ अन्याय हुआ तो उसका हिसाब चुकता भी कर दिया जाता है। सालों साल कांग्रेस ने मुझ पर राज किया। विकास के वायदे किए लेकिन वैसा नहीं हुआ, जैसा मेरे लिए कल्पना की गई थी। इसका रंज मुझे था। मेरे बारे में यह भी कहा जाता है कि रंज आ जाये तो रंजिश भी मेरी जनता निकाल लेती है। दो हजार तीन के राज्य विधानसभा चुनाव में उसने अपनी तकलीफों का बदला ले लिया। सत्ताधारी दल को बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसी के साथ मेरा समय बदलता है। सत्ता बदली तो शासक भी बदले। दो हजार तीन में मेरे सल्तन की पहली मुख्यमंत्री बनीं उमा भारती। इसके बाद मेरी सल्तनत के दूसरे वजीर बने बाबूलाल गौर। दो हजार पाँच में मेरा समय एकाएक बदल जाता है। यह वह समय है जब मेरे शिवराजसिंह चौहान मेरे नये मुखिया होते हैं। किसान का यह बेटा मेरी तकदीर लिखने आया था।जब मैं शिवराजसिंह की चर्चा करता हूँ, रोमांचित हो जाता हूँ। ऐसा अनुभव तो मैंने अपने जन्म के बाद कभी नहीं किया। बेहद सरल।शांत और सौम्य। उनके नेतृत्व में भाजपा सरकार के एक के बाद एक फैसले ने मेरे ऊपर लगे बीमार और पिछड़े होने के दाग को धो दिया।।।मैं विकास की कुलाँचे भरता एक आदर्श प्रदेश बन गया था। बीमारू प्रदेश से स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनने की राह पर चलने लगा।

इन उन्नहत्तर बरस में मैं अनुभवी  हो गया। संभावनाओं का प्रदेश बन गया हूँ। मेरा विकास एकाएक नहीं हुआ। एक सुनियोजित रणनीति बनायी गयी। विकास की संभावनाओं को तलाशा गया। विकास के बिन्दु तय किये गये। इस बात का खास खयाल रखा गया कौन पात्र है, कौन अपात्र है। रेवडिय़ां नहीं बांटी गयी। चिन्ह-चिन्ह कर अपनों को नहीं दिया गया विकास योजनाओं का ला।।योजनायें बनी आखिरी छोर पर बैठे आखिरी आदमी के लिये। सरकार उन तक चल कर गयी। उन्हें देखाभाला। उन्हें जानकारी देने के हर वो इंतजाम किया गया। कोशिश थी कि लाभ अधिकाधिक मिल सके। कहना ना होगा। आज मेरी जनता खुशहाल है। खुशहाली कागजों पर नहीं, वादों पर नहीं, भाषणों और बातों में नहीं। खुशी थी मेरे हर नागरिक के घर ऑंगन में। सच कहा जाए तो मैं महात्मा गांधी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अंतिम जन की कल्पना को, सोच को साकार कर रहा था। 

हर दिन, हर माह और हर बार, बार, बार मुझे रोमांचित कर जाता है। हर दिन मेरे लिये यादगार बन गया। एक उजास झाबुआ से मंडला तक छा गयी।नाउम्मीद चेहरे खिल उठे। विकास की गूँज को मेरे लोगों ने ही नहीं सुना। इसकी गूँज आस-पड़ोस के प्रदेशों में भी हुई। दलगत भाव शून्य हो गये और उमा भारती से बाबूलाल गौर और शिवराजसिंह से डॉ। मोहन यादव ने जैसे मेरे कण-कण में रंग भर दिया। हर योजनायें मेरे लिये आदर्श बन गयी।मैं तो अपने मुकाम की तरफ अपने तारणहार डॉ। मोहन यादव की अगुवाई में आगे बढ़ ही रहा था। देश के दूसरे प्रदेशों के लोग भी मेरे राज्य की योजनाओं को पाकर निहाल हो उठे थे। मुझे सुख का अहसास कई बार हुआ जब देश के विविध मंचों पर मेरी सराहना हुई। मेरी योजनाओं को लागू करने की दूसरे राज्यों को नसीहत मिली। मेरे अपने प्रदेश की योजना पूरे देश के लिये नजीर बन गयी। मैं देश के लिये ऐसा नजीर बन जाऊँगा, इसकी कल्पना भी नहीं की थी।

डॉ. मोहन यादव। बरसों इंतजार करने के बाद कोई आया है जो आम आदमी का मुख्यमंत्री है। जिसमें मुख्यमंत्री होने का रत्तीभर दंभ नहीं है। कल वह जैसा था। आज भी वैसा ही है।उसकी बोली बात में नकलीपन नहीं है। वह नेता है। राजनीति नहीं जानता। वह मुख्यमंत्री है। प्रदेश का विकास चाहता है। वह अपने लोगों को मुस्कराता हुआ देख। स्वयं मुस्करा जाता है। दूसरों की आँखों में आँसू देखकर। उसके आँखें भी भीग जाती है। उसकी चिंता के केन्द्र में है छोटे अबोध बच्चे। वह माँ और बहनें। जिन्होंने कभी दुनिया नहीं देखी। जिन्हें हर बार सब्जबाग दिखाया जाता रहा था, आज उनके लिये आधा नहीं।पूरा आसमां है। मेरे लोग कैसे खुशहाल हो गये हंै। यह बताने चला तो शायद समय थम सा जाय। एक के बाद एक योजनायें। हर वर्ग के लिये। गरीब किसान, आदिवासी, महिला, युवावर्ग।ऐसे कौन लोग नहीं हैं जिनके हित में सरकार ने पहल न की हो।खुशहाली की कुछ बानगी देखे बिना न आप यकीन करेंगे। न मुझे चैन आएगा।

एक समय था जब मुझ तक पहुँचने वाली सडक़ेें बदहाल हुआ करती थी। इन सडक़ों को लेकर किस्से कहानी भी कहे जाते थे। आज मेरी सूरत बदल रही है। सडक़ों पर गाडिय़ांँ फिसलती हुई अपनी मंजिल की ओर भाग रही हैं। इन फिसलती सडक़ों ने भी मेरे विकास को पँख दिया है। विदेशी पूँजी निवेशकों की क्या कहें, मेरे अपने लोग उद्योग-धंधे लगाने में डरते थे। आज सडक़ों के जरिये विकास की नयी इबारत लिखी जा रही है। विदेशी निवेशकों के लिये मध्यप्रदेश पहली पसंद हो रही है। डॉ. मोहन यादव सरकार की कार्यशैली से अभिभूत निवेशक साथ चलने को तैयार हैं। बीते वर्षों में जो करार हुए, जो इकरार हुए। वह एक इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा व्यापार और उद्योग जगत में।

मेरे विकास की बानगी देखना है तो चलो, मेरी भगिनी के आँगन से बात शुरू करते हैं। स्त्री को शक्तिवान और सामथ्र्यवान बनाने की बात नहीं। बरक्कत की कहानी गढ़ी गयी है। स्त्री आर्थिक रूप से सक्षम होगी। तभी सशक्त होगी। आर्थिक आजादी के लिये जरूरी है सत्ता में भागीदारी। पहली दफा मेरे सल्तनत में महिलाओं के लिये तैंतीस फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया। स्थानीय निकायों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की गयी। मेरे सरकार के इस पहल ने जैसे क्रांति की लौ जला दी। कहीं दबी। कहीं हताश स्त्री। मन में विश्वास का संचार हुआ। वह पूरी ताकत के साथ खड़ी हो गयी। यह स्त्री हमारे समय की लक्ष्मीबाई, अवंतिबाई और देवी अहिल्या हैं। शहर से लेकर गाँव गाँव में रहने वाली हर भगिनी अब स्वयं में ताकत है। स्वयं फैसला लेती हैं।

ताकत तो उस पिता को भी मिली है जिसकी कमर झुक जाती थी समय से पहले, जिसके पेशानी पर होता था सयानी बिटिया की चिंता। ब्याह कैसे करे, कहाँ से लाये दाम। पढऩे-पढ़ाने की बात तो दूर की कौड़ी थी। मेरे प्रदेश के पिता अब नहीं हो रहे हैं असमय बूढ़े। मिट गयी है उनकी पेशानी से चिंता की लकीरें। बिटिया जा रही है स्कूल, जा रही है कॉलेज। सरकार ने पिता की चिंता अपने पास रख ली है। पिता को कर दिया है चिंतामुक्त। ब्याह भी कराती है सरकार। बिटिया को नाम दिया लाडली लक्ष्मी। अब बिटिया जिस चौखट जाएगी। उस घर की लक्ष्मी कहलायेगी। पढ़ी-लिखी समझदार बहू। साथ में है सरकार की मदद से जुटाये हजारों रुपये। पिता भला क्यों करे चिंता। सरकार ने दी है बिटिया को मुस्कान। अब हर घर आंगन में खिलखिला उठी है लाडली की मुस्कान। बहनों को पुकारा गया लाडली बहना। छोटे-मोटे खर्च के लिए पिता-पति की बाँट जोहने वाली लाडली बहना अब खुद सक्षम हैं। उनके हाथ में खर्च करने डॉ. मोहन यादव पूरे 15सौ रुपये दे रही है। वे छोटा-मोटा काम कर इन पैसों से खुद का रोजगार भी खड़ा कर रही हैं। आत्मनिर्भर बनती बहनों को देखकर मेरे चेहरे पर खुशी दौड़ जाती है।  

मेरे अन्नदाता जैसे निराशा के सागर में डूब उतर रहे थे। उनके सामने घनघोर अंधेरा था। रोशनी की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी। उनकी निराशा। आशा में बदल गयी। उनका खोया विश्वास लौट आया। यह विश्वास। यह आस दिलायी सरकार ने। उनके हाथों को थाम लिया। उनके आँखों के आँसू पोंछ लिये। कर्जे से मुक्त कर दिया।नये कर्जे में ब्याज की रकम मामूली कर दी गयी। जब सरकार ने हाथ थामा। तब प्रकृति दयावान बन गयी। घनघोर बारिश में किसान के सारे दुख बह गये। ट्रेक्टर-ट्रॉली में लदी फसलों को देख, रोता किसान मुस्करा उठा। समर्थन मूल्य ने किसान की संदूक को भरा दिया। आने वाले मौसम की चिंता तो दूर हुई। अब वह एक बार फिर अन्नदाता कहलाने में गर्व करने लगा। 

मेरे अन्नदाता जब मुस्काने लगे। अब बारी थी मेरे धरतीपुत्रों की। जंगलों, कंदरओं में जीवन बसर करने वालों के नाम पर लोग बदल गये। नहीं बदली तो धरतीपुत्रों की जिंदगानी। इस बार न कोई वायदा। न कोई बात। उनके नाम पर बनती गयी योजनायें। पहुँच गयी एक बार सरकार उनके द्वार। खुल गये बंद किस्मत के ताले। जिन्होंने कभी नहीं देखा था रेल और न कभी देखा था बस। आज उनके बच्चे उडऩखटोले में बैठ कर जा रहे हैं सात समंदर पार। पढ़ रहे हैं दुनिया की किताब। बनकर लौट रहे हैं लाट साहब। इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट की पढ़ाई कर जी रहे हैं नईदुनिया की जिंदगी। जो रह गये घरों में, उनके घर हो गये रोशन। पानी और बिजली हो गया इंतजाम। सुविधाओं का मिल गया अंबार। एक नयी सुबह ने उनके जिंदगी में भर दी है रौशनी।

मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने मुझे और सशक्त बना दिया है। कानून तोडऩे वालों और प्रदेश में अशांति मचाने वालों को ठिकाने लगाने में पीछे नहीं रहे। पहली बार ऐसा हुआ-‘नो बकवास, सीधी बात’ की तर्ज पर ऑन द स्पॉट फैसला होने लगा। मैं हतप्रभ हूँ कि कभी मेरी जमीं पर ही एक-एक समस्या के लिए चक्कर लगाना पड़ता था, अब बकवास की जगह खत्म हो गई है। आपको याद दिला दूँ कि मेरे ही सल्तनत में बेकार हो चुके हजारों कामगारों को सालों से उनका हक नहीं मिला था। अपने ही पैसों के लिए परेशान थे। मामला इंदौर की हुकूमचंद मिल का था। मोहन सरकार ने एक झटके में उन्हें उनका हक दे दिया। यही नहीं, मेरा माथा गर्व से ऊँचा हो गया जब दूसरे अन्य मिलों में सालों से ठंडे बस्ते में पड़े मामलों को निपटाने की पहल की जाने लगी। 

धर्मनिरपेक्षता की जो मेरी पहचान है, वह आजतलक मह$फूज है। एक वाकया जरूर सुनाना चाहूँगा। बात उज्जैन की है। शहर के विकास के लिए कुछ व्यवस्थित करने का प्लान बना। समस्या आयी कि बरसों से स्थापित धर्मस्थल को कैसे हटाया जाए? और वो भी दर्जन भर से अधिक। लेकिन जो कुछ हुआ, वह पूरे हिन्दुस्तान के लिए मिसाल बन गया। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की सरपरस्ती में सभी लोगों ने आपसी चर्चा कर अपने अपने धर्मस्थल को शिफ्ट कर लिया। एक पत्ता तक नहीं खडक़ा। अद्भुत, अविस्मरणीय फैसला। मोहन सरकार का यह फैसला मुझे आश्वस्त करता है कि मैं सचमुच में हिन्दुस्तान का ह्दयप्रदेश हूँ।    

यह तो महज बानगी है मेरे विकास यात्रा की। विकास तो अभी शुरू ही हुआ है, अभी तो गाथा लिखा जाना शेष है। खुशियाँ, हँसी, मुस्कान और आत्मसम्मान से भरा हर नागरिक मेरा गर्व है। मैं आज अपने जन्मदिन पर इठला सकता हूँ। इतरा भी सकता हूँ। इतने लम्बे समय की प्रतीक्षा के बाद, मैं चल पड़ा हूँ एक नए  मध्यप्रदेश की डगर पर। तस्वीर साभार गूगल

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

खबर का मजा या मजे की खबर























प्रो. मनोज कुमार 

अखबार में खबर पढ़ते हुए लोगों की अक्सर टिप्पणी होती है खबर में मजा नहीं आया, सवाल यह है कि पाठक को मजे की खबर चाहिए या खबर में मजा? हालांकि इन दोनों के बीच एक बारीक सी लकीर होती है। सच तो यह है कि खबर न तो मजे की होती है और न खबर में मजा होता है। खबर सिर्फ खबर होती है लेकिन दुर्भाग्य से पाठक खबर में मजा तलाशने की जद्दोजहद कर रहा है। खबर में मजा की बात करेंगे तो सहसा यह आरोप भी मीडिया के माथे मढ़ दिया जाएगा क उसने ही खबर में मजा देने की शुरूआत की। बात आधी सच है। खबर को तो खबर की शक्ल में पेश किया गया किन्तु खबर में मजा ढूंढ़ लेने वालों की कमी नहीं दिखी और आहिस्ता आहिस्ता इसने एक बीमारी की सूरत अख्तियार कर ली। मीडिया को भी यह मजेदार लगने लगा और अब हर खबर मजा देने वाली बनने लगी खबर की भाषा को भी मजेदार बनाने की कोशिश की गयी। दो-तीन दशक पहल व्यापार पेज की साप्ताहिक समीक्षा में तेल फिसला और सोना चमका, चांद लुढ़की और मिर्च का रंग सुर्ख हुआ, जैसे शीर्षक लगाये जाते थे लेकिन बीत समय में ऐसे शीर्षक गंभीर खबरों में भी लगाये जाने लगे हैं। खबर तो खबर शीर्षक में भी पाठक को मजा आना चाहिए। राजा का बजा बाजा, मन मोहने मे विफल, प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री से दादा और कभी रेलमंत्री रहीं ममता बेनर्जी रेलमंत्री से दीदी बन जाती हैं। शीर्षकों की गंभीरता खबर की तासीर बताती थी लेकिन अब तुकबंदी वाले शीर्षक हर खबर को मजेदार बना देते हैं। जब शीर्षक मजेदार हो तो खबर क्यों न हो। खबरों में मजा अथवा मजे की खबर तलाश करने की प्रवृत्ति समूची पत्रकारिता के लिये खतरनाक है। खबर मनोरंजन नहीं है बल्कि एक सूचना का विस्तार है जिसमें गंभीरता और शालीनत की उम्मीद की जाती है। शालीन और गंभीर खबरें ही पाठकों को वास्तविक स्थिति से अवगत कराते हैं।

पत्रकारिता मजे की चीज नहीं है और न ही मजे के लिये पत्रकारिता की जाती है। पाठकों को अनायास या कहें कि सायस जिसे हम साजिश भी कह सकते हैं, के साथ यह बात दिया गया है कि खबरें पैसे लेकर लिखी जाती हैं। इस बात से भी इंकार नहीं है कि यह दौर पेडन्यूज का है। किन्तु क्या कोई बताएगा कि सोलह पन्ने के अखबार अथवा तकरीबन साठ से अधिक पन्नों की पत्रिका में कितना हिस्सा पेडन्यूज का होता है? पेडन्यूज की चर्चा करते समय हम यह भूल जाते हैं कि पेडन्यूज का भी एक पर्व होता है जिससे हमारा साबका ज्यादतर चुनावी उत्सव के दौरान होता है। बाकि के दिन लगभग सूखे ही गुजरते हैं। मुझे नहीं मालूम है कि किसी नेता को जिताने अथवा एक पन्ने पर पांच नेताओं को एक ही क्षेत्र से जिताने की खबर के पैसे कैसे मिल जाते हैं किन्तु मेरा अनुभव है कि सड़क, शिक्षा, पानी, स्वास्थ्य की खबरों के लिये किसी से एक टका नहीं मिले। अखबार या पत्रिकाओं के पन्नों पर इन्हीं खबरों की बहुलता होती है तो फिर किस आधार पर हम कहें कि पत्रकारिता बिकाऊ हो चली है।

पाठक खबरें इसलिये पढ़ता है कि उसे नवीन सूचनाओं के साथ विस्तार से जानकारी चाहिए। उसे समाचार विश्लेषण चाहिए। वह निष्पक्ष खबर चाहता है और जब वह कहता है कि खबर में मजा नहीं आया तो वह मिर्च-मसाले वाली खबर की उम्मीद नहीं करता बल्कि उसके मजे का अर्थ होता है एक अच्छी खबर। पाठक की इस अच्छी खबर की चाहत को हमने खबर में मजा को मान लिया है और उसी तरह की खबरें परोसने लगे हैं। न केवल खबरें परोसने लगे बल्कि उसके मन में पत्रकारिता को लेकर एक गलत धारणा भी बना दी ताकि वह एक अलग दुनिया में जिये। सही और पक्की खबर में भी उसे खोट नजर आये। खबरों को लेकर पाठकों को यह जताने का समय आ गया है कि उन्हें बतायें कि जिस खबर में उसे मजा नहीं आ रहा है, उस खबर को रचने में, गढ़ने में कितना वक्त लगता है, कितनी मेहनत लगती है। मेहनत की रोटी भले ही सूखी हो मन को तृप्त कर जाती है। तब मेहनतसे तैयार की गयी खबर भले ही मजे की न हो, पाठकों को संतोष दे जाएगी इसलिये जरूरी है कि हम पाठक को सिर्फ और सिर्फ खबर दें, मजा देने के लिये सिनेमा और टेलीविजन का पर्दा है ना। तस्वीर इंटरनेट से साभार

रविवार, 19 अक्टूबर 2025

ठंडे मिजाज का हमदर्द शहर भोपाल


मनोज कुमार
यायावरी के अपने मजे होते हैं और मजे के साथ साथ कुछ अनुभव भी. मेरा यकीन यायावरी पत्रकारिता में रहा है. यायावरी का अर्थ गाँव गाँव, देश देश घूूमना मात्र नहीं है बल्कि यायावरी अपने शहर में भी की जा सकती है. मेरा अपना भोपाल शहर. ठंडे मिजाज क हमदर्द शहर. एक मस्ती और रवानगी जिस शहर के तासीर में हो, उस शहर में जीने का मजा ही कुछ और होता है. बड़े तालाब में हिल्लोरे मारती लहरें किसी को दीवाना बनाने के लिए काफी है तो संगीत की सुर-लहरियों में खो जाने के लिए इसी तालाब के थोड़े करीब से बसा कला गृह भारत भवन रोज ब रोज आपको बुलाता है. सुस्त शहर की फब्तियां भी इस शहर पर लोग दागते रहे हैं. जिन्हें पटियों पर बैठकर शतरंज खेलने का सउर ना हो, वह क्या जाने इस सुस्ती की मस्ती. यह वही पटिया है जहाँ भोपाल की गलियों से लेकर अमेरिका तक की चरचा भोपाली कर डालते हैं. पटिये की राजनीति ने किन किन को बुलंदियों तक पहुँचा दिया, इसकी खबर तो इतिहास ही रखता है. मुख्यमंत्री कौन बनेगा, इससे किसी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है, परंतु चिंता सब रखते हैं कि इस बार मुख्यमंत्री की गद्दी पर कौन बैठेगा. मुख्यमंत्री की दौड़ में आगे-पीछे होते नेताओं को भी खबर नहीं होती है लेकिन पटियेबाजों को उनका पूरा इतिहास मालूम होता है. ऐसा है मेरा भोपाल.
मेरे भोपाल की बुनावट और बसाहट नवाबों ने की थी. वक्त के साथ नवाब फना हो गए. नवाब भले ही ना रहे लेकिन नवाबी तासीर भोपाल को दे गए. मेरा शहर भोपाल कभी जल्दबाजी में नहीं रहता है. सुकून की जिंदगी जीता है और भाईचारे के साथ यहाँ के लोग बसर करते हैं. गंगा-जमुनी संस्कृति इस शहर की तहजीब और पहचान है. पर ये क्या..मेरे भोपाल को किसी की नजर लग गयी है..वह भी महानगर बनने को बेताब नजर आने लगा है..भोपाल की तासीर बदलने लगी है..सुकून का मेरा भोपाल अब हड़बड़ी में रहता है..कभी घंटों की फिकर ना करने वाले भोपाली अब सेकंड का हिसाब रखने लगे हैं. खीर, सेंवई, घेवर और मीठे समोसे के साथ पोहे-जलेबी का स्वाद अब मुंह से उतरने लगा है. पिज्जा और बर्गर का चस्का भोपाल को लग गया है..मोटरसायकलों पर बैठे युवा को सेकंड में पिज्जा-बर्गर पहुँचाना है. 
यह जल्दबाजी महानगर की तासीर है. मेरा शहर भोपाल भी इस तरफ चल पड़ा है. को..खां..कहने वाले भी अब गुमनाम हो रहे हैं..हाय, हलो के चलन ने भोपालियों को मेट्रो सिटी का सिटीजन बना दिया है, लगभग रेंगते हुए भटसुअर सडक़ से बाहर हो गए हैं..तेज रफ्तार से दौड़ती महंगी बसों ने इन खाली हुए सडक़ों पर कब्जा जमा लिया है. हवाओं से बात करते ये मोटरों ने भोपाल की सुस्ती को हवा कर दिया है...नफासत के इस शहर में अब दुआ-सलाम भी जल्दबाजी में होने लगा है. कभी तफसील से हाल जानने और समझने में वक्त की परवाह किए बिना लोग बात-बात में हाथ में बँधी घड़ी या फिर मोबाइल को चैक कर लेते हैं. 
कोइ तीस-पैंतीस बरस पहले जब मैं भोपाल आया था. तब यह शहर दो हिस्सों में बंटा था. पुराना भोपाल और नया भोपाल. बैरागढ़ की पहचान भोपाल के उपनगर के तौर पर था तो सही, लेकिन उसे भी पुराने भोपाल का हिस्सा मान लिया जाता था. अब तो कई उपनगर बन गए हैं. कोलार की अपनी पहचान बन गई है तो बागमुगालिया भी नए चेहरे के साथ दिख रहा है.. नए भोपाल के पास नम्बरों के मोहल्ले थे. मसलन, दो नम्बर स्टाप से शुरू होते हुए पाँच, छह, साढ़े छह, सात, दस, ग्यारह और बारह नम्बर तक था. अब भोपाल पसर रहा है. एक समय था भोपाल के एक छोर से दूसरे छोर जाने में ज्यादा से ज्यादा घंटे का वक्त लगता था, अब भोपाल के एक छोर से दूसरे छोर पहुँचने के लिए आपको लगभग आधा दिन का वक्त लग जाएगा. जयप्रकाश अस्पताल से बागमुगालिया जाना चाहें तो कम से कम दो घंटे का वक्त लगेगा. कई बार बढ़ती भीड़ के कारण यह समय और भी अधिक हो सकता है. ऐसा ही दूसरे और फैल गए इलाकों के लिए भी है. एमपी नगर में शाम को फंस गए तो आपके दो-एक घंटे कब गुजर जाएंगे, पता ही नहीं चलेगा. यातायात में फंसे लोग इतने लंबे वक्त में अपनों से सुकून से बात कर लें, यह भी नहीं होता है. कुढ़ते, झल्लाते समय गंवा देते हैं. यह नए भोपाल की सूरत बन रही है. 
मेट्रो सिटी की इस नयी सूरत ने मेरे भोपाल के मायने ही बदल दिए हैं. कभी अपने जर्दा, पर्दा और मर्दा के लिए मशहूर भोपाल की जरदोजी दुनिया में ख्यात थी लेकिन एंडरसन ने ऐसे घाव दिए कि अब भोपाल गैस त्रासदी के लिए अपनी साख रखता है. चालीस बरस पहले रिसी गैस से जो घाव मिले, वह आज भी रिस रहे हैं और जाने आगे कब तक रिसता रहेगा, कोई कह नहीं सकता. दुनिया भर से लोग मरहम लगाने के नाम पर आते हैं और जख्म कुरेद कर चले जाते हैं. यह हकीकत है, इससे आप इंकार नहीं कर सकते. इंकार तो इस बात से भी आप नहीं कर सकते कि इस गैस ने जिनके घर उजाड़े, वे तो दुबारा बस नहीं पाये लेकिन इस उजड़े हुए घरों की मिट्टी ने कई नए इमारतों की बुनियाद डाल दी. इस सच से उस दौर के आफिसर इत्तेफाक रखते हैं और बड़े मजे में फरमाते हैं-चलो, कुछ बातें करते हैं बनारस की. भूल जाइए उस गैस त्रासदी को. इस बयान से भी मेरा शहर तपता नहीं है. उसे खबर है कि जख्म देने वाले वही हैं तो उनसे दवा की क्या उम्मीद करें. 
मेरा भोपाल महानगर बन रहा है तो उसकी तासीर भी महानगर की होनी चाहिए. कभी पर्दानशी शहर कहलाने वाले मेरे भोपाल में अब पर्दा के लिए कोई जगह नहीं बची है, ऐसा लगने लगा है. खासतौर पर नए शहर के युवाओं का मिजाज तो यही बयान करता है. झील के आसपास कहीं एक-दूसरे के आगोश में गिरफ्त युवक-युवतियां तो कहीं मर्यादा को तार तार करते होठों का सरेराह रसपान करते युवा. जिस्मानी भूख अब कमरे से बाहर निकल कर सडक़ों पर दिख रही है. कुछ कहना बेकार और बेमतलब होगा क्योंकि ये नए मिजाज का शहर है. इस जवानी को और ताप देने के लिए कुछ और करने की जरूरत होती है. नशा न हो तो नशेमन की बात भी अधूरी रह जाती है. मेरे भोपाल में शराब का चलन नया नहीं है लेकिन इन दिनों नई रीत चल पड़ी है..हैरान हूं इस बात से कि देखते ही देखते शराबों की दुकानों की तादाद एकदम से बढ़ गई. हैरानी तो इस बात की है कि जिन्हें बेचने के लिए मुकम्मल ठिकाना नहीं मिला तो टेंट लगाकर अपना ठिकाना तय कर लिया..किसी ने चार पहिया गाड़ी को ही इसका पता बता दिया..जिस्म की नुमाईश और शराब के नए-नए ठिकाने.. और क्या चाहिए एक मेट्रोसिटी को..
अदब के मेरे शहर भोपाल में अभी रौनक बाकी है..झीलों का जिक्र होता है तो मेरे भोपाल का नाम छूटता नहीं और हरियाली की बात आती है तो मेरा भोपाल किसी से कमतर नहीं..विकास के इस दौड़ में भी मेरे भोपाल की हरियाली ने भी दम तोड़ा है लेकिन मरा नहीं है..लोगों में अपने शहर को लेकर जज्बा कायम है. बड़ी झील की सफाई का मसला सामने आया तो क्या अमीर और क्या गरीब..सब जुट गए थे श्रमदान के लिए.. देखते ही देखते बड़ी झील की तस्वीर बदल डाली..गाद ने झील को सिमटने के लिए मजबूर किया था तो भोपालियों के जज्बे ने गाद को बाहर का रास्ता दिखा दिया..विकास के नाम पर हजारों हजार पेड़ों को काटने की जुगत को शहर के लोगों ने नाकामयाब कर दिया..भरी गर्मी में शाम होते ही भोपाल ठंडा होने लगता है...लहरों से खेलना हो तो भोपाल की बड़ी झील में जरूर आएं..हर गम..हर दर्द..यकीनन आप भूल जाएंगे..मीठी यादें साथ लेकर जाएंगे..मेरा भोपाल बदल रहा है..लेकिन उम्मीद बदली नहीं है..आज भी बदलाव के इस दौर में भोपाली बटुआ से खूबसूरत कोई तोहफा नहीं होता है..इस खूबसूरत शहर को भले ही हम नए मिजाज के शहर के तौर पर देखने की कोशिश करें लेकिन देखना होगा आपको उसी झीरी से जहां कभी भोपाल था और हमेशा रहेगा..(यह आलेख 10 वर्ष पहले लिखा गया था)

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2025

शिक्षा और दीक्षा















मनोज कुमार 

    हमारे पड़ोसी शर्माजी इस बात से प्रसन्न थे कि उनका बेटा शिक्षित हो गया. शिक्षित अर्थात उसने बीई की डिग्री हासिल कर ली. बेटे के स्नातक हो जाने की खुशी उनके चेहरे पर टपक रही थी. यह अस्वाभाविक भी नहीं है. एक डिग्री हासिल करने के लिए कई किसम के जतन करने पड़ते हैं. अपनी जरूरतों और खुशी को आले में रखकर बच्चों की शिक्षा पर खर्च किया जाता है. और बच्चा जब सफलतापूर्वक डिग्री हासिल कर ले तो गर्व से सीना तन जाता है. उनके जाने के बाद एक पुराना सवाल भी मेरे सामने आ खड़ा हुआ कि क्या डिग्री हासिल कर लेना ही शिक्षा है? क्या डिग्री के बूते एक ठीकठाक नौकरी हासिल कर लेना ही शिक्षा है? मन के किसी कोने से आवाज आयी ये हो सकता है लेकिन यह पूरा नहीं है. फिर मैं ये सोचने लगा कि बोलचाल में हम शिक्षा-दीक्षा की बात करते हैं तो ये शिक्षा-दीक्षा क्या है? शिक्षा के साथ दीक्षा शब्द महज औपचारिकता के लिए जुड़ा हुआ है या इसका कोई अर्थ और भी है. अब यह सवाल शर्माजी के बेटे की डिग्री से मेरे लिए बड़ा हो गया. मैं शिक्षा-दीक्षा के गूढ़ अर्थ को समझने के लिए पहले स्वयं को तैयार करने लगा.

    एक पत्रकार होने के नाते क्यों पहले मन में आता है. इस क्यों को आधार बनाकर जब शिक्षा-दीक्षा का अर्थ तलाशने लगा तो पहला शिक्षा-दीक्षा का संबंध विच्छेद किया. शिक्षा अर्थात अक्षर ज्ञान. वह सबकुछ जो लिखा हो उसे हम पढ़ सकें. एक शिक्षित मनुष्य के संदर्भ में हम यही समझते हैं. शिक्षा को एक तंत्र चलाता है इसलिए शिक्षा नि:शुल्क नहीं होती है. विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा हासिल करने के लिए हमें उसका मूल्य चुकाना होता है. इस मूल्य को तंत्र ने शब्द दिया शिक्षण शुल्क. यानि आप शिक्षित हो रहे हैं, डिग्री हासिल कर रहे हैं और समाज में आपकी पहचान इस डिग्री के बाद अलहदा हो जाएगी. आप डॉक्टर, इंजीनियर, पत्रकार और शिक्षा जैसे अनेक पदों से सुशोभित होते हैं. चूंकि आपकी शिक्षा मूल्य चुकाने के एवज में हुई है तो आपकी प्राथमिकता भी होगी कि आप चुकाये गए मूल्य की वापसी चाहें तो आप अपनी डिग्री के अनुरूप नौकरी की तलाश करेंगे. एक अच्छी नौकरी की प्राप्ति आपकी डिग्री को ना केवल सार्थक करेगी बल्कि वह दूसरों को प्रेरणा देगी कि आप भी शिक्षित हों. यहां एक बात मेरे समझ में यह आयी कि शिक्षित होने का अर्थ रोजगार पाना मात्र है.

    अब दूसरा शब्द दीक्षा है. दीक्षा शब्द आपको उस काल का स्मरण कराता है जब डिग्री का कोई चलन नहीं था. शिक्षित होने की कोई शर्त या बाध्यता नहीं थी. दीक्षा के उपरांत नौकरी की कोई शर्त नहीं थी. दीक्षित करने वाले गुरु कहलाते थे. दीक्षा भी नि:शुल्क नहीं होती थी लेकिन दीक्षा का कोई बंधा हुआ शुल्क नहीं हुआ करता था. यह गुरु पर निर्भर करता था कि दीक्षित शिष्य से वह क्या मांगे अथवा नहीं मांगे या भविष्य में दीक्षित शिष्य के अपने कार्यों में निपुण होने के बाद वह पूरे जीवन में कभी भी, कुछ भी मांग सकता था. यह दीक्षा राशि से नहीं, भाव से बंधा हुआ था. दीक्षा का अर्थ विद्यार्थी को संस्कारित करना था. विद्यालय-विश्वविद्यालय के स्थान पर गुरुकुल हुआ करते थे और यहां राजा और रंक दोनों की संतान समान रूप से दीक्षित किये जाते थे. दीक्षा के उपरांत रोजगार तलाश करने के स्थान पर विद्यार्थियों को स्वरोजगार के संस्कार दिये जाते थे. जंगल से लकड़ी काटकर लाना, भोजन स्वयं पकाना, स्वच्छता रखना और ऐसे अनेक कार्य करना होता था. यह शिक्षा नहीं, संस्कार देना होता था. दीक्षा अवधि पूर्ण होने के पश्चात उनकी योग्यता के रूप में वे अपने पारम्परिक कार्य में कुशलतापूर्वक जुट जाते थे. अर्थात दीक्षा का अर्थ विद्यार्थियों में संस्कार के बीज बोना, उन्हें संवेदनशील और जागरूक बनाना, संवाद की कला सीखाना और अपने गुणों के साथ विनम्रता सीखाना.

    इस तरह हम शिक्षा और दीक्षा के भेद को जान लेते हैं. यह कहा जा सकता है कि हम नए जमाने में हैं और यहां शिक्षा का ही मूल्य है. निश्चित रूप से यह सच हो सकता है लेकिन एक सच यह है कि हम शिक्षित हो रहे हंै, डिग्रीधारी बन रहे हैं लेकिन संस्कार और संवेदनशीलता विलोपित हो रही है. हम शिक्षित हैं लेकिन जागरूक नहीं. हम डॉक्टर हैं, इंजीनियर हैं लेकिन समाज के प्रति जिम्मेदार नहीं. शिक्षक हैं लेकिन शिक्षा के प्रति हमारा अनुराग नहीं, पत्रकार हैं लेकिन निर्भिक नहीं. जिस भी कार्य का आप मूल्य चुकायेंगे, वह एक उत्पाद हो जाएगा. शिक्षा आज एक उत्पाद है जो दूसरे उत्पाद से आपको जोड़ता है कि आप नौकरी प्राप्त कर लें. दीक्षा विलोपित हो चुकी है. शिक्षा और दीक्षा का जो अंर्तसंबंध था, वह भी हाशिये पर है. शायद यही कारण है कि समाज में नैतिक मूल्यों का हस हो रहा है क्योंकि हम सब एक उत्पाद बन गए हैं. शिक्षा और दीक्षा के परस्पर संबंध के संदर्भ में यह बात भी आपको हैरान करेगी कि राजनीति विज्ञान का विषय है लेकिन वह भी शिक्षा का एक प्रकल्प है लेकिन राजनेता बनने के लिए शायद अब तक कोई स्कूल नहीं बन पाया है. राजनेता बनने के लिए शिक्षित नहीं, दीक्षित होना पड़ता है. यह एक अलग विषय है कि राजनेता कितना नैतिक या अनैतिक है लेकिन उसकी दीक्षा पक्की होती है और एक अल्पशिक्षित या अपढ़ भी देश सम्हालने की क्षमता रखता है क्योंकि वह दीक्षित है. विरासत में उसे राजनीति का ककहरा पढ़ाया गया है. वह हजारों-लाखों की भीड़ को सम्मोहित करने की क्षमता रखता है और यह ककहरा किसी क्लास रूम में नहीं पढ़ाया जा सकता है. शिक्षक दिवस तो मनाते हैं हम लेकिन जिस दिन दीक्षा दिवस मनाएंगे, उस दिन इसकी सार्थकता सिद्ध हो पाएगी.

सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

क्यों करें देहदान या अंगदान

 


प्रो. मनोज कुमार

    दो दिन पहले हमारे परिवार के एक बुर्जुग की मृत्यु हो गई. मृत्यु प्रकृति की नियति है, यह होना ही था लेकिन वे मर कर भी अमर हो गए. जीते जी उन्होंने देहदान या अंगदान का निर्णय ले लिया था. इस बारे में परिजनों को चेता दिया था कि उनकी देह को आग में भस्म करने के बजाय अस्पताल को दान कर दिया जाए ताकि उनका शरीर किसी जरूरतमंद के काम आ सके. वे अकेले नहीं हैं. समय-समय पर अनेक लोग इस प्रकार देहदान या अंगदान कर स्वयं को जीवित कर लेते हैं. हमारे समक्ष महर्षि दधीची का उदाहरण है. पौराणिक कथा हम सबने सुना है कि महर्षि दधीची किस तरह अपनी अस्थियों का दान कर असुर वृत्रासुर को मारकर शांति का मार्ग प्रशस्त किया था.  महर्षि दधीची पृथ्वीलोक के निवासी थे. असुर को मारने का समय नहीं रहा लेकिन देहदान या अंगदान कर ऐसे व्यक्तियों को जीवित रखने का प्रयास कर सकते हैं जिससे समाज एवं परिवार का हित जुड़ा होता है. वर्तमान समय में इसी पृथ्वीलोक के निवासियों को देह की जरूरत है. एक ऐसे देह की जो निर्जीव हो चुका है लेकिन इसके बाद भी वह अनेक प्राणियों को जीवनदान दे सकता है. महर्षि दधीची से प्रेरणा लेकर हम देहदान या अंगदान की ओर प्रवृत्त होते हैं तो मरकर भी जिंदा रह सकते हैं. देहदान या अंगदान के लिए समाज को जागरूक करने का प्रयास किया जा रहा है. अब शिक्षित समाज यह समझने लगा है कि मृृत्यु के पश्चात भी मनुष्य के आर्गन दूसरे बीमार या मौत की दहलीज पर खड़े लोगों को जीवनदान दे सकते हैं. देहदान या अंगदान को लेकर समाज में वह खुलापन नहीं आया है. 

भारतीय समाज में मोक्ष की अवधारणा बहुत पुरानी है. मिथक है कि मृत्यु के बाद सभी संस्कार किए जाने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है. अब यहां पर दर्शन के एक विद्यार्थी की तरह आपको सोचना होगा कि आखिर मोक्ष है क्या? एक मोटामोटी मान लेते हैं कि एक व्यक्ति औसतन 70 वर्ष की आयु पूर्ण करता है. अपनी योग्यता और व्यवहार से वह जीवन जीता है लेकिन जब उसे आवश्यकता होती है तो उसके पास दो व्यक्ति भी नहीं होते हैं. इसे क्या माना जाए? सीधी सी बात है कि जब आप पर आपका परिवार, मित्र और समाज भरोसा नहीं करते हैं तो मृत्यु उपरांत देह को अग्रि के हवाले करने से कौन सा मोक्ष मिल जाएगा? साधारण शब्दों में समझें कि मोक्ष का सीधा अर्थ है जीवित रहते हुए आपका परिवार, मित्रगण एवं समाज आप पर भरोसा करे और यही भरोसा मोक्ष कहलाता है. मैं अल्पज्ञानी हूँ और मुझे नहीं मालूम कि मृत्यु के उपरांत किसे मोक्ष की प्राप्ति हुई और किसने इसे बताया. तेरह दिनों के संस्कार के पश्चात आमतौर पर दिवगंत व्यक्ति विस्मृत कर दिया जाता है. मोक्ष की चाह है तो इसे आप देहदान या अंगदान के रूप में प्राप्त कर सकते हैं. यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि आज से दस वर्ष पहलेे जब मैं पचास की आयु पूर्ण कर चुका था, तब देहदान का घोषणा पत्र भरकर स्वयं को उऋण कर लिया था.  

देहदान या अंगदान को थोड़ा व्यापक संदर्भ में समझना होगा. आज से पाँच दशक पहले मृत्यु उपरांत संस्कार उस समय की जरूरत होता था. अग्रि संस्कार के लिए चंदन की लकड़ी के उपयोग की जानकारी मिलती थी. फिर समय बदला और चंदन की लकड़ी मिलना बंद हुआ, मंहगाई बढ़ी और साधारण लकड़ी से दाह संस्कार किया जाने लगा. आज के दौर में पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से लकड़ी मिलना दिन-ब-दिन दुर्लभ होता जा रहा है और दाह संस्कार अब इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से हो रहा है. पाँच-सात पहले अपने एक करीबी मित्र के भाई के देहांत के बाद दाह संस्कार में पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि उनका दाह संस्कार इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से किया जाएगा. महानगरों की बात छोड़ दें तो भोपाल और मेरे लिए निपट पहला अनुभव था. मन में उठते-गिरते विचारों के साथ दाहसंस्कार स्थल पर पहुँचा. आवाक रह गया. देह को लगभग जला देने वाली इलेक्ट्रिक उष्मा से पास खड़े लोग झुलस जाने का अनुभव कर रहे थे. एक लम्बा ट्रेनुमा फ्रेम में उन्हें रखा गया और चंद सेकंड में एक तेज आवाज़ के साथ उनके दाह संस्कार की क्रिया पूर्ण हुई. एकाध घंटे में बिजली उष्मा शांत होने पर फूल चुनने की विधि भी उसी समय पूरी कर ली गई. यह दृश्य दिल दहलाने वाला था. 

पारम्परिक दाह संस्कार के उलट यह आधुनिक दाह संस्कार केवल औपचारिक लग रहा था. मन में दाह संस्कार का अर्थ वही रचा-बसा था जो दशकों से देखता चला आ रहा था. तब मन मेंं खयाल आया कि आज हम महर्षि दधीची नहीं हो सकते हैं लेकिन उनके बताये रास्ते पर चलकर देहदान या अंगदान कर समाज का कल्याण तो किया ही जा सकता है. यह एक प्रैक्टिल कदम भी होगा. सोचिए कि आज 2025 में हम जिस स्थिति में हैं, वही स्थिति दस या बीस साल बाद क्या होगी? क्या हम सब एक वस्तु की तरह बिजली के हवाले कर दिए जाएंगे? तब हमारी मोक्ष की अवधारणा क्या फलीभूत होगी? शायद नहीं इसलिए आवश्यक है कि सभी आयु वर्ग (नाबालिब बच्चों को छोड़ दें) तो देह दान का संकल्प ले लेना चाहिए. यह बात भी समझना चाहिए कि जो देहदान या अंगदान कर रहे हैं, वह समाज का काम तो आएगा ही, आपके परिजनों के लिए भी काम आ सकता है. एक अनुभव शेयर करना चाहूँगा. एक साल पहले मैं लीवर सिरोसीस का पेशेंट हो गया था. लीवर ट्राँसप्लांट करना जरूरी था. ऐसे में लीवर डोनेट करने वाले की जरूरत थी. तब मेरी बिटिया ने पूरे हौसले के साथ खड़ी होकर अपना लीवर मुझे डोनेट किया. आज मैं उसकी वजह से जिंदा हँू. यह भी तो एक किस्म का देहदान या अंगदान ही है. समय की जरूरत के अनुरूप हम सबको देहदान या अंगदान का संकल्प लेना चाहिए और यह भी मान लेना चाहिए कि जिंदा रहते घर-परिवार, मित्र और समाज आप पर भरोसा करे, यही मोक्ष है.

देहदान या अंगदान की दिशा में प्रेरित और प्रोत्साहित करने के लिए मध्यप्रदेश में अभिनव प्रयास किया गया है. मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की परिकल्पना के अनुरूप  देहदान या अंगदान करने वाले व्यक्ति की मृत्यु के बाद पार्थिव शरीर को ‘गार्ड ऑफ़ ऑनर’ देकर अंतिम विदाई दी जाएगी साथ ही दान करने वाले व्यक्ति के परिवार के सदस्यों को 26 जनवरी और 15 अगस्त को सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जाएगा. इसके अतिरिक्त प्रदेश के सभी मेडिकल कॉलेजों में अंगदान व अंग प्रत्यारोपण की सुविधाओं की व्यवस्था की जाएगी. मध्यप्रदेश में इस अनुकरणीय प्रयास से समाज में देहदान या अंगदान के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ेगी. मध्यप्रदेश के इन प्रयासों को देश के अन्य राज्यों में भी बढ़ाये जाने की उम्मीद की जा सकती है क्योंकि इससे सरकार नहीं, समाज के लाभ का ध्येय है. मोक्ष के साथ सम्मान देने का यह भाव मध्यप्रदेश में ही हो सकता है क्योंकि मध्यप्रदेश यूं ही देश का ह्दय प्रदेश नहीं कहलाता है. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)

जमीन लड़ाई और रणनीति से राजनीति का भेद

संदर्भ प्रफुल्ल कुमार महंत, ममता बेनर्जी  और प्रशांत किशोर  प्रो. मनोज कुमार साल 2014 में जनआंदोलन से अरविंद केजरीवाल जैसे नेता का अभ्युदय...