रविवार, 19 अक्टूबर 2025

ठंडे मिजाज का हमदर्द शहर भोपाल


मनोज कुमार
यायावरी के अपने मजे होते हैं और मजे के साथ साथ कुछ अनुभव भी. मेरा यकीन यायावरी पत्रकारिता में रहा है. यायावरी का अर्थ गाँव गाँव, देश देश घूूमना मात्र नहीं है बल्कि यायावरी अपने शहर में भी की जा सकती है. मेरा अपना भोपाल शहर. ठंडे मिजाज क हमदर्द शहर. एक मस्ती और रवानगी जिस शहर के तासीर में हो, उस शहर में जीने का मजा ही कुछ और होता है. बड़े तालाब में हिल्लोरे मारती लहरें किसी को दीवाना बनाने के लिए काफी है तो संगीत की सुर-लहरियों में खो जाने के लिए इसी तालाब के थोड़े करीब से बसा कला गृह भारत भवन रोज ब रोज आपको बुलाता है. सुस्त शहर की फब्तियां भी इस शहर पर लोग दागते रहे हैं. जिन्हें पटियों पर बैठकर शतरंज खेलने का सउर ना हो, वह क्या जाने इस सुस्ती की मस्ती. यह वही पटिया है जहाँ भोपाल की गलियों से लेकर अमेरिका तक की चरचा भोपाली कर डालते हैं. पटिये की राजनीति ने किन किन को बुलंदियों तक पहुँचा दिया, इसकी खबर तो इतिहास ही रखता है. मुख्यमंत्री कौन बनेगा, इससे किसी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है, परंतु चिंता सब रखते हैं कि इस बार मुख्यमंत्री की गद्दी पर कौन बैठेगा. मुख्यमंत्री की दौड़ में आगे-पीछे होते नेताओं को भी खबर नहीं होती है लेकिन पटियेबाजों को उनका पूरा इतिहास मालूम होता है. ऐसा है मेरा भोपाल.
मेरे भोपाल की बुनावट और बसाहट नवाबों ने की थी. वक्त के साथ नवाब फना हो गए. नवाब भले ही ना रहे लेकिन नवाबी तासीर भोपाल को दे गए. मेरा शहर भोपाल कभी जल्दबाजी में नहीं रहता है. सुकून की जिंदगी जीता है और भाईचारे के साथ यहाँ के लोग बसर करते हैं. गंगा-जमुनी संस्कृति इस शहर की तहजीब और पहचान है. पर ये क्या..मेरे भोपाल को किसी की नजर लग गयी है..वह भी महानगर बनने को बेताब नजर आने लगा है..भोपाल की तासीर बदलने लगी है..सुकून का मेरा भोपाल अब हड़बड़ी में रहता है..कभी घंटों की फिकर ना करने वाले भोपाली अब सेकंड का हिसाब रखने लगे हैं. खीर, सेंवई, घेवर और मीठे समोसे के साथ पोहे-जलेबी का स्वाद अब मुंह से उतरने लगा है. पिज्जा और बर्गर का चस्का भोपाल को लग गया है..मोटरसायकलों पर बैठे युवा को सेकंड में पिज्जा-बर्गर पहुँचाना है. 
यह जल्दबाजी महानगर की तासीर है. मेरा शहर भोपाल भी इस तरफ चल पड़ा है. को..खां..कहने वाले भी अब गुमनाम हो रहे हैं..हाय, हलो के चलन ने भोपालियों को मेट्रो सिटी का सिटीजन बना दिया है, लगभग रेंगते हुए भटसुअर सडक़ से बाहर हो गए हैं..तेज रफ्तार से दौड़ती महंगी बसों ने इन खाली हुए सडक़ों पर कब्जा जमा लिया है. हवाओं से बात करते ये मोटरों ने भोपाल की सुस्ती को हवा कर दिया है...नफासत के इस शहर में अब दुआ-सलाम भी जल्दबाजी में होने लगा है. कभी तफसील से हाल जानने और समझने में वक्त की परवाह किए बिना लोग बात-बात में हाथ में बँधी घड़ी या फिर मोबाइल को चैक कर लेते हैं. 
कोइ तीस-पैंतीस बरस पहले जब मैं भोपाल आया था. तब यह शहर दो हिस्सों में बंटा था. पुराना भोपाल और नया भोपाल. बैरागढ़ की पहचान भोपाल के उपनगर के तौर पर था तो सही, लेकिन उसे भी पुराने भोपाल का हिस्सा मान लिया जाता था. अब तो कई उपनगर बन गए हैं. कोलार की अपनी पहचान बन गई है तो बागमुगालिया भी नए चेहरे के साथ दिख रहा है.. नए भोपाल के पास नम्बरों के मोहल्ले थे. मसलन, दो नम्बर स्टाप से शुरू होते हुए पाँच, छह, साढ़े छह, सात, दस, ग्यारह और बारह नम्बर तक था. अब भोपाल पसर रहा है. एक समय था भोपाल के एक छोर से दूसरे छोर जाने में ज्यादा से ज्यादा घंटे का वक्त लगता था, अब भोपाल के एक छोर से दूसरे छोर पहुँचने के लिए आपको लगभग आधा दिन का वक्त लग जाएगा. जयप्रकाश अस्पताल से बागमुगालिया जाना चाहें तो कम से कम दो घंटे का वक्त लगेगा. कई बार बढ़ती भीड़ के कारण यह समय और भी अधिक हो सकता है. ऐसा ही दूसरे और फैल गए इलाकों के लिए भी है. एमपी नगर में शाम को फंस गए तो आपके दो-एक घंटे कब गुजर जाएंगे, पता ही नहीं चलेगा. यातायात में फंसे लोग इतने लंबे वक्त में अपनों से सुकून से बात कर लें, यह भी नहीं होता है. कुढ़ते, झल्लाते समय गंवा देते हैं. यह नए भोपाल की सूरत बन रही है. 
मेट्रो सिटी की इस नयी सूरत ने मेरे भोपाल के मायने ही बदल दिए हैं. कभी अपने जर्दा, पर्दा और मर्दा के लिए मशहूर भोपाल की जरदोजी दुनिया में ख्यात थी लेकिन एंडरसन ने ऐसे घाव दिए कि अब भोपाल गैस त्रासदी के लिए अपनी साख रखता है. चालीस बरस पहले रिसी गैस से जो घाव मिले, वह आज भी रिस रहे हैं और जाने आगे कब तक रिसता रहेगा, कोई कह नहीं सकता. दुनिया भर से लोग मरहम लगाने के नाम पर आते हैं और जख्म कुरेद कर चले जाते हैं. यह हकीकत है, इससे आप इंकार नहीं कर सकते. इंकार तो इस बात से भी आप नहीं कर सकते कि इस गैस ने जिनके घर उजाड़े, वे तो दुबारा बस नहीं पाये लेकिन इस उजड़े हुए घरों की मिट्टी ने कई नए इमारतों की बुनियाद डाल दी. इस सच से उस दौर के आफिसर इत्तेफाक रखते हैं और बड़े मजे में फरमाते हैं-चलो, कुछ बातें करते हैं बनारस की. भूल जाइए उस गैस त्रासदी को. इस बयान से भी मेरा शहर तपता नहीं है. उसे खबर है कि जख्म देने वाले वही हैं तो उनसे दवा की क्या उम्मीद करें. 
मेरा भोपाल महानगर बन रहा है तो उसकी तासीर भी महानगर की होनी चाहिए. कभी पर्दानशी शहर कहलाने वाले मेरे भोपाल में अब पर्दा के लिए कोई जगह नहीं बची है, ऐसा लगने लगा है. खासतौर पर नए शहर के युवाओं का मिजाज तो यही बयान करता है. झील के आसपास कहीं एक-दूसरे के आगोश में गिरफ्त युवक-युवतियां तो कहीं मर्यादा को तार तार करते होठों का सरेराह रसपान करते युवा. जिस्मानी भूख अब कमरे से बाहर निकल कर सडक़ों पर दिख रही है. कुछ कहना बेकार और बेमतलब होगा क्योंकि ये नए मिजाज का शहर है. इस जवानी को और ताप देने के लिए कुछ और करने की जरूरत होती है. नशा न हो तो नशेमन की बात भी अधूरी रह जाती है. मेरे भोपाल में शराब का चलन नया नहीं है लेकिन इन दिनों नई रीत चल पड़ी है..हैरान हूं इस बात से कि देखते ही देखते शराबों की दुकानों की तादाद एकदम से बढ़ गई. हैरानी तो इस बात की है कि जिन्हें बेचने के लिए मुकम्मल ठिकाना नहीं मिला तो टेंट लगाकर अपना ठिकाना तय कर लिया..किसी ने चार पहिया गाड़ी को ही इसका पता बता दिया..जिस्म की नुमाईश और शराब के नए-नए ठिकाने.. और क्या चाहिए एक मेट्रोसिटी को..
अदब के मेरे शहर भोपाल में अभी रौनक बाकी है..झीलों का जिक्र होता है तो मेरे भोपाल का नाम छूटता नहीं और हरियाली की बात आती है तो मेरा भोपाल किसी से कमतर नहीं..विकास के इस दौड़ में भी मेरे भोपाल की हरियाली ने भी दम तोड़ा है लेकिन मरा नहीं है..लोगों में अपने शहर को लेकर जज्बा कायम है. बड़ी झील की सफाई का मसला सामने आया तो क्या अमीर और क्या गरीब..सब जुट गए थे श्रमदान के लिए.. देखते ही देखते बड़ी झील की तस्वीर बदल डाली..गाद ने झील को सिमटने के लिए मजबूर किया था तो भोपालियों के जज्बे ने गाद को बाहर का रास्ता दिखा दिया..विकास के नाम पर हजारों हजार पेड़ों को काटने की जुगत को शहर के लोगों ने नाकामयाब कर दिया..भरी गर्मी में शाम होते ही भोपाल ठंडा होने लगता है...लहरों से खेलना हो तो भोपाल की बड़ी झील में जरूर आएं..हर गम..हर दर्द..यकीनन आप भूल जाएंगे..मीठी यादें साथ लेकर जाएंगे..मेरा भोपाल बदल रहा है..लेकिन उम्मीद बदली नहीं है..आज भी बदलाव के इस दौर में भोपाली बटुआ से खूबसूरत कोई तोहफा नहीं होता है..इस खूबसूरत शहर को भले ही हम नए मिजाज के शहर के तौर पर देखने की कोशिश करें लेकिन देखना होगा आपको उसी झीरी से जहां कभी भोपाल था और हमेशा रहेगा..(यह आलेख 10 वर्ष पहले लिखा गया था)

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2025

शिक्षा और दीक्षा















मनोज कुमार 

    हमारे पड़ोसी शर्माजी इस बात से प्रसन्न थे कि उनका बेटा शिक्षित हो गया. शिक्षित अर्थात उसने बीई की डिग्री हासिल कर ली. बेटे के स्नातक हो जाने की खुशी उनके चेहरे पर टपक रही थी. यह अस्वाभाविक भी नहीं है. एक डिग्री हासिल करने के लिए कई किसम के जतन करने पड़ते हैं. अपनी जरूरतों और खुशी को आले में रखकर बच्चों की शिक्षा पर खर्च किया जाता है. और बच्चा जब सफलतापूर्वक डिग्री हासिल कर ले तो गर्व से सीना तन जाता है. उनके जाने के बाद एक पुराना सवाल भी मेरे सामने आ खड़ा हुआ कि क्या डिग्री हासिल कर लेना ही शिक्षा है? क्या डिग्री के बूते एक ठीकठाक नौकरी हासिल कर लेना ही शिक्षा है? मन के किसी कोने से आवाज आयी ये हो सकता है लेकिन यह पूरा नहीं है. फिर मैं ये सोचने लगा कि बोलचाल में हम शिक्षा-दीक्षा की बात करते हैं तो ये शिक्षा-दीक्षा क्या है? शिक्षा के साथ दीक्षा शब्द महज औपचारिकता के लिए जुड़ा हुआ है या इसका कोई अर्थ और भी है. अब यह सवाल शर्माजी के बेटे की डिग्री से मेरे लिए बड़ा हो गया. मैं शिक्षा-दीक्षा के गूढ़ अर्थ को समझने के लिए पहले स्वयं को तैयार करने लगा.

    एक पत्रकार होने के नाते क्यों पहले मन में आता है. इस क्यों को आधार बनाकर जब शिक्षा-दीक्षा का अर्थ तलाशने लगा तो पहला शिक्षा-दीक्षा का संबंध विच्छेद किया. शिक्षा अर्थात अक्षर ज्ञान. वह सबकुछ जो लिखा हो उसे हम पढ़ सकें. एक शिक्षित मनुष्य के संदर्भ में हम यही समझते हैं. शिक्षा को एक तंत्र चलाता है इसलिए शिक्षा नि:शुल्क नहीं होती है. विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा हासिल करने के लिए हमें उसका मूल्य चुकाना होता है. इस मूल्य को तंत्र ने शब्द दिया शिक्षण शुल्क. यानि आप शिक्षित हो रहे हैं, डिग्री हासिल कर रहे हैं और समाज में आपकी पहचान इस डिग्री के बाद अलहदा हो जाएगी. आप डॉक्टर, इंजीनियर, पत्रकार और शिक्षा जैसे अनेक पदों से सुशोभित होते हैं. चूंकि आपकी शिक्षा मूल्य चुकाने के एवज में हुई है तो आपकी प्राथमिकता भी होगी कि आप चुकाये गए मूल्य की वापसी चाहें तो आप अपनी डिग्री के अनुरूप नौकरी की तलाश करेंगे. एक अच्छी नौकरी की प्राप्ति आपकी डिग्री को ना केवल सार्थक करेगी बल्कि वह दूसरों को प्रेरणा देगी कि आप भी शिक्षित हों. यहां एक बात मेरे समझ में यह आयी कि शिक्षित होने का अर्थ रोजगार पाना मात्र है.

    अब दूसरा शब्द दीक्षा है. दीक्षा शब्द आपको उस काल का स्मरण कराता है जब डिग्री का कोई चलन नहीं था. शिक्षित होने की कोई शर्त या बाध्यता नहीं थी. दीक्षा के उपरांत नौकरी की कोई शर्त नहीं थी. दीक्षित करने वाले गुरु कहलाते थे. दीक्षा भी नि:शुल्क नहीं होती थी लेकिन दीक्षा का कोई बंधा हुआ शुल्क नहीं हुआ करता था. यह गुरु पर निर्भर करता था कि दीक्षित शिष्य से वह क्या मांगे अथवा नहीं मांगे या भविष्य में दीक्षित शिष्य के अपने कार्यों में निपुण होने के बाद वह पूरे जीवन में कभी भी, कुछ भी मांग सकता था. यह दीक्षा राशि से नहीं, भाव से बंधा हुआ था. दीक्षा का अर्थ विद्यार्थी को संस्कारित करना था. विद्यालय-विश्वविद्यालय के स्थान पर गुरुकुल हुआ करते थे और यहां राजा और रंक दोनों की संतान समान रूप से दीक्षित किये जाते थे. दीक्षा के उपरांत रोजगार तलाश करने के स्थान पर विद्यार्थियों को स्वरोजगार के संस्कार दिये जाते थे. जंगल से लकड़ी काटकर लाना, भोजन स्वयं पकाना, स्वच्छता रखना और ऐसे अनेक कार्य करना होता था. यह शिक्षा नहीं, संस्कार देना होता था. दीक्षा अवधि पूर्ण होने के पश्चात उनकी योग्यता के रूप में वे अपने पारम्परिक कार्य में कुशलतापूर्वक जुट जाते थे. अर्थात दीक्षा का अर्थ विद्यार्थियों में संस्कार के बीज बोना, उन्हें संवेदनशील और जागरूक बनाना, संवाद की कला सीखाना और अपने गुणों के साथ विनम्रता सीखाना.

    इस तरह हम शिक्षा और दीक्षा के भेद को जान लेते हैं. यह कहा जा सकता है कि हम नए जमाने में हैं और यहां शिक्षा का ही मूल्य है. निश्चित रूप से यह सच हो सकता है लेकिन एक सच यह है कि हम शिक्षित हो रहे हंै, डिग्रीधारी बन रहे हैं लेकिन संस्कार और संवेदनशीलता विलोपित हो रही है. हम शिक्षित हैं लेकिन जागरूक नहीं. हम डॉक्टर हैं, इंजीनियर हैं लेकिन समाज के प्रति जिम्मेदार नहीं. शिक्षक हैं लेकिन शिक्षा के प्रति हमारा अनुराग नहीं, पत्रकार हैं लेकिन निर्भिक नहीं. जिस भी कार्य का आप मूल्य चुकायेंगे, वह एक उत्पाद हो जाएगा. शिक्षा आज एक उत्पाद है जो दूसरे उत्पाद से आपको जोड़ता है कि आप नौकरी प्राप्त कर लें. दीक्षा विलोपित हो चुकी है. शिक्षा और दीक्षा का जो अंर्तसंबंध था, वह भी हाशिये पर है. शायद यही कारण है कि समाज में नैतिक मूल्यों का हस हो रहा है क्योंकि हम सब एक उत्पाद बन गए हैं. शिक्षा और दीक्षा के परस्पर संबंध के संदर्भ में यह बात भी आपको हैरान करेगी कि राजनीति विज्ञान का विषय है लेकिन वह भी शिक्षा का एक प्रकल्प है लेकिन राजनेता बनने के लिए शायद अब तक कोई स्कूल नहीं बन पाया है. राजनेता बनने के लिए शिक्षित नहीं, दीक्षित होना पड़ता है. यह एक अलग विषय है कि राजनेता कितना नैतिक या अनैतिक है लेकिन उसकी दीक्षा पक्की होती है और एक अल्पशिक्षित या अपढ़ भी देश सम्हालने की क्षमता रखता है क्योंकि वह दीक्षित है. विरासत में उसे राजनीति का ककहरा पढ़ाया गया है. वह हजारों-लाखों की भीड़ को सम्मोहित करने की क्षमता रखता है और यह ककहरा किसी क्लास रूम में नहीं पढ़ाया जा सकता है. शिक्षक दिवस तो मनाते हैं हम लेकिन जिस दिन दीक्षा दिवस मनाएंगे, उस दिन इसकी सार्थकता सिद्ध हो पाएगी.

सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

क्यों करें देहदान या अंगदान

 


प्रो. मनोज कुमार

    दो दिन पहले हमारे परिवार के एक बुर्जुग की मृत्यु हो गई. मृत्यु प्रकृति की नियति है, यह होना ही था लेकिन वे मर कर भी अमर हो गए. जीते जी उन्होंने देहदान या अंगदान का निर्णय ले लिया था. इस बारे में परिजनों को चेता दिया था कि उनकी देह को आग में भस्म करने के बजाय अस्पताल को दान कर दिया जाए ताकि उनका शरीर किसी जरूरतमंद के काम आ सके. वे अकेले नहीं हैं. समय-समय पर अनेक लोग इस प्रकार देहदान या अंगदान कर स्वयं को जीवित कर लेते हैं. हमारे समक्ष महर्षि दधीची का उदाहरण है. पौराणिक कथा हम सबने सुना है कि महर्षि दधीची किस तरह अपनी अस्थियों का दान कर असुर वृत्रासुर को मारकर शांति का मार्ग प्रशस्त किया था.  महर्षि दधीची पृथ्वीलोक के निवासी थे. असुर को मारने का समय नहीं रहा लेकिन देहदान या अंगदान कर ऐसे व्यक्तियों को जीवित रखने का प्रयास कर सकते हैं जिससे समाज एवं परिवार का हित जुड़ा होता है. वर्तमान समय में इसी पृथ्वीलोक के निवासियों को देह की जरूरत है. एक ऐसे देह की जो निर्जीव हो चुका है लेकिन इसके बाद भी वह अनेक प्राणियों को जीवनदान दे सकता है. महर्षि दधीची से प्रेरणा लेकर हम देहदान या अंगदान की ओर प्रवृत्त होते हैं तो मरकर भी जिंदा रह सकते हैं. देहदान या अंगदान के लिए समाज को जागरूक करने का प्रयास किया जा रहा है. अब शिक्षित समाज यह समझने लगा है कि मृृत्यु के पश्चात भी मनुष्य के आर्गन दूसरे बीमार या मौत की दहलीज पर खड़े लोगों को जीवनदान दे सकते हैं. देहदान या अंगदान को लेकर समाज में वह खुलापन नहीं आया है. 

भारतीय समाज में मोक्ष की अवधारणा बहुत पुरानी है. मिथक है कि मृत्यु के बाद सभी संस्कार किए जाने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है. अब यहां पर दर्शन के एक विद्यार्थी की तरह आपको सोचना होगा कि आखिर मोक्ष है क्या? एक मोटामोटी मान लेते हैं कि एक व्यक्ति औसतन 70 वर्ष की आयु पूर्ण करता है. अपनी योग्यता और व्यवहार से वह जीवन जीता है लेकिन जब उसे आवश्यकता होती है तो उसके पास दो व्यक्ति भी नहीं होते हैं. इसे क्या माना जाए? सीधी सी बात है कि जब आप पर आपका परिवार, मित्र और समाज भरोसा नहीं करते हैं तो मृत्यु उपरांत देह को अग्रि के हवाले करने से कौन सा मोक्ष मिल जाएगा? साधारण शब्दों में समझें कि मोक्ष का सीधा अर्थ है जीवित रहते हुए आपका परिवार, मित्रगण एवं समाज आप पर भरोसा करे और यही भरोसा मोक्ष कहलाता है. मैं अल्पज्ञानी हूँ और मुझे नहीं मालूम कि मृत्यु के उपरांत किसे मोक्ष की प्राप्ति हुई और किसने इसे बताया. तेरह दिनों के संस्कार के पश्चात आमतौर पर दिवगंत व्यक्ति विस्मृत कर दिया जाता है. मोक्ष की चाह है तो इसे आप देहदान या अंगदान के रूप में प्राप्त कर सकते हैं. यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि आज से दस वर्ष पहलेे जब मैं पचास की आयु पूर्ण कर चुका था, तब देहदान का घोषणा पत्र भरकर स्वयं को उऋण कर लिया था.  

देहदान या अंगदान को थोड़ा व्यापक संदर्भ में समझना होगा. आज से पाँच दशक पहले मृत्यु उपरांत संस्कार उस समय की जरूरत होता था. अग्रि संस्कार के लिए चंदन की लकड़ी के उपयोग की जानकारी मिलती थी. फिर समय बदला और चंदन की लकड़ी मिलना बंद हुआ, मंहगाई बढ़ी और साधारण लकड़ी से दाह संस्कार किया जाने लगा. आज के दौर में पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से लकड़ी मिलना दिन-ब-दिन दुर्लभ होता जा रहा है और दाह संस्कार अब इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से हो रहा है. पाँच-सात पहले अपने एक करीबी मित्र के भाई के देहांत के बाद दाह संस्कार में पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि उनका दाह संस्कार इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से किया जाएगा. महानगरों की बात छोड़ दें तो भोपाल और मेरे लिए निपट पहला अनुभव था. मन में उठते-गिरते विचारों के साथ दाहसंस्कार स्थल पर पहुँचा. आवाक रह गया. देह को लगभग जला देने वाली इलेक्ट्रिक उष्मा से पास खड़े लोग झुलस जाने का अनुभव कर रहे थे. एक लम्बा ट्रेनुमा फ्रेम में उन्हें रखा गया और चंद सेकंड में एक तेज आवाज़ के साथ उनके दाह संस्कार की क्रिया पूर्ण हुई. एकाध घंटे में बिजली उष्मा शांत होने पर फूल चुनने की विधि भी उसी समय पूरी कर ली गई. यह दृश्य दिल दहलाने वाला था. 

पारम्परिक दाह संस्कार के उलट यह आधुनिक दाह संस्कार केवल औपचारिक लग रहा था. मन में दाह संस्कार का अर्थ वही रचा-बसा था जो दशकों से देखता चला आ रहा था. तब मन मेंं खयाल आया कि आज हम महर्षि दधीची नहीं हो सकते हैं लेकिन उनके बताये रास्ते पर चलकर देहदान या अंगदान कर समाज का कल्याण तो किया ही जा सकता है. यह एक प्रैक्टिल कदम भी होगा. सोचिए कि आज 2025 में हम जिस स्थिति में हैं, वही स्थिति दस या बीस साल बाद क्या होगी? क्या हम सब एक वस्तु की तरह बिजली के हवाले कर दिए जाएंगे? तब हमारी मोक्ष की अवधारणा क्या फलीभूत होगी? शायद नहीं इसलिए आवश्यक है कि सभी आयु वर्ग (नाबालिब बच्चों को छोड़ दें) तो देह दान का संकल्प ले लेना चाहिए. यह बात भी समझना चाहिए कि जो देहदान या अंगदान कर रहे हैं, वह समाज का काम तो आएगा ही, आपके परिजनों के लिए भी काम आ सकता है. एक अनुभव शेयर करना चाहूँगा. एक साल पहले मैं लीवर सिरोसीस का पेशेंट हो गया था. लीवर ट्राँसप्लांट करना जरूरी था. ऐसे में लीवर डोनेट करने वाले की जरूरत थी. तब मेरी बिटिया ने पूरे हौसले के साथ खड़ी होकर अपना लीवर मुझे डोनेट किया. आज मैं उसकी वजह से जिंदा हँू. यह भी तो एक किस्म का देहदान या अंगदान ही है. समय की जरूरत के अनुरूप हम सबको देहदान या अंगदान का संकल्प लेना चाहिए और यह भी मान लेना चाहिए कि जिंदा रहते घर-परिवार, मित्र और समाज आप पर भरोसा करे, यही मोक्ष है.

देहदान या अंगदान की दिशा में प्रेरित और प्रोत्साहित करने के लिए मध्यप्रदेश में अभिनव प्रयास किया गया है. मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की परिकल्पना के अनुरूप  देहदान या अंगदान करने वाले व्यक्ति की मृत्यु के बाद पार्थिव शरीर को ‘गार्ड ऑफ़ ऑनर’ देकर अंतिम विदाई दी जाएगी साथ ही दान करने वाले व्यक्ति के परिवार के सदस्यों को 26 जनवरी और 15 अगस्त को सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जाएगा. इसके अतिरिक्त प्रदेश के सभी मेडिकल कॉलेजों में अंगदान व अंग प्रत्यारोपण की सुविधाओं की व्यवस्था की जाएगी. मध्यप्रदेश में इस अनुकरणीय प्रयास से समाज में देहदान या अंगदान के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ेगी. मध्यप्रदेश के इन प्रयासों को देश के अन्य राज्यों में भी बढ़ाये जाने की उम्मीद की जा सकती है क्योंकि इससे सरकार नहीं, समाज के लाभ का ध्येय है. मोक्ष के साथ सम्मान देने का यह भाव मध्यप्रदेश में ही हो सकता है क्योंकि मध्यप्रदेश यूं ही देश का ह्दय प्रदेश नहीं कहलाता है. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025

डॉ. दांडेकर भोज के कुलगुरु, दिल्ली के स्कूलों में राष्ट्रीय नीति पाठ्यक्रम और चाय पर शोध

 भोज को मिला कुलगुरु, रायपुर प्रतीक्षा में

लंबे समय से कुलगुरु की राह ताकते भोज मुक्त विश्वविद्यालय को प्रो. मिलिंद दांडेकर कुलगुरु नियुक्त किया गया है। गोविन्दराम सक्सेरिया प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान में इंजीनियरिंग विभाग में ज़रूरत डॉ. दांडेकर को गवर्नर ने कुलगुरु के रूप में नामांकित किया है। उधर छत्तीसगढ़ के कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय में कुलपति का पद लम्बे समय से रिक्त पड़ा है. बलदेव भाई का कार्यकाल पूर्ण होने के बाद कुलपति पद के लिए विज्ञापन जारी किया गया था किन्तु थोड़े समय में इस विज्ञापन को निरस्त कर दिया गया. कार्यकारी कुलपति के रूप में कमिश्रर रायपुर संभाग को प्रभार दिया गया. कुलपति बनने की आस लगाये बैठे भोपाल से रायपुर तक लोगों को प्रतीक्षा ही है.

आईएफएम में मौका

भारतीय वन प्रबंधन संस्थान भोपाल को विभिन्न विषयों के लिए सहायक प्राध्यापक, सह प्राध्यापक एवं प्राध्यापक की जरूरत है। आईआईएफएम की विज्ञप्ति में 6 पदों के लिए सीधी भर्ती के लिए ऑनलाइन आवेदन बुलाए गए हैं। आरक्षित पद, वेतनमान एवं योग्यता के लिए ऑफिशल वेबसाइट देखें।

डर की क्लास

एमसीयू प्रशासन क्लास में सौ परसेंट उपस्थिति के लिए स्टूडेंट्स के खिलाफ एक्शन लेना शुरू कर दिया है. पिछले सत्र में सवा सौ से अधिक स्टूडेंट्स को परीक्षा में बैठने नहीं दिया गया था. इस बार आंतरिक परीक्षा में कोई पांच सौ विद्यार्थियों को रोके जाने की खबर एमसीयू के सूत्रों ने दी है. डर की इस क्लास में स्टूडेंट्स तो खौफ में हैं लेकिन विभागाध्यक्ष आनंद में हैं. 

भोपाल रेल मेट्रो को चाहिए पीआरओ 

अक्टूबर में शुरू होने वाली मेट्रो टे्रन का कोई आसार नजर नहीं आ रहा है. शायद नवंबर में कोई मौका आए लेकिन मौका उन लोगों के लिए जरूर है जो इस उपक्रम में पीआरओ बनना चाहते हैं. अपनी योग्यता जांचने और अन्य जरूरतोंं की जानकारी के लिए भोपाल रेल मेट्रो की वेबसाइट खंगाल लीजिए। 

राष्ट्रीय नीति पाठ्यक्रम

आरएसएस का इतिहास, दर्शन और सामाजिक योगदान के साथ-साथ सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में बताने दिल्ली सरकार स्कूल राष्ट्रीय नीति पाठ्यक्रम शुरू करने जा रही है। मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता द्वारा शुरू किए गए इस कार्यक्रम का उद्देश्य कक्षा 1 से 12 तक के छात्रों में नागरिक जागरूकता, नैतिक शासन और राष्ट्रीय गौरव की भावना को बढ़ाना है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार यह पाठ्यक्रम आपदा राहत प्रयासों में आरएसएस की भागीदारी, जैसे रक्तदान अभियान, केदारनाथ और बिहार की बाढ़ के दौरान सहायता और कोविड-19 महामारी के दौरान दिए गए समर्थन को भी शामिल किया जाएगा। 

चाय पर चर्चा ही नहीं, अब रिसर्च भी

चाय की किस्म, खुशबू और गुणवत्ता पर अब चर्चा से आगे जाकर इस पर विश्लेषण किया जाएगा। यह काम कौशल उन्नयन पाठ्यक्रम में सरकार ने जोड़ दिया है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार भारतीय चाय बोर्ड अब चाय साक्षरता को भी बढ़ावा देगा। देश में चाय पर चर्चा के बाद अब चाय पर शोध का यह नया अध्याय है। 

पार्टटाइम पीएचडी करें

जेएस बोस यूनिवर्सिटी, हरियाणा मीडिया प्रोफेशनल्स को पार्ट टाइम पी-एचडी का मौका दे रहा है। आप भी अपने नाम के साथ डॉक्टर  लगाना चाहते हैं तो जल्द ही अप्लाय कर दें. 21 अक्टूबर 2025 तक आवेदन लिए जाएंगे और अगले महीने 8 नवम्बर को एंट्रेंस एक्जाम होगा. और अधिक जानकारी चाहिए तो जेएस बोस यूनिवर्सिटी के वेबसाइट सर्च कर लें।

बातों ही बातों में

खबरें बनाना सिखाने वाले संस्थान की खबरें बनना शुरू हो जाए तो कान खड़े हो जाते हैं. विवादों में घिरी एक एचओडी के बारे में खबरें बनने और चलने लगी हैं। खबर है कि इससे नाराज विश्वविद्यालय प्रशासन जल्द ही बड़ा फेरबदल कर ऐसी खबरों को रोकने की कोशिश करेगा. हालांकि एचओडी इन बातों को खारिज करती हुई बेफिक्र हैं. अब उनकी बेफिक्री रहेगी या प्रशासन सख्त होगा, ये तो वही जानें। अब ये बातें हैं बातों का क्या?

बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

खतों किताबत के दिन















प्रो. मनोज कुमार 

थोड़े दिन पहले डाकघर गया था। वहां पोस्टकार्ड देखे मन डोल गया। बरबस काउंटर पर बैठी क्लर्क से चार पोस्टकार्ड मांग लिया। पोस्टकार्ड का आकर, उसकी खुशबू जैसे मुझे पुराने दिनों की ओर खींच ले गई। कभी धर्मयुग के संपादक गणेश मंत्री के हस्ताक्षर युक्त तो कभी किसी अन्य संपादक के हस्ताक्षर के साथ रचना प्रकाशन के लिए स्वीकृति का पोस्ट कार्ड मिलते ही मैं मुस्करा उठता। पिछले कुछ साल तक दादा बालकवि बैरागी जी एवं विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ के कुलसचिव का नियमित पोस्ट कार्ड मिलता रहा। दादा बैरागी जी के नहीं रहने से यह सिलसिला भी टूट गया।

मोबाइल और ईमेल के ज़माने में लिखना और छपना तो खूब हो रहा है। मन भी प्रसन्न है कि मैं लिख रहा हूं लेकिन खतों किताबत का दौर कई बार उदास कर जाता है। एक समय था जब लिखने और लिख कर डाक में डालने की होड़ लगी होती थी। कुछ दिन पहले अब मुंबई में बस चुके मित्र नीलकंठ पारठकर से बात करते हुए वही दिन याद आ गए। दोनों को मालूम था कि चाहे कितनी जल्दी करें, डाक एक साथ ही निकलेगी लेकिन डिब्बे में लिफाफा पहले कौन डालेगा, इसकी होड़ लगी होती थी। रपट, लेख  लिखने के लिए देर रात तक जागना। वो भी मजे के दिन थे। फिर रोज डाकिया का इंतजार कि वह जल्दी से संपादक की मंजूरी की चिट्ठी लेकर आए। वो दिन हवा हुए।

अब हाथ से लिखने का चलन खत्म हो गया। टाइप कीजिए और बना बनाया लेख, समाचार अखबारों को, पत्रिकाओं को भेज दीजिए। लौटती डाक तो छोड़िए, एक संदेशा भी नहीं आता है कि छापा जाएगा या नहीं। वाट्सअप पर आने वाले पीडीएफ फाइल में तलाश कीजिए। छप गया तो मुस्कान और नहीं तो अगले दिन की प्रतीक्षा। 

थोड़े समय से अखबारों में संपादक के नाम पत्र की आंशिक वापसी हुई है। संपादक के नाम पत्र लिखने के लिए अब पोस्ट कार्ड की जरूरत नहीं होती है। लिखकर वाट्सअप कर दें या ईमेल। राहत यही है कि कुछ तो पीछे लौटे। संपादक के नाम पत्र एवं पोस्टकार्ड का आपस में गहरा रिश्ता है। यह नए लेखकों के लिए लिखने का तरीका सिखाता है। कम शब्दों में अपनी बात कैसे कहना। मैं जब कभी, जहां कहीं मीडिया के स्टूडेंट्स को पढ़ाने गया, वहां पोस्ट कार्ड जरूर लेकर जाता हूं। यह सीखने, बताने के लिए कि सीखने की यह पहली कड़ी है। बहुत सारे स्टूडेंट्स को तो पोस्टकार्ड भी नहीं मालूम। तभी तो सुनिए, पढ़िए जिंदगी का पोस्टकार्ड।

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सोमवार, 29 सितंबर 2025

बेकार, बेकाम नहीं हैं हमारे वृद्धजन

बेकार, बेकाम नहीं हैं हमारे वृद्धजन












प्रो. मनोज कुमार

सक्सेना जी पीएचई विभाग में चीफ इंजीनियर के पद से रिटायर हुए हैं. किसी समय उनकी तूती बोला करती थी लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव में ना केवल वे अकेले हैं बल्कि वृद्धाश्रम का एक कोना उनका बसेरा बन गया है. कभी करोड़ों का मामला सुलटाने वाले अग्रवाल दंपति की कहानी भी यही है. गणित और अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे द्विवेदी दंपति भी उम्र के आखिरी पड़ाव पर वृद्धाश्रम में रह रहे हैं. ये वे लोग हैं जिनकी काबिलियत और अनुभवों से समाज रोशन होता था. उनके अपने बच्चे आज किसी मुकम्मल मुकाम पर हैं तो उनका ही सहारा था. जिन्हें आप माता-पिता कहते हैं, वे शागिर्द आज वृद्धाश्रम में बिसूर रहे हैं. निराश और हताश भी हैं. ये दो चार लोग नहीं बल्कि वृद्धजनों की पूरी टोली है. आपस में बतिया लेते हैं और वृद्धाश्रम के दरवाजे पर टकटकी लगाये देखते हैं कि कहीं बहू-बेटा तो लेने नहीं आए? पोता-पोती की सूरत याद कर हौले से मुस्करा देते हैं लेकिन गोद में उठाकर लाड़ ना कर पाने की हसरत उनके चेहरे पर मायूसी बनकर उभर आती है. यह कहानी घर-घर की होती जा रही है. थोड़ा पैसा, थोड़ा रसूख कमाने के साथ ही वृद्धजन बोझ बनने लगते हैं. और जल्द ही तलाश कर लेते हैं उनके लिए वृद्धाश्रम का कोई कोना. पहले पहल आना-जाना भी होता है लेकिन धीरे-धीरे वह भी भुला दिया जाता है. संस्कारों में रची-बसी भारतीय संस्कृति का यह दुर्भाग्यपूर्ण अध्याय है. इन पर लिखते हुए मैं भी एक गलती कर रहा हूँ क्यों एक दिन वृद्धजन दिवस पर लिख रहा हूँ. क्यों साल में बार-बार इस बात का स्मरण नहीं कराता हूँ. सच है लेकिन यह दिन इसलिए चुना कि आज अंतरराष्ट्रीय दिवस वृद्धजन के बहाने लोग पढ़ तो लेेंगे. खास बात यह है कि हमारे वृद्धजन लिए नहीं बल्कि बाजार का दिन है. उम्र भर लतियाते वृद्धजनों का ऐसा सम्मान किया जाएगा कि लगेगा कि कुछ हुआ ही नहीं. इसी दुर्भाग्यपूर्ण अध्याय की चर्चा कर रहा हूँ.  

क्या ही हैरानी की बात है कि जिनसे हम रौशन हैं, जिनसे हमारा घर रौशन है, उनके लिए हमने एक दिन तय कर दिया है और नाम दे दिया है वृद्धजन दिवस. और इसका फलक बढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय कर दिया है. यूरोप की मानसिकता में वृद्धजन  के लिए यह सौफीसदी मुफीद हो सकता है लेकिन भारतीय सनातनी संस्कृति में वृद्धजन बेकार और बेकाम नहीं हैं लेकिन दुर्र्भाग्य से हमने भी यूरोपियन संस्कृति का अंधानुकरण कर उन्हें बेकार और बेकाम मान लिया है. उम्र के आखिरी पड़ाव में ठहरे वृद्धजनों के पास अनुभव है, कौशल है और है दुनियादारी की वह समझ लेकिन वे निहायत अकेले होकर वृद्धाश्रम में अपना समय गुजार रहे हैं. कितनी विडम्बना है कि एक तरफ हम सनातनी होने और संस्कार की दुहाई देते नहीं थकते और दूसरी ओर वृद्धजन की उपेक्षा और तिरस्कृत करने में पीछे नहीं हटते. आखिर क्या मजबूरी हो गई कि जिनकी छाँह में पलकर हम बढ़े हुए, वही हमारे लिए बोझ बन गए? क्यों हम उनके अनुभवों का लाभ लेकर जीवन को संवार नहीं पा रहे हैं? क्या कारण है कि उन्हें साथ रखते हुए कथित प्रायवेसी में बाधा आ रही है? सवाल अनेक हैं लेकिन सवालों के बीच अपने दुख और अहसास के बीच घुटते-घबराते वृद्धजनों की सुध कौन लेगा? क्या वृद्धाश्रम ही अंतिम विकल्प है.

वृद्धजनों को घर से बाहर निकाल देना, उनके साथ शारीरिक हिंसा करना और उन्हें अपमानित करने की खबरें अब रोजमर्रा की हो गई हैं. संवेदहीन होते समाज में वृद्धजन दिवस बाजार के लिए एक दिन है. वृद्धजनों को उत्पाद बना दिया जाएगा. दरअसल बाजार से बाहर आकर इन वृद्धजनों के टैलेंट का उपयोग करना होगा. परिवार के नालायक बच्चों ने वृद्धजनों को वृद्धाश्रम में भेज दिया है तो समाज का, सरकार का दायित्व है कि उन्हें मुख्यधारा में लाकर उनकी ना केवल प्रतिभा का सम्मान करे बल्कि उन्हें सम्मानपूर्वक जीने का हौसला दे. देशभर के शासकीय स्कूलों की हालत एक जैसी है. शिक्षकों की कमी है तो इस कमी को इन वृद्धजनों  से पूरा क्यों नहीं किया जा सकता है? इन्हें स्कूलों में अध्यापन का अवसर दिया जाए और बदलेे में सम्मानजनक मानदेय. ऐसा करने से उनके भीतर का खोया आत्मविश्वास लौटेगा. वे स्वयं को सुरक्षित और उपयोगी समझेंगे तो डॉक्टर और दवा से उनकी दूरी बन जाएगी. एक बेटे, पोते-पोती की कमी को दूर कर सकेंगे. स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता आएगी. आखिरकार अनुभव अनमोल होता है. 

कुछ वृद्धजन गणित, विज्ञान, हिन्दी, अंग्रेजी और अन्य विषयों के जानकार होंं लेकिन कुछ वृद्धजन ऐसे होंगे जो विषयों के सिद्धहस्त ना होंं लेकिन दूसरी विधा के जानकार हों, उन्हें कौशल विकास के कार्यों में नई पीढ़ी को दक्ष करने के कार्य में उपयोग किया जाना चाहिए. वृद्धाश्रम के भीतर ही कौशल उन्नयन की कक्षा आयोजित कर उत्सुक युवाओं को प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे सीख सकें. अध्यापन का कार्य हो या कौशल उन्नयन का. ज्यादा कुछ नहीं तो वृद्धाश्रम के भीतर ही हम विविध विषयों की साप्ताहिक कोचिंग कक्षा के संचालन की शुरूआत कर सकते हैं. जिसमें विषय की शिक्षा तो होगी ही, विविध कलाओं की कक्षाएं भी होंगी. जो जिस विधा में पारंगत है, वे उसमें सक्रिय हो जाएंगे. इन गतिविधियों में वृद्धजनों का जुड़ाव होगा तो वे वापस स्वस्थ्य और प्रसन्न हो जाएंगे. जिंदगी के प्रति उनका अनुराग बढ़ जाएगा. हौसला बढ़ेगा तो वे दवा से दूर हो जाएंगे. 

बस, थोड़ा सा हमें उनके प्रति मेहनत करना है. थोड़ा सा साहस देना है. परिवार से टूटे लोग शरीर से ज्यादा मन से टूट जाते हैं और मन से टूटे को जोडऩा आसान नहीं होता लेकिन मुश्किल कुछ भी नहीं है. दो को खड़ा कीजिए, दस अन्य स्वयं सामने आ जाएंगे. इसमें जेंडर का कोई भेद नहीं हैं. वृद्धजनों का अर्थ माता और पिता दोनों ही हैं और दोनों ही अपने बच्चों से सताये हुए हैं. इस बार वृद्धजन दिवस पर हमें, हम सबको संकल्प लेना होगा कि अबकी बार वे वृद्धाश्रम में नहीं, कौशल की पाठशाला में रह रहे होंगे. वृद्धाश्रम  को कौशल की पाठशाला में परिवर्तन ही भारतीय संस्कृति की ओर वापसी का पहला कदम होगा. नालायक बच्चों के लिए यह एक पाठ होगा कि उन्होंने कौन सा अनमोल हीरा गंवा दिया है. बाजार को अपना काम करने दीजिए, हम सब अपना काम करेंगे. एक बार कोशिश तो करके देखिए. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)

बापू कुछ मीठा हो जाए..

 

प्रो. मनोज कुमार
बापू इस बार आपको जन्मदिन में हम चरखा नहीं, वालमार्ट भेंट कर रहे हैं. गरीबी तो खतम नहीं कर पा रहे हैं, इसलिये  गरीबों को  खत्म करने का अचूक नुस्खा हमने इजाद कर लिया है. खुदरा बाजार में हम विदेशी पंूजी निवेश को अनुमति दे दी है. हमें ऐसा लगता है कि समस्या को ही नहीं, जड़ को खत्म कर देना चाहिए और आप जानते हैं कि समस्या गरीबी नहीं बल्कि गरीब है और हमारे इन फैसलों से समस्या की जड़ गरीब ही खत्म हो जाएगी. बुरा मत मानना, बिलकुल भी बुरा मत मानना. आपको तो पता ही होगा कि इस समय हम इक्कसवीं सदी में जी रहे हैं और आप हैं कि बारमबार सन् सैंतालीस की रट लगाये हुए हैं कुटीर उद्योग, कुटीर उद्योग. एक आदमी चरखा लेकर बैठता है तो जाने कितने दिनों में अपने एक धोती का धागा जुटा पाता है. आप का काम तो चल जाता था  लेकिन हम क्या करें. समस्या यह भी नहीं है, समस्या है कि इन धागों से हमारी सूट और टाई नहीं बन पाती है और आपको यह तो मानना ही पड़ेगा कि इक्कसवीं सदी में जी रहे लोगों को धोती नहीं, सूट और टाई चाहिए वह भी फटाफट... हमने गांव की ताजी सब्जी खाने की आदत छोड़ दी है क्योंकि डीप फ्रीजर की सब्जी हम कई दिनों बाद खा सकते हैं. दरअसल आपके विचार हमेशा से ताजा रहे हैं लेकिन हम लोग बासी विचारों को ही आत्मसात करने के आदी हो रहे हैं. बासा खाएंगे तो बासा सोचेंगे भी. इसमें गलत ही क्या है?
        बापू माफ करना लेकिन आपको आपके जन्मदिन पर बार बार यह बात याद दिलानी होगी कि हम इक्कसवीं सदी में जी रहे हैं. जन्मदिन, वर्षगांठ बहुत घिसेपिटे और पुराने से शब्द हैं, हम तो बर्थडे और एनवरसरी मनाते हैं. अब यहाँ भी देखिये कि जो आप मितव्ययता की बात करते थे, उसे हम नहीं भूला पाये हैं इसलिये शादी की वर्षगांठ हो या मृत्यु , हम मितव्ययता के साथ एक ही शब्द का उपयोग करते है एनवरसरी. आप देख तो रहे होंगे कि हमारी बेटियां कितनी मितव्ययी हो गयी हैं. बहुत कम कपड़े पहनने लगी हैं. अब आप इस बात के लिये हमें दोष तो नहीं दे सकते हैं ना कि हमने आपकी मितव्ययता की सीख को जीवन में नहीं उतारा. सडक़ का नाम महात्मा गाँधी रोड रख लिया और मितव्ययता की बात आयी तो इसे एम.जी. रोड कह दिया. यह एम.जी. रोड आपको हर शहर में मिल जाएगा. एम.जी. रोड रखने से हम गंतव्य तक तो पहुँच जाएंगे लेकिन रोड की जगह मार्ग रख देते तो मुश्किल आ पड़ती. लोग कहते गाँधीमार्ग पर चलना कठिन है...एम.जी. रोड ही ठीक है.. अभी तो यह शुरूआत है बापू, आगे आगे देखिये हम मितव्ययता के कैसे कैसे नमूने आपको दिखायेंगे.
        अब आप गुस्सा मत होना बापू क्योंकि हमारी सत्ता, सरकार और संस्थायें आपके नाम पर ही तो जिंदा है. आपकी मृत्यु से लेकर अब तक तो हमने आपके नाम की रट लगायी है. कांग्रेस कहती थी कि गाँधी हमारे हैं लेकिन अब सब लोग कह रहे हैं कि गाँधी हमारे हैं. ये आपके नाम की माया है कि सब लोग एकजुट हो गये हैं. आपकी किताब  हिन्द स्वराज पर बहस हो रही है, बात हो रही है और आपके नाम की सार्थकता ढूंढ़ी जा रही है. ये बात ठीक है कि गाँधी को सब लोग मान रहे हैं लेकिन गाँधी की बातों को मानने वाला कोई नहीं है लेकिन क्या गाँधी को मानना, गाँधी को नहीं मानना है. बापू आप समझ ही गये होंगेकि इक्कसवीं सदी के लोग किस तरह और कैसे कैसे सोच रखते हैं. अब आप ही समझायें कि हम ईश्वर, अल्लाह, नानक और मसीह को तो मानते हैं लेकिन उनका कहा कभी माना क्या? मानते तो भला आपके हिन्दुस्तान में जात-पात के नाम पर कोई फसाद हो सकता था. फसाद के बाद इन नामों की माला जप कर पाप काटने की कोशिश जरूर करते हैं.
बापू छोड़ो न इन बातों को, आज आपका जन्मदिन है. कुछ मीठा हो जाये. अब आप कहेंगे कि कबीर की वाणी सुन लो, इससे मीठा तो कुछ है ही नहीं. बापू फिर वही बातें, टेलीविजन के परदे पर चीख-चीख कर हमारे युग नायक अमिताभ कह रहे हैं कि चॉकलेट खाओ, अब तो वो मैगी भी खिलाने लगे हैं. बापू इन्हें थोड़ा समझाओ ना पैसा कमाने के लिये ये सब करना तो ठीक है लेकिन इससे बच्चों की सेहत बिगड़ रही है,  वो तो कह रहे हैं कर्ज लेकर घी पीओ..कभी वो किसी सोना खरीदने की बात करते हैं तो कभी उसी सोने को गिरवी रखकर घर चलाने का मशवरा देते हैं.. बापू हो सके तो इनको समझाओ ना... बच्चों की सेहत और बड़ों की मेहनत को तो बेकार ना करो... उससे तो पैसा न कमाओ. मैं भी भला आपसे ये क्या बातें करने लगा. आपको तो पता ही नहीं होगा कि ये युग नायक कौन है और चॉकलेट मैगी क्या चीज होती है. खैर, बापू हमने शिकायत का एक भी मौका आपके लिये नहीं छोड़ा है. जानते हैं हमने क्या किया, हमने कुछ नहीं किया. सरकार ने कर डाला. अपने रिकार्ड में आपको उन्होंने कभी कहीं राष्ट्रपिता होने की बात से साफ इंकार कर दिया है. आप हमारे राष्ट्रपिता तो हैं नहीं, ये सरकार का रिकार्ड कहता है. बापू बुरा मत, मानना. कागज का क्या है, कागज पर हमारे बापू की शख्सियत थोड़ी है, बापू तो हमारे दिल में रहते हैं लेकिन सरकार को आप जरूर सिपाही बहादुर कह सकते हैं. बापू माफ करना हम इक्कसवीं सदी के लोग अब चरखा पर नहीं, वालमार्ट पर जिंदा रहेंगे. इस बार आपके बर्थडे पर यह तोहफा आपको अच्छा लगे तो मुझे फोन जरूर करना. न बापू न..फोन नहीं, मोबाइल करना और इंटरनेट की सुविधा हो तो क्या बात है..बापू कुछ मीठा हो जाए...(व्यंग्य या कविता लिखना नहीं जानता लेकिन कभी-कभार मन हो जाता है. बस यूं ही.)

ठंडे मिजाज का हमदर्द शहर भोपाल

मनोज कुमार यायावरी के अपने मजे होते हैं और मजे के साथ साथ कुछ अनुभव भी. मेरा यकीन यायावरी पत्रकारिता में रहा है. यायावरी का अर्थ गाँव गाँव...