सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

media

पत्रकारिता से पवित्र पेशा और कोई नहीं
मनोज कुमार
इन दिनों पत्रकारिता को लेकर काफी बहस हो रही है। बहस यदि पत्रकारिता के कार्य और व्यवहार की आलोचना को लेकर होती तो ठीक है बल्कि उसकी सीमा को लेकर हो रही है। वे लोग पत्रकारिता की सीमारेखा की बातंे कर रहे हैं जिन्होंने हर हमेशा अपनी सीमाएं लांघी हैं। इन दिनों पत्रकारिता की आलोचना शब्दों से नहीं, बल्कि उन पर हमला कर हो रही है जिसकी किसी भी स्थिति में निंदा होनी चाहिए। मेरा अपना मानना है कि पत्रकारिता संसार का सबसे पवित्र पेशा है और वह हमेशा से अपनी जवाबदारी निभाता आया है। मुझे व्यक्तिगत रूप् से दुख है कि हमारे लोग ही एक आवाज में अपने बारे में बात नहीं कर पा रहे हैं। ग्वालियर से साथी पंकज की बातों से मैं सहमत हूं। पंकज के लिखे के बहाने एक टिप्पणी में मैं कुछ अनुभवों को सुनाना चाहूंगा कि जो लोग अखबारों से शीर्ष पर पहुंच गये और आज उसी के बूते शीर्ष पर खड़े हैं किन्तु लगभग नफरत की दृष्टि भी बनाये हुए हैं। करेगा। पंकज बहुत सुंदर लिखा है। बधाई।

मैं अपनी पत्रकारिता के आरंभिक दिनों से इसे संसार का सबसे पवित्र पेशा मानकर चला हूं। पत्रकारिता की आलोचना आज और अभी नहीं हो रही है बल्कि यह पुरानी परम्परा है। साहित्य और आलोचना का जिस तरह का साथ है लगभग पत्रकारिता में भी वही परम्परा है किन्तु इन दिनों आलोचना के नाम पर हमले हो रहे हैं। शाब्दिक और शारीरिक। संभवतः पत्रकारिता ही एकमात्र ऐसा प्रोफेशन है जिसकी आलोचना करने की आजादी सर्वाधिक है। पत्रकारिता इन आलोचना को आत्मसात करता है। मीमांसा करता है और अपने आपको सुधरने का मौका देता है। अपनी गलती मानने में भी पत्रकारिता ने कभी गुरेज नहीं किया तो समाज के कोढ़ को सामने लाने में भी वह सबसे आगे रहा। शायद यही कारण है कि समाज हर पेशे की गलती को व्यवसायिक होने का लिबास पहना कर मुक्त कर देता है किन्तु पत्रकारिता को वह नहीं बख्शता है बल्कि वह गहरे से अपने विरोध दर्ज कराता है। समाज से यहां आशय उस आम आदमी से है जिसकी आशा और निराशा अखबारों से जुड़ी होती है। उसके लिये न्याय का मंच, बहरे कानों तक बात पहुंचाने का माध्यम अखबार ही हैं। ऐेसे में वह चाहता है कि पत्रकारिता और मजबूत हो।

रही बात फिल्म लम्हा में ऐश्वर्या के नाम का इस्तेमाल करने और अमिताभ के नााराज होने की तो यह उनका व्यवसायिक मामला है और इससे फिल्म को लोकप्रियता मिलती है और अमिताभ इतने नासमझ नहीं हैं िकवे ऐसे डायलाग पर ऐतराज करें वह भी तब जब ऐश्वर्या के बहाने मीडिया पर वार किया जा रहा है। एक तीर से दो निशाने लगा है एक तरफ ऐश्वर्या की लोकप्रियता दिखायी गयी है तो दूसरी तरफ मीडिया को ऐश्वर्या के करीब लाकर खड़ा कर दिया गया है। यह एक सुनियोजित ढंंग से मीडिया को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश है। मुझे तो इस बात की खुशी है कि अनुपम खेर जैसा सकरात्मक सोच का अभिनेता ऐसे छोटे डायलाग से अमिताभ से डर रहा है। साथी पंकज क ेलेख के प्रतिक्रियास्वरूप् किसी सज्जन ने रामकृष्ण परमहंस का उदाहरण दिया है। यह ठीक उदाहरण है और मेरी समझाइश है कि अनुपम खेर रामकृष्ण परमहंस के उदाहरण से कुछ सीख लें, फिर फिल्मों के जरिये आम आदमी को सिखाने और समझाने की कोशिश करें क्योंकि एक डरा हुआ व्यक्ति आम आदमी के डर को भला कैसे और किस तरह दूर करेंगे।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

विकास के पथ पर अग्रसर छत्तीसगढ़

-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे।  किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आसान नहीं है कि यही वह छत्तीसगढ़ है जिसने महज डेढ़ दशक के सफर में चौतरफा विकास किया है। विकास भी ऐसा जो लोकलुभावन न होकर छत्तीसगढ़ की जमीन को मजबूत करता दिखता है। एक नवम्बर सन् 2000 में जब समय करवट ले रहा था तब छत्तीसगढ़ का भाग्योदय हुआ था। साढ़े तीन दशक से अधिक समय से स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करते छत्तीसगढ़ के लिये तारीख वरदान साबित हुआ। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी कुछ विश्वास और असमंजस की स्थिति खत्म नहींं हुई थी। इस अविश्वास को तब बल मिला जब तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार नही हो सका था। कुछेक को स्वतंत्र राज्य बन जाने का अफसोस था लेकिन 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता सम्हाली और छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लू प्रिंट सामने आया तो अविश्वास का धुंध छंट गया। लोगों में हिम्मत बंधी और सरकार को जनसमर्थन मिला। इस जनसमर्थन का परिणाम यह निकला कि आज छत्तीसगढ़ अपने चौतरफा विकास के कारण देश के नक्शे

शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक

  शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक                                       स्वाधीनता संग्राम और महात्मा गांधी पर केन्द्रीत है.                      गांधी की बड़ी यात्रा, आंदोलन एवं मध्यप्रदेश में                                          उनका हस्तक्षेप  केन्दि्रय विषय है.

टेक्नो फ्रेंडली संवाद से स्वच्छत

मनोज कुमार           देश के सबसे स्वच्छ शहर के रूप में जब इंदौर का बार-बार जिक्र करते हैं तो मध्यप्रदेश को अपने आप पर गर्व होता है, मध्यप्रदेश के कई शहर, छोटे जिलों को भी स्वच्छ भारत मिशन के लिए केन्द्र सरकार सम्मानित कर रही है. साल 2022 में मध्यप्रदेश ने देश के सबसे स्वच्छ राज्य का सम्मान प्राप्त किया। स्वच्छता का तमगा एक बार मिल सकता है लेकिन बार-बार मिले और वह अपनी पहचान कायम रखे, इसके लिए सतत रूप से निगरानी और संवाद की जरूरत होती है. कल्पना कीजिए कि मंडला से झाबुआ तक फैले मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बैठकर कैसे निगरानी की जा सकती है? कैसे उन स्थानों में कार्य कर रही नगरपालिका,  नगर परिषद और नगर निगमों से संवाद बनाया जा सकता है? एकबारगी देखें तो काम मुश्किल है लेकिन ठान लें तो सब आसान है. और यह कहने-सुनने की बात नहीं है बल्कि प्रतिदिन मुख्यालय भोपाल में बैठे आला-अधिकारी मंडला हो, नीमच हो या झाबुआ, छोटे शहर हों या बड़े नगर निगम, सब स्थानों का निरीक्षण कर रहे हैं और वहां कार्य करने वाले अधिकारी-कर्मचारियों, सफाई मित्रों (मध्यप्रदेश में सफाई कर्मियों को अब सफाई मित्र कहा जाता है) के