सत्ता के आगे देश बौना
मनोज कुमार
भारत के इतिहास में पहली दफा यह हुआ होगा कि किसी रेलमंत्री को बजट पेश करने के साथ ही अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। दिनेश त्रिवेदी नाम का यह रेलमंत्री ममता बेनर्जी की सरपरस्ती वाले तृणमूल कांग्रेस से सांसद थे। इसके पहले ममता बेनर्जी स्वयं रेलमंत्री थीं। रेलमंत्री की हैसियत से उन्होंने रेलवे की हालत को सुधार करने के लिये कुछ किराया बढ़ाया था जबकि पूर्ववर्ती रेलमंत्री ममता बेनर्जी ने बीते आठ बरसों में एक टका भी रेलभाड़े में बढ़ोत्तरी नहीं की थी। त्रिवेदी का यह फैसला उन्हें नागवर गुजरा और उन्हें पद से हटने का फरमान जारी कर दिया। त्रिवेदी ने साफ कह दिया कि उनका फैसला देशहित में है। वे पार्टी और पद से ऊपर देश को मानते हैं और उनका फैसला इसी के मद्देनजर लिया गया है। ममता हठ के आगे त्रिवेदी को जाना पड़ा। यह ठीक है कि इस पूरे मामले में थोड़ा समय गुजर जाने के बाद धूल पड़ जाएगी और लोग यह भूल भी जाएंगे।
जिस दौर में नायक तो दूर नेता नहीं मिल रहे हैं, उस दौर में त्रिवेदी एक आशा की किरण बनकर उभरे थे। उनका कुर्सी चला जाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि केन्द्र सरकार को त्रिवेदी जरूरी नहीं लगे बल्कि उन्हें लगा कि ममता बेनर्जी की हठ नहीं मानी गयी तो सरकार गिर जाएगी। सवाल उठता है कि सत्ता बढ़ी है अथवा देश और केन्द्र सरकार ने ममता बेनर्जी की हठ को मानकर यह जता दिया कि सत्ता के आगे देश बौना है। अपरोक्ष रूप से सरकार ने भी त्रिवेदी के फैसले को गलत माना, यह बात भी जाहिर हो जाती है। त्रिवेदी कहते रहे कि वे भारतीय रेल को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। यह सच है कि हम जिस वैश्विक दुनिया में जी रहे हैं और जिस सुख-सुविधा की हम अपेक्षा कर रहे हैं, उसकी कीमत तो चुकानी होगी। त्रिवेदी ने रेल किराया बढ़ाकर कोई अपराध नहीं किया था क्योंकि केवल सियासी विरोध को छोड़कर आम आदमी ने बहुत आगे जाकर उनका विरोध नहीं किया तो फैसला सही था।
त्रिवेदी का मंत्रीपद जाना इस बात का भी संकेत है कि अब हम राजनीति में शुचिता की कामना करना छोड़ दें। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को भी त्रिवेदी के जाने का अफसोस है और शायद उन्होंने इसलिये ही कहा कि गठबंधन सरकार में फैसला करना मुश्किल होता है। दुर्भाग्य की बात है कि राजनेताओं के भ्रष्टाचार पर हल्ला मचाने वाला मीडिया भी इस मामले को लेकर बहुत कुछ ज्यादा बोला नहीं, लिखा नहीं, कहा नहीं। मीडिया को भी सच पता है और सच यह है कि सत्ता के आगे देश बौना होता जा रहा है। त्रिवेदी ने रेलमंत्री का पद त्यागकर नेपथ्य में भले ही चले गये हों लेकिन उन्होंने उन राजनेताओं के समक्ष एक लाइन खींच दी है जिन्हें आने वाले समय में उस पर चलना होगा। त्रिवेदी के इस जनप्रिय फैसले से एक आस यह भी जगी है। जब हम राजनीति में नायक न सही, कद्दावर नेता ढूंढ़ रहे हैं तब हमें निराश होने की जरूरत नहीं है कि आज भी भारतीय राजनीति में देश के लिये सोचने वाले त्रिवेदी जैसे न केवल कद्दावर राजनेता हैं बल्कि भारतीय राजनीति के नायक भी जिनके लिये पद नहीं, देश सर्वाेपरि है।
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