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आरक्षण की राजनीति का शिकार मत बनाओ
 -मनोज कुमार
      भोपाल इन दिनों सिनेमा से सम्मोहित है। सिनेमा एक ऐसा सम्मोहन है जिससे बंधा हुआ हर कोई चला आता है। भोपाल को फिल्मसिटी बनाने की बात राजनीतिक गलियारे में दो दशक से ज्यादा समय से चल रही है किन्तु अब तक बातें ही बातें होती रही। राज्य के संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा के प्रयासों से बात अब निकल कर कागज पर आ गयी है और ज्यादा देर नहीं हुई तो हकीकत में फिल्म सिटी अस्तित्व में आ जाएगी। हाल फिलहाल फिल्म सिटी का मामला संस्कृति विभाग के जिम्मे है। फिल्मसिटी का बन जाना भोपाल के लिये अच्छा ही होगा। हुनरमंद लोगों से भोपाल बल्कि समूचा मध्यप्रदेश गौरवान्वित होता रहा है। फिल्मसिटी बन जाने से हुनरमंदों को काम भी मिलेगा और सम्मान भी। हालांकि यह सब बातें फिलवक्त कल्पना की है। फिलवक्त कल्पना की बातें इसलिये कि फिल्म अभी थियेटर पर चढ़ी नहीं है और टिकट की ब्लेक शुरू हो गई है। जी हां, जिन दो फिल्मों को देखकर हम शान से कहते हैं देखो वो मेरा भोपाल, उसी फिल्म के चंद सेकंड के दृश्य में लगभग एक्स्ट्रा की भूमिका में हमारे अपने मंजे हुए कलाकारों को देखकर भविष्य का अंदाजा हो जाता है। जिन कलाकारों को दबंग भूमिका में होना था उन्हें सपनों के सौदागरों ने लगभग एक्स्ट्रा की भूमिका में खड़ा कर दिया है। एक्स्ट्रा शब्द थोड़ा तल्ख है किन्तु सच भी यही है। मैं बात कर रहा हूं जनाब प्रकाश झा साहब की उन दो फिल्मों की जिन्हें देशभर में ख्याति मिली जिसमें पहली फिल्म राजनीति और दूसरी विवादों मंें घिरी फिल्म आरक्षण की। 
      दोनों ही फिल्मों का जादू भोपाल के वाशिंदों के सिर चढ़कर बोला। इस जादू से आम आदमी तो अभिभूत था ही बल्कि वे लोग भी अभिभूत थे जिन्हें फिल्म में एक्स्ट्रा की तरह भूमिका मिली। जिन छोटी और लगभग गुमनाम सी भूमिका निभाकर भोपाल के आले दर्जे के कलाकारों ने फिल्म में अपनी मौजूदगी का जो संतोष पाया, उसका सुख वही बता सकते हैं किन्तु मैं व्यक्तिगत तौर पर नहीं समझता कि जिस आलोक चटर्जी को एनएसडी में बेहतरीन अभिनय के लिये गोल्ड मेडल मिला हो, उन्हें गुमनाम सी भूमिका में होना चाहिए। आलोक जैसे पहले पंक्ति के अभिनेता को नामालूम सी भूमिका के लिये प्रकाश झा ने किन शर्तों पर तैयार किया, यह भी मैं नहीं जानता किन्तु यह जरूर जानता हूं कि प्रकाश झा ने एक आले दर्जे के कलाकार को नेपथ्य में खड़ा कर दिया। आलोक ही क्यों, बच्चों के चच्चा, मशहूर नाट्य निर्देशक और बेहतरीन कलाकार केजी त्रिवेदी भी आरक्षण में हाशिये पर खड़े दिखायी दिये। कुछ ऐसा ही हाल भोपाल के दूसरे आले दर्जे के कलाकारों के साथ हुआ है। पहले राजनीति में और इसके बाद आरक्षण में।
      यह तथ्य को भी याद रखना चाहिए कि प्रकाश झा और दूसरे सिनेमाई दिग्गज २०११ में फिल्म बनाने आ रहे हैं लेकिन रजतपट पर मध्यप्रदेश का दखल बीते कई दशकों से रहा है। लता मंगेशकर से लेकर किशोर कुमार और जया भादुड़ी से लेकर जॉनी वाकर रजत पट के सितारे हैं तो मध्यप्रदेश को इन पर गर्व है। ये तो महज बानगी है, फेहरिस्त तो इतनी लम्बी है कि नाम गिनाते गिनाते ही सूची लम्बी बन जाए। इन सभी लोगों ने रजत पट पर अपनी छाप छोड़ी है। अविभाजित मध्यप्रदेश और विभाजन के बाद बने छत्तीसगढ़ राज्य के प्रतिभा सम्पन्न कलाकारों ने रजतपट पर अपनी जगह बनायी है। बहुत समय नहीं गुजरा जब पीपली लाइव ने पूरे देश का ध्यान खींचा तो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कलाकारों के कारण। हमारे कलाकार केनवास में गढ़े नहीं गये हैं बल्कि उनका रिश्ता जमीन से है और एक जमीन का कलाकार जब मंच पर आता है या पर्दे पर तो वह अपनी अदायगी से सबको मोह लेता है। इन सभी लोगों को रजतपट पर सम्मानजनक स्थान मिला क्योंकि ये लोग मुंबई में चुनौतियों से जूझते हुए अपनी जगह बनायी। 
      मध्यप्रदेश को हिन्दुस्तान का दिल कहा जाता है और इस प्रदेश का निर्माण देश के विभिन्न भूभागों को मिलाकर हुआ है। एक बड़े हिन्दी प्रदेश का गौरव प्राप्त इस प्रदेश की तकनीकी कठिनाई यह है कि यह अलग अलग बोली और भाषाओं का प्रदेश है और यहां बनने वाली हर फिल्म का स्वरूप प्रादेशिक न होकर आंचलिक होता है। मसलन बुंदेलखंडी, मालवी आदि इत्यादि। मध्यप्रदेश को प्रतिबिम्बित करने वाली फिल्म का निर्माण में बाधा है जबकि राजस्थान, बिहार, यूपी और अभी हाल में बने छत्तीसगढ़ भी इस तकनीकी दिक्कत से मुक्त है। यदि यह दिक्कत नही होती तो मध्यप्रदेश अन्य प्रदेशांे की तरह फिल्म निर्माण में झंडे गाड़ रहा होता। 
      बहरहाल, बात साफ है कि ये सिनेमा बनाने वाले भोपाल पर फिदा होकर नहीं आ रहे हैं बल्कि पूरा हिसाब-किताब लगाकर आ रहे हैं। कास्ट कटिंग के इस दौर में भोपाल में फिल्म बनाना न केवल इनके लिये सस्ता सौदा है बल्कि रजतपट पर अपना चेहरा दिखाने की ख्वाहिश लिये जवान, प्रतिभावान कलाकार और तकनीकीशियन मुफ्त में अथवा मुफ्त के भाव मिल जाते हैं। अस्पताल, होटल, गाड़ी, मजदूर और लगभग इसी मुफ्त के भाव में स्थानीय अखबारों और पत्रिकाओं में पब्लिसिटी। यह बात तो तय है कि इतनी सुविधाएं इन सौदागरों को मुंबई में मयस्सर नहीं है और ऐसे में मध्यप्रदेश के दिल में फिल्मसिटी बनाये जाने का ख्वाब जग जाए तो सपनों के इन सौदागरों के तो पौबारह हो रहे हैं। भोपाल में फिल्मसिटी अभी प्रोसेस में है किन्तु पहली पंक्ति के कलाकारों को एक्स्ट्रा जैसी भूमिका में रखने की शुरूआत हो गई है। यह रस्मी शुरूआत नहीं है बल्कि यह एक परम्परा की नींव डालने की शुरूआत है। सवाल गंभीर है और इस पर अभी से बहस-मुबाहिसा होना चाहिए। जिन कलाकारों के अभिनय को देखकर हम मंत्रमुग्ध हो जाते हैं, उन्हें इस तरह अभिनय करते देख मन रो उठता है। सिनेमाई सौदागरों की यह राजनीति और फिल्म में आरक्षण की इस परम्परा का यहीं अंत होना चाहिए। 
      याद कर लीजिए इसी षहर का एक आदमी इन्हीं सौदागरों से मुंहमांगी कीमत वसूलता है और उन्हें देना पड़ता है। इस शख्स का नाम है जयंत देशमुख। जयंत भारत भवन से चमकने वाला एक तारा है जिसने खुद को साबित करने के लिये मुंबई की ट्रेन पकड़ ली। रायपुर से भोपाल और भोपाल से मुंबई के बीच का सफर जयंत के लिये आसान नहीं रहा होगा। चुनौतियों से जूझते जयंत के पास प्रतिभा थी और स्वयं पर विश्वास। आखिरकार उसने जगह बना ली। संभव है कि जयंत को अब इन लोगों से नहीं बल्कि इन लोगों को जयंत से समय लेने के लिये टेलीफोन करना पड़ता होगा। राजीव वर्मा भी इसी शहर से हैं। आला दर्जे के अभिनेता हैं और भोपाल रंगमंच में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। भले ही वे अभिताभ बच्चन के नातेदार हांे लेकिन मुंबई में अपने लिये स्पेस बनाने में उन्हें भी संघर्ष करना पड़ा होगा। उन्होंने किसी भी फिल्म अथवा टेलीविजन सीरियल में गुमनाम किरदार की भूमिका नहीं निभायी। टीवी सीरियल चुनौती से अपना अभिनय शुरू करने वाले राजीव वर्मा ने राजश्री की फिल्मों में सम्मानजनक भूमिका निभायी है। उनका यह सिलसिला अब तक जारी है और बना रहेगा। 
      जयंत देशमुख एवं राजीव वर्मा की मिसाल इसलिये दी जा रही है कि रजतपट पर अपनी जगह बनाने के लिये चुनौतियों का सामना इन्हें करना पड़ा था और जो लोग इस सम्मोहनी दुनिया मंे आना चाहते हैं उन्हें भी इन चुनौतियों का सामना करना होगा। सिनेमा का सम्मोहन आपको खींचता है तो आपको संघर्ष के लिये स्वयं को तैयार करना होगा। इन सौदागरों को बताना होगा कि जिन्हें आप मुंबई से ढोकर लाते हैं, जिन्हें आप प्रतिभावान कहते हैं, हमारी प्रतिभा उन्हें कम नहीं है। एक बार हम पर दांव तो खेलकर देखिये जनाब। यह सब आसान नहीं है किन्तु शुरूआत तो करनी ही होगा। हमें अपनी कीमत खुद आंकनी होगी। हम तय करेंगे अपना मोल। फिल्म मुंबई मंे बने या भोपाल में, हम कलाकार फिल्म में आएंगे तो छा जाने के लिये। कुछ पल में गुम हो जाने के लिये नहीं। भीड़ में खो जाने के लिये नहीं। जिस तरह के अभिनय की जगह रंगमंच के हमारे पहले पंक्ति के कलाकारों को दी जा रही है, उसे न करना ही बेहतर होगा। ना करना भी हमारे इन उम्दा कलाकारों को सीखना होगा।  

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