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दलित चेतना के प्रेरणास्रोत डॉ. भीमराव अम्बेडकर

मनोज कुमार
डॉ. अम्बेडर ने सामाजिक न्याय और सामाजिक विषमताओं के प्रति चेतना उद्वेलित कर एक दिषा देने की पहल सौ वर्ष से कुछ कम साल पहले ही कर दी थी। यह समय था जब भारत पराधीन था। वे यह मानते थे कि दलित समाज की स्वीकार्यता तब संभव होगी जब वह आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर स्वतंत्र होगा। इस सोच के साथ वे दलित समाज को सषक्त और सक्रिय बनाने में जुट गये। उनकी सक्रियता का ही परिणाम था कि भारतीय संविधान निर्मात्री सभा की प्रारूप समिति की अध्यक्षता करने का अवसर मिला और बाद में वे भारत के कानून मंत्री भी बनें। भारतीय संविधान का निर्माण करने वाले डॉ. अम्बेडकर आज न केवल दलित समाज के लिये बल्कि समूचे भारतीय समाज के प्रेरणास्रोत के रूप में याद किये जाते हैं।
डॉ. अम्बेडकर स्वयं उस वर्ग के थे, जो सामाजिक अन्याय, कुरूपताओं, विषमताओं और वंचनाओं के भुक्तभोगी थे, और इन्हीं विषमताओं ने उन्हें निरन्तर लड़ने और उन्हें दूर करने की शक्ति दी। अम्बेडकर जीवनभर सामाजिक समरसता की बात करते रहे। वे चाहते थे कि दलित वर्ग को समाज की मुख्यधारा में षामिल किया जाए और उन्हें भी वही अधिकार प्राप्त हों जो समाज की मुख्यधारा के लोगों को है। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि दलितों को समाज में समानता का अधिकार तभी मिल सकता है जब वे षिक्षित होंगे। विकास के लिये वे षिक्षा को पहली सीढ़ी मानते थे। वे अपने जीवनकाल में दलित समाज में षिक्षा के प्रसार के लिये अनेक स्तरों पर प्रयास किया। दलित समाज को जागरूक बनाने के लिये उन्होंने एक अखबार का प्रकाषन-सम्पादन भी किया। 1923 मंे ’बहिष्कृत भारत’ नाम से अखबार का प्रकाषन आरंभ किया। इस अखबार के माध्यम से अपने विचारों को आम आदमी तक पहुंचाने का प्रयास किया। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि किताबें मनुष्य को विचारवान बनाती हैं। उन्होंने दलित समाज से अवगत कराने के लिये कुछ किताबों का लेखन भी किया जिसमें दी अनटेचेनल्स, हू आर दे, हू आर दी शुद्रा, दस स्पोक अम्बेडकर, इमेनसिपेशन आफ दी अनटेचेनल्स प्रमुख हैं।

डॉ. अम्बेडकर ने दलितों की स्थिति को सुधारने के लिये दलित स्त्रियों की भूमिका को महत्वपूर्ण माना। 20 मार्च, 1927 को महद में आयी स्त्रियों को अम्बेडकर का सम्बोधन था, ”कभी मत सोचो कि तुम अछूत हो, साफ-सुथरे रहो जिस तरह के कपड़े सवर्ण स्त्रियां पहनती हैं, तुम भी पहनो। यह देखो कि वे साफ है यदि तुम्हारे पति शराब पीते हैं तो उन्हें खाना मत दो। अपने बच्चों को स्कूल भेजो। शिक्षा जितनी जरूरी पुरूषों के लिये है उतनी ही स्त्रियों के लिये भी आवश्यक है। यदि तुम लिखना-पढ़ना जान जाओ, तो बहुत उन्नति होगी। जैसी तुम होगी, वैसे ही तुम्हारे बच्चे बनेंगे। अम्बेडकर के इन प्रयासों का असर दलित समाज पर हुआ और उनमें बदलाव देखा जाने लगा। डॉ. अम्बेडकर जाति व्यवस्था के घोर विरोधी थे। जाति व्यवस्था को तोड़ने के लिये उनका सुझाव था पुजारी एक जाति से नहीं होना चाहिये बल्कि इस पद को प्रजातांत्रिक बना दिया जाना चाहिये। उनका विश्वास था कि यह कदम जाति व्यवस्था को तोड़ देगा। वे इस बात पर भी जोर देते थे कि जाति प्रथा को नष्ट करने का एक ही मार्ग है अन्तर्जातीय विवाह न कि सहभोज। खून का मिलना ही अपनेपन की भावना ला सकता है।

भारतीय संविधान में 15,16 और 17 अनुच्छेद में उन्होंने दलित विद्यार्थियों के लिये कई सिफारिषें की थीं। 1930 की एक समिति ’स्टारेट समिति’ में देखा जा सकता है। जहाँ सदस्य के रूप में उन्होंने सुझाव दिया था, ’दलित छात्रों के वजीफो की संख्या बढ़ाई जाये, उनके छात्रावासों की व्यवस्था की जाये, उन्हें कारखानों, रेलो की कार्यशालाओं और अन्य ट्रेनिंग के लिये वजीफे दिये जाये, विदेश में इंजीनियरिंग पढ़ने के लिये वजीफा दिया जाये और सभी कार्यों की देखभाल के लिये एक अधिकारी नियुक्त किया जाये। यहीं पृष्ठभूमि आगे चल कर राज्य के सामाजिक अन्यायों को दूर करने के लिये एक हस्तक्षेप की भूमिका का आधार बने।

डॉ. अम्बेडकर ने दलित समाज के विकास के लिये जो पहल की है, आज उसका ही प्रभाव है कि केन्द्र और राज्य सरकारें दलित समाज के विकास के लिये आगे आकर कोषिषें कर रही हैं। हालांकि यह कोषिषें जरूरत के अनुरूप नहीं हैं। इसे विस्तार देने की जरूरत है। साथ ही राजनीति दलों की इस मानसिकता को भी बदलने की जरूरत है कि दलित समाज वोटबैंक है बल्कि इन्हें भी समाज की मुख्यधारा में षामिल कर संविधान के अनुरूप उन्नति का अवसर प्रदान किया जाए। दलित समाज में षिक्षा का विस्तार हो रहा है और यही षिक्षित दलित समाज स्वयं होकर अपना अधिकार लेगी, यह उम्मीद की जाना चाहिए। डॉ. अम्बेडकर का सपना यही था कि दलित, दलित न रहकर मुख्यधारा में मिल हो जाएं।

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