-मनोज कुमार
शब्दों की अपनी ताकत होती है और यही शब्द कभी फूल की तरह रिश्तों को महकाते हैं तो कभी शूल की तरह चुभते भी हैं. तथाकथित अंग्रेजी शिक्षा के मारे हम लोग अपने देशज बोली-बात को भुलकर उनकी नकल करने पर उतारू हैं. इस नकलीपन से हम नकली अंग्रेजियत को तो ओढ-बिछा रहे हैं लेकिन असली दुनिया से दूर होते जाते हैं. जब कभी मैं अपने आसपास छोटे बच्चों से आप संबोधन से बात करते सुनता हूं तो मितली सी आने लगती है. बच्चों से जब तक तु-रे से बात न करो, मिठास का रिश्ता बनता ही नहीं है. जवान होती बेटी अपनी अम्मां से कभी जब लडिय़ाने पर उतर आती है तो अम्मां तु ऐसा मत कर जैसे वाक्य उसके मुंह से झरने लगते हैं. यहीं पर आकर मां-बेटी का रिश्ता दोस्ती में बदल जाता है. बेटी मां से खुल जाती है और वह दोनों एक अच्छे दोस्त बन जाते हैं. बच्चों के साथ भी यही है. स्वयं को आप का संबोधन पाकर वे खुद होकर दूरी बना लेते हैं. गांव-कस्बों में आज भी बड़ों को तुम कह कर संबोधित किया जाता है तो इसके पीछे उनका मान गंवाना नहीं है बल्कि रिश्ते की मिठास को बढ़ाना है.
हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि हमारे पास हर रिश्तों के लिये अलग-अलग शब्द बने हुये हैं. अंग्रेजी की तरह कंगाल नहीं. अंग्रेजी में तु, आप और तुम के लिये एक ही शब्द है यू. अब इस यू को हमने बच्चों से लेकर बड़ों तक के लिये गढ़ लिया आप में. ऐसे ही चाचा-चाची, मौसा-मौसी, मामा-मामी, दादा-दादी, जैसे संबोधन हमारे रिश्तों को महकाते हैं तो इन्हीं के लिये अंग्रेजी में अंकल-आंटी और इससे आगे ग्रेंड पापा और ममा हैं. यकिन कीजिये अंग्रेजी के इन शब्दों को बोलते हुए मुंह में जैसे कुनैन की गोली आ जाती है लेकिन जब चाची कहते हैं तो मन उल्हास से भर जाता है. सिस्टर बोलते समय अस्पताल का नजारा घूम जाता है लेकिन बहन या जीजी बोलते समय अपनेपन का अहसास होता है. ये देशज शब्द ही हैं जो हमारी खूबसूरत दुनिया गढ़ते हैं. शब्दों के विनाश के साथ ही हमारी सतरंगी दुनिया जैसे एक खाने में कैद हो जाएगी. जिस तरह इंटरनेट ने पूरी दुनिया के लिये विश्व ग्राम शब्द खोज निकाला है, वैसा ही हम एकजगह सिमट कर रह जाएंगे.
हम लोग एक दिन या एक त्योहार नहीं मनाते हैं. साल के तीन सौ पैंसठ दिन हमारे लिये उत्सव का होता है. बल्कि दिन के चारों पहर हमारे लिये उत्सव का होता है. भोर होते ही सूर्यदेव की अराधना, दोपहर ढलते ही अन्नपूर्णा की अराधना, सांझ ढलते ही देव आराधना और शाम होते ही चंद्रदेव का स्वागत. जिस समाज में हर पहर उत्सव का हो, जिस समाज में रिश्तों की गर्माहट के लिये शब्दों का संसार बना हो, वहां अंग्रेजी के बहुत मरे-मरे और उत्साहीन शब्दों से रिश्तों की मिठास और गर्माहट कम ही होती है. मैं तो अपने देशीपन में ही मस्त रहना चाहता हूं. अम्मां मेरे लिये सार्थक है, ममा का क्या करूंगा और धर्मपत्नी ही ठीक है वाइफ कहा तो कहीं नाइफ न बन जाये. मेरे देहातीपन को आप मंजूर कर ही लेना क्योंकि मुझे अंगरेजी नहीं आती है..
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें