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जल परम्परा और बाजार


मनोज कुमार
एक समय था जब आप सफर पर हैं तो पांच-दस गज की दूरी पर लाल कपड़े में लिपटा पानी का घड़ा आपकी खातिरदारी के लिए तैयार मिलेगा. पानी के घड़े के पास जाते हुए मन को वैसी ही शीतलता मिलती थी, जैसे उस घड़े का पानी लेकिन इस पाऊच की दुनिया में मन पहले ही कसैला हो जाता है. आज समय बदल गया है. जेब में दो-दो रुपये के सिक्के रखिये और किसी दुकानदार से पानी का पाऊच मांगिये. पानी का यह पाऊच आपकी प्यास तो थोड़ी देर के लिए शांत कर सकता है लेकिन मन को शीतलता नहीं दे सकता है. आखिर ऐसा क्या हुआ और क्यों हुआ कि हमने अपने आपसे इस घड़े को परे कर दिया है? पानी का यह घड़ा न तो पर्यावरण को प्रदूषित करता था और न ही शरीर को किसी तरह का नुकसान पहुंचाता था. देखते ही मन को भीतर ही भीतर जो खुशी मिलती थी, वह कहीं गुम हो गई है, उसी तरह जिस तरह लाल कपड़े में लिपटा पानी का घड़ा लगभग गुम हो गया है. 
इस घड़े का गुम होते जाना, सिर्फ एक घड़े का गुम हो जाना नहीं है बल्कि एक संस्कार का और परम्परा का गुम हो जाना है. जो लोग इस बात को तो हवा दे रहे हैं कि अबकी विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा, क्या वे लोग इस घड़े को बचाने में अपना कोई योगदान दे रहे हैं? ऐसे लोग एक माहौल क्रियेट करते हैं और लोगों के मन में डर पैदा करते हैं. यह डर अकारण नहीं है बल्कि बाजार का दबाव उन्हें इस सुनियोजित साजिश का हिस्सा बनाता है. सवाल यह है कि अनुपम मिश्र की तरह आप तालाब आज भी खरे हैं कि तर्ज पर पानी की चिंता क्यों नहीं करते हैं? क्यों जलस्रोतों को बचाने की मुहिम में हिस्सेदार नहीं बनते हैं? मॉल और बड़ी बिल्डिंगों के नीचे कराहते हमारे जलस्रोत अपने को बचा लेने की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन हम उन्हें अनसुनी कर आगे बढ़ लेते हैं.
अभी सूरज की तपिश बढ़ी नहीं है लेकिन हौले-हौले उसकी गर्मी का अहसास होने लगा है और इसी अहसास के साथ पानी का संकट बढऩे लगा है. पानी का यह संकट लोगों के चेहरे से ‘पानी’ उतार रहा है. एक मटका पानी के लिए पिछले सालों में कई जानों पर बन आयी थी. पानी के लिए पानी-पानी होते लोगों का यह नया व्यवहार अब नया नहीं रहा. साहबों की गाडिय़ों की धुलाई में अनगित लीटर पानी का खर्च और निचली बस्तियों में रहने वाले एक गरीब के बर्तन से गायब होता पानी आज का सच है. पानी का कम होते जाना एक बड़ा संकट है किन्तु संकट इससे भी बड़ा यह है कि हम आज तक पानी के जतन के लिए जाग नहीं पाये हैं. लाल कपड़े में लिपटा पानी का घड़ा भारतीय समाज की जरूरत ही नहीं बल्कि संस्कार है. यहीं से यह संस्कार पानी के जतन की शिक्षा देता है. जरूरी है कि छोटे-छोटे प्रयासों से पानी को जीवन दें, लाल कपड़े में लिपटे पानी के घड़े को दिखने दें. ऐसा नहीं किया तो पानी के फेर में अब किसी के चेहरे पर ‘पानी’ नहीं रह जाएगा. तब कैसे कहेंगे पानीदार समाज?
भारत गांवों का देश रहा है और अभी भी भारत ग्रामीण परिवेश में ही जीता है। ग्रामीण परिवेश का सीधा सा अर्थ है एक बंधी-बंधायी परम्परा की जीवन शैली। इस परम्परागत जीवनशैली को करीब से देखेंगे तो आप यह जान पायेंगे कि वे शहरी जीवनशैली से कहीं अधिक समृद्ध हैं। वे बाजार के मोहताज नहीं हैं बल्कि वे अपनी परम्परा को बाजार से एकदम परे रखे हुये हैं और यही कारण है कि अनेक किस्म की समस्याओं के बावजूद उनका जीवन तनावपूर्ण नहीं है। जहां तक जल संरक्षण की चर्चा करते हैं तो सर्वाधिक जल स्रोत ग्रामीण क्षेत्रों में ही मिलेंगे। पानी उनके लिये उपयोग की वस्तु नहीं है बल्कि पानी उनके लिये जल-देवता है और वे उसका जीवन जीने के लिये उपयोग करते हैं न कि उसका दुरूपयोग। ग्रामीण परिवेश में जीने वाले अधिसंख्य लोग अपनी किसी उपलब्धि पर आयोजन में खर्च नहीं करते हैं बल्कि पानी के नये स्रोत बनाने के लिये करते हैं। पुराने जल स्रोतों के नाम देख्ेंगे तो आपको किसी न किसी पुराने परिवार के सदस्यों के नाम का उल्लेख मिलेगा। सेठानी घाट कहां है, यह आप से पूछा जाये तो आप हैरानी में पडऩे के बजाय नर्मदाजी के नाम का उल्लेख करेंगे क्योंकि यह सेठानी घाट प्रतीक है उस जलसंरक्षण की परम्परा का जहां बिटिया का ब्याह हो, घर में नया सदस्य आया हो या किसी ऐसे अवसर को परम्परा के साथ जोडक़र जलस्रोतों का निर्माण किया जाता रहा है। गांवों से निकलकर जब हम कस्बों की तरफ बढ़ते हैं तो यहां भी जल संरक्षण परम्परा का निर्वाह करते हुये लोग दिख जाते हैं। जिन पुरातन जल स्रोतों में गाद भर गयी है अथवा उसके जीर्णोद्धार की जरूरत होती है तो लोग स्वयमेव होकर श्रमदान करते हैं। इन श्रमदानियों में कस्बे का आम आदमी तो होता ही है अपितु बुद्धिजीवी वर्ग जिसमें शिक्षक, पत्रकार, समाजसेवी आदि-इत्यादि सभी का सहयोग मिलता है। यह है भारतीय जल संरक्षण की पुरातन परम्परा।

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