मनोज कुमार
सुबह-सबेरे दवा खाते समय जब मेरी बिटिया कहा कि पापा, ये छोटी-छोटी गोलियां कितना असर करती हैं ना? वह ऐसा कहते हुए कांधे पर अपने वजन से ज्यादा बोझ वाला बैग टांगे स्कूल की तरफ चल पड़ी लेकिन अपने पीछे मेरे लिए सवालों का पहाड़ छोड़ गयी. मैं सोचने लगा कि क्या आप एक बार में एक पूरी रोटी खा सकते हैं? क्या एक बार में आप पांच या पचास सीढ़ी चढ़ सकते हैं? गाड़ी कितनी भी आरामदेह हो, क्या आप अकेले गाड़ी की पूरी सीट पर अकेले बैठ सकते हैं? सबका जबाब पक्के में ना में ही होगा. ना में इसलिए कि जिंदगी को एकसाथ हम जी नहीं सकते हैं. हम जिंदगी को टुकड़ों में जीते हैं. जिंदगी ही क्यों, इससे जुड़ी हर चीज को हम टुकड़े ना कहें तो छोटे-छोटे हिस्सों में पाते हैं. आप कितने भी धनी हों, आपके सामने पकवान का ढेर लगा हो लेकिन आप छोटे-छोटे निवाला ही खा पाएंगे. ना तो एक पूरी रोटी एक बार में गले से नीचे उतरेगी और न कोई मिष्ठान. सीढिय़ां भी आप एक साथ नहीं चढ़ सकते हैं. एक-एक करके आप सीढ़ी चढ़ते हैं और आपके पास कितनी भी महंगी और सुविधाजनक कार हो, आप एक कोने की सीट में ही बैठते हैं. इसका मतलब तो हुआ कि हमारी पूरी जिंदगी छोटी-छोटी बातों से बनती है.
छोटी-छोटी बातों से बनती जिंदगी बेहद खूबसूरत होती है. पहला अक्षर मां से सीखते हैं लेकिन मां कितनी बड़ी दुनिया होती है, यह हमें एक उम्र पूरी कर लेने के बाद पता चलता है. कक्षा में अ, आ से हम सीखना शुरू करते हैं और लम्बे अभ्यास के बाद कुछ पढऩे-लिखने के काबिल बनते हैं. मैं सोचता चला जा रहा हूं. जब हमारी जिंदगी छोटी-छोटी बातों से है तो हम दुखी क्यों हैं? क्यों हमारे सपने अधूरे रह जाते हैं? क्यों हमारी हसरतें पूरी नहीं हो पाती हैं? क्यों हमें अपनी मंजिल को पाने के लिए मशक्कत करना पड़ती है, बावजूद हम मुस्करा नहीं पाते हैं. सपने और सच के बीच के इस फासले का कारण अब मुझे कुछ कुछ समझ आने लगा था. मुझे लगने लगा था कि हम सबकुछ एक साथ पा लेना चाहते हैं. जिंदगी की बुनियादी बातों को हम दरकिनार कर देते हैं और छोटी-छोटी बातों से बनने वाली जिंदगी को हम बड़े सपने और बड़ी बातों में उलझा देते हैं. सच को सच, मानने के बजाय हम सपनों को उलझनों में डाल देते हैं.
किशोरवय के हमारे बच्चे इन दिनों छोटी सी असफलता से निराश होकर जान क्यों देने लगे हैं? यह सवाल मेरे लिए यक्ष प्रश्र की तरह था लेकिन बिटिया की बातें सुनकर जैसे मुझे जवाब मिल गया. छोटी असफलता बच्चों को डराती नहीं है बल्कि उनके सामने सपनों का पहाड़ रख दिया जाता है. जो मां-बाप कभी अव्वल दर्जे में परीक्षा उत्तीर्ण न की हो, वह बच्चे में सपना पालने लगते हैं. वे भूल जाते हैं कि उनके भीतर जितनी योग्यता है, उनका बच्चा उनसे कहीं ज्यादा योग्य है लेकिन वे इस सच को कबूल नहीं कर पाते हैं. मां-बाप कई कारणों से अपने छोटे-छोटे सपने सच नहीं कर पाये तो बच्चों से अपेक्षा पाल लेते हैं. जिंदगी की छोटी-छोटी बातों को भूल जाने के कारण ही मां-बाप के सपनों के बोझ के तले बच्चे कुचल जाते हैं. उनके सपने तो सपने, उनकी सांसें भी थम जाती है. और यहीं से फिर जिंदगी शुरू होती है छोटी-छोटी बातों से. मां-बाप को बच्चे के जाने के बाद याद आता है कि उनका बच्चा क्या बनना चाहता था, उसके सपने क्या थे, उसकी पसंद और नापसंद क्या थी लेकिन तब तक समय आगे निकल चुका होता है.
सच ही तो है कि हम किताब के पन्ने एक साथ नहीं पढ़ सकते. एक वाक्य पूरा पढऩे के बाद दूसरा वाक्य और इस तरह आगे बढ़ते हुए हम पूरी किताब पढ़ लेते हैं. जिंदगी किसी किताब से क्या कम है? इसे भी तो एक एक वाक्य की तरह ही पढऩा होगा. जीने के लिए बड़े सपने देखना बुरा नहीं है लेकिन सपने को सच करने के लिए बेबी स्टेप लेना होगा. कामयाबी मुश्किल नहीं लेकिन हर बार हमें कछुआ और खरगोश की कहानी से सबक लेकर कामयाबी की तरफ कदम बढ़ाना होगा. छोटी-छोटी बातों से जिंदगी का जो ताना-बाना बनता है, जो जिंदगी बुनी जाती है, वह आपको सुकून देती है. सफलता देती है. धूप मेें पसीना बहाता, बारिश में भीगता, ठंड में ठिठुरते हुए भी एक आम आदमी के चेहरे पर मुस्कान दिखती है तो छोटी-छोटी बातों से. जिंदगी का यह फलसफा पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की उस कविता में झलकती है जिसमें कहा गया है कि चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं, चाह नहीं मैं देवों के शीश पर चढक़र इठलाऊं. क्या आज से हम अपनी जिंदगी नहीं, सोच की शुरूआत छोटी-छोटी बातों से करेंगे?
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