सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

यह समय परखने का नहीं, साथ चलने का है

मनोज कुमार

        कोरोना महामारी को लेकर आज जो भयावह स्थिति बनी हुई है, वह किसी के भी अनुमान को झुठला रही है. एक साल पहले कोरोना ने जो तांडव किया था, उससे हम सहम गए थे लेकिन बीच के कुछ समय कोरोना का प्रकोप कम रहने के बाद हम सब लगभग बेफिक्र हो गए. इसके बाद ‘मंगल टीका’ आने के बाद तो जैसे हम लापरवाह हो गए. हमने मान लिया कि टीका लग जाने के बाद हमें संजीवनी मिल गई है और अब कोरोना हम पर बेअसर होगा. पहले टीका लगवाने में आना-कानी और बाद में  टीका लग जाने के बाद मनमानी. यह इस समय का कड़ुवा सच है. सच तो यह भी है कि यह समय किसी को परखने का नहीं है बल्कि एक-दूसरे का हाथ थाम कर साथ चलने का है. लेकिन हम ऐसा नहीं कर रहे हैं. हम व्याकुल हैं, परेशान हैं और हम उस पूरी व्यवस्था को परखने में लगे हुए हैं जिसके हम भी हिस्सेदार हैं. यह मान लेना चाहिए. सोशल मीडिया में व्यवस्था को कोसने का जो स्वांग हम रच रहे हैं, हकीकत में हम खुद को धोखा दे रहे हैं. हम यह जानते हैं कि जिस आक्रामक ढंग से कोरोना का आक्रमण हुआ है, उससे निपटने में सारी मशीनरी फेल हो जाती है. फिर हमें भी इसकी कमान दे दी जाए तो हम भी उसी फेलुअर की कतार में खड़े नजर आएंगे. एक वर्ष पहले जब कोरोना ने हमें निगलना शुरू किया था, तब हमारे भीतर का आध्यात्म जाग गया था. हम र्नििर्वकार हो चले थे. हमें लगने लगा था कि एक-दूसरे की मदद में ही जीवन का सार है लेकिन जैसे-जैसे कोरोना उतार पर आया, वही आपाधापी की जिंदगी शुरू हो गई. एक-दूसरे को पीछे छोडक़र आगे बढऩे की जद्दोजहद शुरू हो गई.
        आज जब हालात एक बार फिर बेकाबू हो चला है तब हमारे निशाने पर सरकार और सरकारी तंत्र है. यह स्वाभाविक भी है. दवा, ऑक्सीजन, बिस्तर की कमी बड़े संकट के रूप में हमारे सामने हैं. इसके अभाव में लोग मरने को मजबूर है तो सरकार पर गुस्सा आना गलत नहीं है. सरकार से समाज की अपेक्षा गलत नहीं है लेकिन क्या आलोचना से स्थिति बेहतर हो सकेगी? शायद नहीं. समय-समय पर तर्क और तथ्यों के साथ तंत्र की कमजोरी उजागर करना हमारी जवाबदारी है. ऐसा जब हम करते हैं तो सरकार की आलोचना नहीं होती बल्कि हम सरकार के साथ चलतेे हुए सचेत करते हैं. बिगडैल और बेकाबू तंत्र की कमजोरी सामने आते ही सरकार चौकस हो जाती है. शायद ऐसा करने से समाज में एक तरफ सकरात्मकता का भाव उत्पन्न होता है तो दूसरी तरफ हम एक जिम्मेदार समाज का निर्माण करते हैं. चुनाव में बेधडक़ जमा होती भीड़ के लिए हम सयापा करते रहे लेकिन अपने-अपने घरों से निकल कर कितने लोगों ने भीड़ को वहां जाने से रोका? भीड़ राजनीतिक दलों की ताकत होती है लेकिन इस भीड़ को नियंत्रण करने के लिए हमारी कोशिश क्या रही? कोरोना के आने से लेकर अब तक के बीच में जिस तरह सभा-संगत, प्रदर्शनी और मेले-ठेले सजते रहे, उनका कितनों ने विरोध किया? तब हम सबको लग रहा था कि कोरोना खत्म हो गया है. जीवन अब पटरी पर है और जीवन है तो जीवन में उत्सव भी होना चाहिए. आज हमारे सामने यक्ष प्रश्र यह है कि सरकार ने बीते साल भर में कोई इंतजाम क्यों नहीं किया? बात में दम तो है लेकिन हमने सरकार इस इंताजम को पुख्ता करने के लिए कभी याद दिलाया? आज कोरोना का यह भयावह चेहरा नहीं आता तो सबकुछ ठीक था लेकिन आज सब खराब है. बात खरी है लेकिन चुभेगी.
        लगातार ड्यूटी करते पुलिस वाले, नगर निगम के कर्मचारी, डॉक्टर, नर्स और इनके साथ जुड़े लोग पस्त हो चुके हैं लेकिन वे अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद हैं. इसके बाद भी छोटी सी चूक पर हम उनके साथ दो-दो हाथ करने के लिए खड़े हो जाते हैं. निश्चित रूप से काम करते करते कुछेक गलतियां हो सकती है तो इसका यह अर्थ नहीं कि हम उनके इतने लम्बे समय से किए जा रहे सेवा कार्य को भुला दें. एक डॉक्टर आहत होकर इस्तीफा देने के लिए मजबूर हो जाता है, यह बात जोर-शोर से उठती है और उठनी भी चाहिए लेकिन इसके बाद इन डॉक्टरों को और मेडिकल स्टॉफ को सुरक्षा मिले, इस पर हम कोई बातचीत नहीं करते हैं? पूरे प्रदेश में दो या तीन पुलिस की ज्यादती की आधा-अधूरा वीडियो वॉयरल होता है और हम मान लेते हैं कि पुलिस अत्याचार कर रही है. कभी इस बात की चिंता की कि पुलिस वाले कितने तकलीफों के बीच अपनी ड्यूटी पूरी कर रहे हैं. खासतौर पर छोटे पुलिस कर्मचारी. कोरोना के शुरूआती दौर में पुलिस के सहयोग और सेवा कार्य की अनेक खबरें आती रही लेकिन इस बार ये खबरें क्यों गायब है? क्या पुलिस ने सेवा कार्य बंद कर दिया है या जानबूझकर उन्हें अनदेखा किया जा रहा है. कोरोना किसी भी तरह से, कहीं से फैल सकता है लेकिन इस बात की परवाह किए बिना आपकी और हमारी चिंता में नगर निगम के कर्मचारी सेवा कार्य में जुटे हुए हैं. क्या इन सबकी सेवा भावना को आप अनदेखा कर सकते हैं. शायद नहीं.
        यह समय हमेशा नहीं रहने वाला है. लेकिन हमने समय रहते अपनी जिम्मेदारी नहीं समझा तो यह दुख हमेशा हमें सालता रहेगा. आप सिर्फ इतना करें कि आप और आपके नातेदार, दोस्तों और परिचय मेें आने वालों को अपने अपने घर पर रोक लें. सडक़ों पर भीड़ कम होगी तो तंत्र पर दबाब कम होगा और दबाव कम होगा तो परिणाम का प्रतिशत बड़ा होगा. क्यों ना हम सोशल मीडिया की ताकत का उपयोग कर लोगों को जागरूक बनाने में करें क्योंकि आलोचना से आपके मन को तसल्ली मिल सकती है लेकिन संकट मुंहबाये खड़ा रहेगा. यह संकट कब और किसके हिस्से में आएगा, कोई नहीं कह सकता. इससे अच्छा है कि संकट को हरने के लिए सोशल मीडिया संकटमोचक बने. कोरोना से बचने के छोटे उपाय मास्क पहनों, हाथ धोएं और आपस में दूरी बनाकर रखें. नमस्ते तो हमारी संस्कृति है. समय को आपकी हमारी जरूरत है. साथ चलिए क्योंकि कमियां गिनाने के लिए खूब वक्त  मिलेगा, पहले हम दुश्मन से दो-दो हाथ कर लें.     

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

विकास के पथ पर अग्रसर छत्तीसगढ़

-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे।  किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आसान नहीं है कि यही वह छत्तीसगढ़ है जिसने महज डेढ़ दशक के सफर में चौतरफा विकास किया है। विकास भी ऐसा जो लोकलुभावन न होकर छत्तीसगढ़ की जमीन को मजबूत करता दिखता है। एक नवम्बर सन् 2000 में जब समय करवट ले रहा था तब छत्तीसगढ़ का भाग्योदय हुआ था। साढ़े तीन दशक से अधिक समय से स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करते छत्तीसगढ़ के लिये तारीख वरदान साबित हुआ। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी कुछ विश्वास और असमंजस की स्थिति खत्म नहींं हुई थी। इस अविश्वास को तब बल मिला जब तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार नही हो सका था। कुछेक को स्वतंत्र राज्य बन जाने का अफसोस था लेकिन 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता सम्हाली और छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लू प्रिंट सामने आया तो अविश्वास का धुंध छंट गया। लोगों में हिम्मत बंधी और सरकार को जनसमर्थन मिला। इस जनसमर्थन का परिणाम यह निकला कि आज छत्तीसगढ़ अपने चौतरफा विकास के कारण देश के नक्शे

शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक

  शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक                                       स्वाधीनता संग्राम और महात्मा गांधी पर केन्द्रीत है.                      गांधी की बड़ी यात्रा, आंदोलन एवं मध्यप्रदेश में                                          उनका हस्तक्षेप  केन्दि्रय विषय है.

टेक्नो फ्रेंडली संवाद से स्वच्छत

मनोज कुमार           देश के सबसे स्वच्छ शहर के रूप में जब इंदौर का बार-बार जिक्र करते हैं तो मध्यप्रदेश को अपने आप पर गर्व होता है, मध्यप्रदेश के कई शहर, छोटे जिलों को भी स्वच्छ भारत मिशन के लिए केन्द्र सरकार सम्मानित कर रही है. साल 2022 में मध्यप्रदेश ने देश के सबसे स्वच्छ राज्य का सम्मान प्राप्त किया। स्वच्छता का तमगा एक बार मिल सकता है लेकिन बार-बार मिले और वह अपनी पहचान कायम रखे, इसके लिए सतत रूप से निगरानी और संवाद की जरूरत होती है. कल्पना कीजिए कि मंडला से झाबुआ तक फैले मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बैठकर कैसे निगरानी की जा सकती है? कैसे उन स्थानों में कार्य कर रही नगरपालिका,  नगर परिषद और नगर निगमों से संवाद बनाया जा सकता है? एकबारगी देखें तो काम मुश्किल है लेकिन ठान लें तो सब आसान है. और यह कहने-सुनने की बात नहीं है बल्कि प्रतिदिन मुख्यालय भोपाल में बैठे आला-अधिकारी मंडला हो, नीमच हो या झाबुआ, छोटे शहर हों या बड़े नगर निगम, सब स्थानों का निरीक्षण कर रहे हैं और वहां कार्य करने वाले अधिकारी-कर्मचारियों, सफाई मित्रों (मध्यप्रदेश में सफाई कर्मियों को अब सफाई मित्र कहा जाता है) के