भारतीय समाज के लिए जुलाई का महीना विशेष महत्व का होता है. इस महीने ज्ञान के द्वार खुलते हैं और हँसते-मुस्कराते नन्हें शिशु मन मोह लेते हैं. इस ज्ञान के द्वार को हम पाठशाला कहते हैं. हालाँकि नए दौर में पाठशाला शब्द वि
लुप्त होकर पब्लिक स्कूल जैसा हो गया है. साथ में नेशनल और इंटरनेशनल शब्द जुड़ गया है. कभी हमें शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी कि ‘विद्या ददाति विनयम्’ और अब यह गुरु मंत्र किताबों में बंद हो गया है. सुप्रभात के स्थान पर गुडमार्निंग सुहाने लगा है. शासकीय पाठशालाओं में प्रवेशोत्सव हो रहा है तो प्रायवेट स्कूलों में मोटी फीस और एप्रोच के साथ एडमिशन हो रहा है. भारतीय शिक्षण व्यवस्था की वर्तमान की सच्चाई है. कुछ तर्कहीन लोग कहते हैं कि यह बदलाव समय के साथ जरूरी है लेकिन मुझे यह तर्क कम कुतर्क ज्यादा लगता है. जब प्रायवेट स्कूल नहीं थे तब क्या होनहार प्रतिभावान विद्यार्थी नहीं आते थे? छड़ी लिए मास्साब से खौफ खाते बच्चे अपने माता-पिता से शिकायत नहीं कर पाते थे क्योंकि शिकायत का मतलब था एक बार और कुटाई. आज के बच्चे अपने मदर-फादर से शिकायत ही नहीं करते बल्कि सजा के लिए भी टीचर को कटघरे में खड़ा करने से नहीं हिचकते. यह बदलाव कैसा है? किस समाज का हम निर्माण कर रहे हैं? कौन सा भविष्य बच्चों को दे रहे हैं?
शिक्षा में यह बदलाव एकाएक नहीं हुआ. हमारे पास कोसने के लिए अंग्रेजों के जमाने के मैकाले है. उसे हम गरियाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं. सच से मुँह चुराते हमारे समाज का सच यही है कि हम बच्चों को मात्र अक्षर ज्ञान दे रहे हैं. उन्हें ना तो शिक्षित कर रहे हैं और ना दीक्षित कर रहे हैं. संस्कार और संस्कृति तो नेपथ्य में खड़ी बिसूर रही है. महँगी फीस और चमक-धमक वाले स्कूलों में सिर्फ डिग्री हासिल हो रही है. आज भी बहुत हद तक शासकीय पाठशाला की गरिमा और दिव्यता शेष है. कवि कुमार विश्वास अपने व्याख्यान में कहते हैं कि जब राज्य फेल होता है तब निजी संस्थाएँ इसकी जिम्मेदारी लेती हैं. शायद सच हो सकता है लेकिन क्या वे बताएँगे कि राज्य फेल क्यों हुआ? क्या हम सब राज्य के जिम्मेदार नागरिक नहीं हैं? वास्तव में इस भेड़चाल में हम सब शामिल हैं. यह भी सच है कि शिक्षक और पत्रकार की कोई नौकरी नहीं होती है. वह समाज को गढऩे का कार्य करता है लेकिन दुर्भाग्य से अब इन दोनों पुण्य कार्य को नौकरी का हिस्सा बना दिया गया है. जब शिक्षकों का इम्तहान लिया जाता है तो अधिकांश सिफर साबित होते हैं. कोई इम्तहान पत्रकारों के लिए भी हो तो वह भी शायद इसी पैमाने पर उतरें. एक चलन चल पड़ा है कि देखों शिक्षा गर्त में जा रही है, देखो पत्रकारिता पर लोगों का भरोसा उठ गया है. बात सच भी है लेकिन इस बात का जवाब कौन देगा कि यह गिरावट जब आपके समय में, आपकी उपस्थिति में हो रही थी, तब आपने क्या किया?
सिर्फ दोषारोपण से कुछ नहीं होने वाला. शिक्षा की जो हमारी गुरुकुल परम्परा है, जो ‘विद्या ददाति विनयम्’ की बुनियादी अवधारणा है, उसे पुर्नजीवित करना होगा. इस दिशा में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में कुछ कारगर प्रयास किया गया है. कौशल उन्नयन को प्राथमिकता दी गई है. मातृभाषा को भी आगे रखा गया है. एक नजर में इस नवीन शिक्षा नीति की प्रशंसा की जा सकती है लेकिन इसके क्रियान्वयन में अपार बाधा है. सबसे बड़ी बाधा है बजट का और इसके बाद आधारभूत ढाँचा को सुदृढ़ बनाने की. इसके बाद अध्ययन-अध्ययापन के लिए प्रशिक्षित से ज्यादा समर्पित शिक्षकों की जरूरत होगी. जो लोग नौकरी मान कर आ रहे हैं, उनसे यह अपेक्षा बेमानी होगी कि वे विद्यार्थियों को ‘विद्या ददाति विनयम्’ का पाठ पढ़ा सकें. शिक्षक के लिए वचनबद्धता की जरूरत होगी. हम यह नहीं कहते कि उनके कार्य के लिए मानदेय ना मिले. सम्मानजनक और परिवार चलाने लायक मिले लेकिन इसमें वे सुविधाभोगी ना हो जाएँ. इस बात का विशेष खयाल रखना होगा. हम उम्मीद करते हैं कि आने वाले समय में शासकीय पाठशालाओं का गौरव बढ़ेगा. गुरुकुल की व्यवस्था संभव ना हो तो ना हो लेकिन शिक्षण व्यवस्था में उसका भाव दिखना चाहिए.
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