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मनुष्यता के देवदूत हैं श्रमिक साथी


मनोज कुमार

मेहतनकश की दुनिया को सलाम करता एक मई. वह एक मई जिसे हम श्रमिक दिवस के रूप में जानते हैं. वही श्रमिक साथी जिनके पास जीवन जीने लायक मजदूरी से मिला मेहताना होता है. घर पर कोई पक्की छत नहीं. धरती को बिछा लेते हैं और आसमां को ओढ़ लेते हैं. इनकी उम्मीदें भी कभी हिल्लोरे नहीं मारती है. मोटरकार से लेकर जहाज तक खड़ा कर देते हैं लेकिन इसमें सवार होने की इच्छा कभी नहीं होती है. ये श्रमिक रचनाकार हैं और इनसे समाज की धडक़न है. इन्हें अपना अधिकार भी पता है और दायित्व भी. अधिकार के लिए कभी अड़े नहीं लेकिन दायित्व से पीछे हटे नहीं. आज की तारीख से पहले अखबार में खबर छपी कि देश के प्लांट मे ऑक्सीजन निर्माण में जुटे श्रमिकों ने अपने खाना इसलिए छोड़ दिया कि उन्हें पहले काम पूरा करना है. यह जज्बा श्रमिकों में ही हो सकता है. श्रमिक श्रेष्ठ हैं तो इसलिए नहीं कि वे श्रमिक हैं बल्कि एक तरह से वे रचियता हैं. मांगना इनकी आदत में नहीं है. देना इनकी फितरत में शामिल है. आत्मस्वाभिमान से जीने वाले श्रमिक साथी अपना भोजन छोडक़र एक संदेश दिया है कि आओ, पहले जान बचायें. एक-एक जान की कीमत श्रमिक साथियों को पता है.
    इस हाहाकार समय में सब डरे हुए हैं. सहमे हुए हैं. अपना जीवन कैसे बचा लें, यह हर व्यक्ति की चिंता है. धडक़न बचाने के लिए तिजोरियों के ताले खोल दिए गए हैं. जमीन-जायदाद बेचकर जीवन बचाने की जद्दोजहद चल रही है. यह हालात किसी एक घर, एक परिवार, एक शहर या देश की नहीं बल्कि हर जगह है. जीवन बचाना इस समय सबसे बड़ी जरूरत है. इस बैरी बीमारी ने रिश्तों के मायने सिखा दिया है. लोभ-लालच से परे भी कोई जिंदगी होती है, यह भी हम सीखने लगे हैं. लेकिन एक बड़ी सच्चाई यह है कि इस कोरोना बीमारी के पहले भी और वर्तमान समय में और शायद दुनिया के रहने तक एक ऐसा वर्ग है जिसके जेहन में सिर्फ एक बात है कि मनुष्य बने रहना. वह है हमारे श्रमिक. ऐसा नहीं है कि कोरोना श्रमिकों से कोई दोस्ती निभा रहा है या उनकी जान बख्श रहा है. सरकारी आंकड़ों में उनकी गिनती नहीं के बराबर है. उनके पास तिजोरी नहीं है. बैंकों में खाते नहीं है और अस्पताल में इलाज के लिए कोई सोर्स और रसूख नहीं है. लेकिन उनके पास है उनका आत्मविश्वास. वे खोकर भी दुखी होना जाहिर नहीं करते हैं. उल्टे दुखी लोगों के आंसू पोंछने में वे सबसे आगे होते हैं. भोजन छोडक़र ऑक्सीजन बनाने में जुटे श्रमिकों की खबर इसकी बानगी है. ऐसी अनगिनत खबरें होंगी जो आपके आसपास से गुजर रही होगी लेकिन अखबारों की सुर्खियों में जगह नहीं पा रही हैं. एक ऑटो चालक इन्हीं में से एक है जो अपना नफा-नुकसान छोडक़र लोगों की सेवा में जुटा हुआ है. उन्होंने कभी कोई मांग नहीं की कि उन्हें कोरोना वारियर ऐलान किया जाए. अपने लिए ना जतन मांगा और न मांगा कुछ.  
    मनुष्यता के देवदूत हैं श्रमिक. खामोशी के साथ वे जीते हैं उन्हें अपनी ताकत भी पता है. लेकिन वे अपनी ताकत का उपयोग नहीं करते हैं. वे सहिष्णु हैं. उपकार करना उनकी ताकत है. अपने नेक कार्यों को लेकर इतराना उन्हें आता नहीं. उनकी जिंदगी में रंग नहीं है तो बदरंग भी नहीं है. सेवा का भीतर से जो सतरंगी दुनिया उन्हें हमेशा ऊर्जावान रखती है, वही उनकी दुनिया है. श्रमिक साथियों का हक देने की बात हमेशा होती रही लेकिन कागज से कभी बाहर नहीं आ पाया. वायदों और बातों में लिपटी चिकनी-चुपड़ी राजनीतिक ऐलान को वो बेहतर जानते हैं. वो जो कसी हुई मुठ्ठी चित्रों में जो आपको दिखती है, वही उनकी ताकत है. वो रच सकते हैं तो बिगाड़ भी सकते हैं. जब एक साथ खड़े हो जाएं तो सरकारें हिल जाती हैं. परिवर्तन की ऐसी बयार चलती है कि सत्ताधीशों के सामने कुचलने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता है. इतिहास इस बात का गवाह है. ऐसे अनगिनत किस्से आप पढ़ सकते हैं जब श्रमिक आंदोलन को कुचला गया.
    
वो जब कहते हैं कि मेहनतकश जब भी अपना हिस्सा मांगेगे/इक गांव नहीं/ इक खेत नहीं/ पूरी की पूरी दुनिया मांगेगे. श्रमिक साथी हमेशा इस बात से मुतमइन हैं कि ‘हम होंगे कामयाब’. उनकी कामयाबी कभी छीनने में नहीं रही. वे एक टुकड़ा जमीन और एक टुकड़ा आसमा से खुश हैं. आज इस कोरोना काल में श्रमिक साथी अपनी किसम की अपने फितरत से मानवता की मिसाल कायम कर रहे हैं. दुख और अफसोस इस बात का है कि हम उनकी इस नेक-नीयती को सम्मान नहीं दे पाते हैं. खैर, उन्हें इस बात का रंज भी नहीं है. वे बुनियाद के पत्थर बने रहना चाहते हैं और उन्हें इसी का संतोष है. इस विकट समय में हर धडक़न को बचाने वाले योद्धा श्रमिक साथियों को सलाम.  
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