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श्यामपट्ट से की-बोर्ड तक हिन्दी

 मनोज कुमार

हर साल की तरह बिसूरने के लिए 14 सितम्बर का दिन फिर आ गया और यह अंक जब आपके हाथों में होगा, दिन, सप्ताह, पखवाड़ा और महीना लोप हो चुका होगा. कदाचित हिन्दी डे से हिन्दी मंथ पर बहस चल रही होगी. हिन्दी को लेकर हमारा आग्रह-अनुराग होना चाहिए और यह हो भी रहा है लेकिन हिन्दी को लेकर हमें हीनता से बाहर आना होगा. कल तक जो हिन्दी मध्यम और निम्र मध्यम वर्ग की भाषा थी, आज वह गूगल की भाषा बनकर पूरी दुनिया की जरूरत बन गई है. एक समय था जब अंग्रेजी पत्रिकाओं को हिन्दी में अनुदित होकर पाठकों के मध्य आना विवशता थी कि क्योंकि अंग्रेजी से उनका जीवन गुजरता था लेकिन रोटी हिन्दी से ही मिलती थी. टेक्रालॉजी के विस्तार के साथ हिन्दी का साम्राज्य बढ़ता चला गया. कल तक भारतीय प्रकाशक हिन्दी को मजबूरी मान रहे थे तो आज वैश्विक समाज के लिए हिन्दी जरूरी है. ऐसे में हिन्दी को लेकर विलाप करने के बजाय हमें हिन्दी के प्रभाव पर चर्चा करना चाहिए. हिन्दी कभी रूढ़िवादी नहीं रही. बल्कि वह बहते निर्मल जल की तरह अपना रास्ता बनाती गई. भाषा का यह लचीलापन हिन्दी का सबसे सबल पक्ष है. उसके समक्ष यह बंधन कभी नहीं रहा कि वह किसी एक कालखंड में बंधी रहे. हिन्दी के ज्ञाता इस बात से सहमत होंगे कि हिन्दी हर कालखंड में स्वयं को परिवर्तित और स्वयं को समृद्ध बनाती गई. घूरे से गूगल तक के अपनी यात्रा में हिन्दी ने अंग्रेजी को बार-बार आईना दिखाया है. आज जब हम हिन्दी दिवस उत्सव मना रहे हैं तब हमें हिन्दी के गौरव पक्ष को नयी पीढ़ी के समक्ष रखना होगा.

कभी-कभी तो लगता है कि एक सुनियोजित ढंग से हिन्दी को पीछे रखने की साजिश की जा रही है. हिन्दी हमारी मातृभाषा है और मां को मां कहने के लिए सिखाने की जरूरत नहीं होती है तब हिन्दी को सीखने-सिखाने के लिए हम क्यों बेताब हैं? अंग्रेजी सीखने-सिखाने के लिए हमने जोर नहीं डाला लेकिन लोग उसके सम्मोहित हैं तो ऐसा व्यवहार हिन्दी के साथ क्यों नहीं होना चाहिए? कोविड महामारी के दौर में हिन्दी की प्रतिष्ठा में और भी श्रीवृद्धि हुई है. सुदूर गांव में बैठा बच्चा जो ठेठ हिन्दी का है, उसने भी अपनी पढ़ाई पूरी की और शहर में बैठा बच्चा भी. कल्पना कीजिए कि जब शालाओं के कपाट बंद थे और लोग घरों में कैद थे, तब भी जीवन चल रहा था. यह कैसे संभव हुआ? कौन सा जादू था जो बच्चों को शिक्षित भी कर रहा था और समाज को सूचित भी. यह इसलिए संभव हुआ कि हिन्दी हठी नहीं हुई बल्कि टेक्रालॉजी की संगी बन गई. यह दीगर बात है कि तकनीकी कारणों से व्यवधान हुआ लेकिन हिन्दी जीवन को सहज बनाने में सहायक रही, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है. यह हिन्दी की ताकत है कि वह निराला और पंत को साथ लेकर चलती है तो परसाईं और दुष्यंत कुमार भी साथ होते हैं.

हिन्दी राजभाषा है, उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की हिमायत हम करते रहे हैं लेकिन यह संभव नहीं होते दिख रहा है तो यह हमारे कमजोर आत्मबल का प्रतीक है. सरकार किसी की भी रही हो लेकिन सबका आग्रह हिन्दी रहा है लेकिन वह केवल भाषणों में सीमित रहा. इसके पीछे क्या कारण है, इसे तलाश किया जाना चाहिए. हमारा आग्रह हिन्दी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बने लेकिन हम स्वयं उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दे नहीं पा रहे हैं तब शिकायत कैसी? कोई भी शुभ कदम हमारे अपने द्वार से होना चाहिए तब दुनिया हल्दी-कुंकुम लिये खड़ी होगी. एक शिकायत जायज है कि हिन्दी के प्रकाशनों, खासकर दैनिक अखबारों के पन्नों पर जो बेहिसाब अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग होता है, उससे बचना चाहिए. कुछेक शब्द जो बोलचाल में हिन्दी मान लिये गए हैं, उनका उपयोग तो ठीक है लेकिन जानबूझकर अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग करना और यह कहना कि नयी पीढ़ी ऐसा ही समझती है तो आप स्वयं को धोखे में रख रहे हैं. हिन्दी, हिन्दुस्तानी भाषा है और इसकी मिठास और अपनापन भी इसी में है. यह गैरवाजिब बात होगी कि हम हिन्दी के उन कठिन शब्दों का उपयोग करें, जो आज की पीढ़ी की समझ से बाहर है. हिन्दी का गौरव हमेशा कायम रहेगा, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए.

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