रविवार, 9 अगस्त 2009

यह मीडिया की भाषा तो नहीं

हैमनोज कुमारभारत सरकार की रेलमंत्री ममता बेनर्जी ने रेल बजट पेश किया तो अखबारों ने हेडलाइन बनायी ममता ने ममता उडेला, ममता दीदी की ममता वगैरह वगैरह और इसके थोड़े अंतराल में जब केन्द्रीय वित्तमंत्री ने देश का बजट पेश किया ता फिर अखबारों ने लिखा प्रणव दा......इन सबके पहले 30 जून को जब मध्यप्रदेश के नवनियुक्त राज्यपाल ने पदभार ग्रहण किया तो अखबारों का शीर्षक था ठाकुर ने पदभार सम्हाला....यह शीर्षक बनाने वालों ने भी नहीं सोचा होगा कि वे क्या लिख रहे हैं, उनके दिमाग में केवल एक बात रही होगी कि लोकप्रिय शीर्षकों का गठन कैसे किया जाये। उन्हें इस बात का भी ध्यान नहीं रहा कि शीर्षक के गठन की एक मर्यादा होती है और उस मर्यादा की सीमारेखा को कितना लांघा जाए? ममता बेनर्जी ने बजट केन्द्रीय रेलमंत्री की हैसियत से पेश किया था और प्रणव मुखर्जी ने देश का बजट केन्द्रीय वित्त मंत्री के नाते। ऐसे में स्वाभाविक रूप से उनका मीडिया से नाता केन्द्रीय मंत्री के रूप में है न कि मीडिया से रिश्तेदारी। इसी तरह मध्यप्रदेश के राज्यपाल के पदग्रहण करने पर जो शीर्षक अखबारों ने लगाया उसमें महामहिम शब्द नदारद था। फौरीतौर पर जो शीर्षक बनाया गया या बनाया जा रहा है, उसको लेकर कोई गंभीर नहीं दिख रहा है किन्तु इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि समाचार पत्र भले ही हड़बड़ी में लिखा गया साहित्य हो लेकिन इतिहास का हिस्सा तो है ही। हम ऐसे ऐतिहासिक भूल कैसे कर सकते हैं लेकिन कर रहे हैं।मुझे याद है कि जब मैं छोटा था। छोटा यानि दूसरी या तीसरी कक्षा के आसपास। तब अखबार की कीमत पांच पैसे होती थी। सुबह सवेरे अखबार की बड़ी बेसब्री से इंतजार होता था। घर पर हिदायत थी कि अखबार के शीर्षक को हिज्जा लगाकर पढ़ो। अखबार पढ़ने से हिन्दी सुधरती है। आज जब अखबारों में भाषा का जो खिलवाड़ हो रहा है, उसे देखने के बाद मन बेचैन हो जाता है। सहज ही समझ नहीं आता कि कभी बच्चों को हिन्दी सिखाने वाले अखबार कहां गुम हो गये। मीडिया की भाषा की चिंता है और इन दिनांे मीडिया की भाषा को लेकर चिंता भी जाहिर की जा रही है। खासतौर पर हिन्दी मीडिया की भाषा को लेकर। दूसरी तरफ मीडिया में भाषा को लेकर नित नये प्रयोग हो रहे हैं। हिन्दी अंग्रेजी मिश्रित भाषा को लेकर आपत्ति की जाती रही है और बाद में चुपके से मान लिया गया कि यह हिेग्लिश है और समय की जरूरत के अनुरूप इसे मान लिया जाये। अब मीडिया में लिखने और बोलने में बेरोकटोक अंग्रेजी शब्दों का कहीं जरूरत के अनुरूप तो कहीं बेजा इस्तेमाल हो रहा है। हिन्दी का कोई उपयुक्त शब्द न सूझे तो अंग्रेजी को चिपका दो। पाठक भी इस बात को लेकर कोई आपत्ति नहीं करते हैं। उन्हें भी शायद अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी पढ़ना सुहाने लगा है। इस बात को मानने में कोई गुरेज नहीं करना चाहिए कि यह जो दौर है उसमें दोनों ही कमजोर हो गये हैं। लिखने वाले की हिन्दी कमजोर है और पढ़ने वाला सीखना नहीं चाहता है।अभी हाल के अखबारों मेें कुछ खबरों के शीर्षक को पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि अखबार अब खबर नहीं लिख रहे हैं बल्कि रिश्तेदारी निभा रहे हैं। केन्द्रीय रेल मंत्री दीदी का संबोधन पा रही हैं तो वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी दा बन गये हैं। लालू, मुलायम, मायावती, सोनिया आदि को सीधे नाम से बुलाने की सीख तो हमें अंग्रेजी मीडिया ने दी है। अंग्रेजी से हम इतना ही ले पाये क्योंकि बाकि लेना कठिन होगा। यदि ऐसा नहीं होता तो मध्यप्रदेश के नवनियुक्त राज्यपाल के पदभार के बाद छपने वाली खबर का शीर्षक यह नहीं बनता ठाकुर ने पदभार सम्हाला। कोई बतायेगा कि ये ठाकुर कौन हैं? राज्यपाल के साथ महामहिम लिखने की परम्परा है और परम्परा लांघने वालों के लिये यह जरूरी है कि वे पद की गरिमा का ध्यान रखें। महामहिम न सही, राज्यपाल तो लिखें। एक समय हिन्दी का प्रखर समाचार पत्र नईदुनिया इस परम्परा का वाहक था जो नवदुनिया होने के साथ इस परम्परा को भूलने लगा है। नईदुनिया प्रबंधन को यह बात अखरने वाली लग सकती है तो मुझ जैसे पाठक और दुर्भाग्य से इस पेशे का एक पुराना साथी होने के नाते दुख है और यह सवाल बार बार मेरे सामने उभरता है कि हम अपनी भावी पीढ़ी को कौन सी भाषा देकर जाएंगे?रोज अखबारों के शीर्षकों पर गौर करें तो समझ में नहीं आता कि क्या लिखा जा रहा है और क्या कहना चाहते हैं। मीरा कुमार लोकसभा की अध्यक्ष बनीं तो अखबारों का शीर्षक था मीराकुमार ने इतिहास बनाया। मुझ जैसे अल्पज्ञानी को यह बात समझ में नहीं आयी कि आखिर मीरा कुमार ने इतिहास किस तरह बनाया लेकिन धन्यवाद पंजाब केसरी जिसका शीर्षक था लोकसभा ने इतिहास बनाया। अर्थ खोते इन शीर्षकों के प्रति पाठक भी जागरूक नहीं रह गये हैं। पूरी खबर की भाषा पढ़ें तो लगता है कि हम अखबार पढ़ क्यों रहे हैं। एक अखबार में खबर छपी जिसमें लिखा था कि एक पत्रकार वार्ता में पत्रकारों को बताया....अब इसे क्या समझा जाए? खबर लिखने वाले की नासमझी या या खबर लिख पाने की समझ की कमी।यह भी कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि लगभग हर दिन कहीं न कहीं अखबार के मसले को लेकर चिंता करते हुए सभा संगोष्ठि का आयोजन हो रहा है। इन गोष्ठियों में एक ही सवाल होता है कि पत्रकारिता व्यवसायिक हो गई है या फिर पत्रकारिता में अच्छे लोग नहीं आ रहे हैं लेकिन कोई पत्रकारिता की भाषा, कंटेंट पर बात नहीं करता है। पत्रकार बन जाने का मतलब ही है कि आप भाषा के ज्ञाता हैं और फिर इस पर बात करने से फायदा क्या। मेरी अपनी निजी राय है कि पत्रकारिता एकमात्र ऐसा कार्य है जहां जब भी गलत लोग आएंगे, खुद ब खुद बेनकाब होकर बाहर चले जाएंगे। ऐसा हो भी रहा है। इन पर नजर रखें लेकिन समय और विचार इन पर जाया करने के बजाय पत्रकारिता अपने स्तर को कैसे बनाये रखे, इसकी चिंता जरूरी है। भाषा, कंटेंट, लेआउट आदि पर चर्चा की जानी चाहिए जो नहीं हो रहा है।

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