ऐसे में कैसे बचेगी लाडली?
मनोज कूमार
रूढ़िवादी भारतीय समाज की पहली पसंद हमेशा से बेटा रहा है। बेटियों को दूसरे दर्जे पर रखा गया। यही नहीं, पालन पोषण में भी उनके साथ भेदभाव जगजाहिर है। बेटियों को जन्म से माने के पहले मार देने की निर्मम खबरें अब बासी हो गयी है। बेटियों के साथ इस सौतेलेपन का दुष्परिणाम यह हुआ कि आहिस्ता आहिस्ता बेटियों की तादाद घटती गयी। यह स्थिति किसी भी समाज अथवा देश के लिये ठीक नहीं कहा जा सकता और भारत के स्तर पर तो यह बेहद चिंता का विषय रहा है। इस स्थिति से उबरने के लिये सरकार और समाज लगातार सक्रिय है। पिछले एक दशक में इस दिशा में खासा प्रयास किया गया। इन प्रयासों में करोड़ों के बजट का प्रावधान किया गया नतीजतन परिणाम सौ प्रतिशत भले ही न रहा हो लेकिन एक कदम तो आगे बढ़ा गया। कहना न होगा कि इन प्रयासों का परिणाम आने वाले समय में और भी व्यापक स्तर पर देखने को मिलता किन्तु एक साजिश के साथ न केवल लाड़ली पर खतरा मंडरा रहा है, सरकारी और निजी प्रयासों पर पानी फेरा जा रहा है बल्कि समाज में अनैतिकता को खामोशी के साथ बढ़ाया जा रहा है।
टेलीविजन के पर्दे पर और समाचार पत्रों में सेक्स को लेकर अनेक किस्म के विज्ञापन दिये जा रहे हैं। हर कंपनी के अपने दावे हैं और इन दावों की सच्चाई केवल इतनी है कि इससे सेक्स सफल हो या न हो, समाज में अनैतिकता बढ़ रही है। मुझे और मेरी उम्र्र के उन तमाम लोगों को याद होगा कि सामाजिक बंधन के चलते महिलायें माहवारी के समय रसोई से दूर रहती थीं। इन दिनांे में वे अलग-थलग बैठी रहती थीं। बचपन और किशोरावस्था का मन उनके इस अकेलेपन के कारण को समझने की कोशिश में लगा रहता था। जवाब नहीं मिलता था। थोड़ा डर और थोड़े लिहाज के बाद मन में आ रहे सवालों को झटक दिया जाता था। समय बदला और इस बदले समय में सारे मायने बदल गये। अब यह सवाल पांच साल की नन्हीं उम्र के बच्चों को जिज्ञासु नहीं बनाते हैं बल्कि वे इस उम्र में इस मामले के शिक्षक बन गये हैं। उन्हें महिलाओं की निजता के बारे में पूरा ज्ञान है। यह ज्ञान उन्हें परिवार से नहीं मिला। टेलीविजन के पर्दे पर कंडेाम और गर्भनिरोधक दवाआंें के सेक्सी विज्ञापनांे ने उन्हें बता दिया है कि उनकी निजता अब निजता नहीं रही। अभी कुछ समय से बाजार में प्रीगनेंसी टेस्ट करने की एक साधारण विधि आ गयी है जिसमें किसी युवती या स्त्री को किसी से कुछ बताने अथवा किसी अस्पताल में जाने की कोई जरूरत नहीं रह गयी है। वह मनचाहे ढंग से जांच कर सकती है। इसी तरह बाजार में ऐसी गोलियां और दूसरी चीजें उपलब्ध हैं जिसके उपयोग के बाद गर्भवती होने की संभावना लगभग क्षीण हो जाती हैं। अब तक प्रीगनेंसी टेस्ट के लिये पेथोलॉजी लेब का सहारा लिया जा जाता था जिससे कई बार यह सवाल उठता था ऐसा क्यों कराया जा रहा है। और जब रिपोर्ट पॉजिटिव आ जाए तो वह स्त्री या युवती सवालों के घेरे में कैद हो जाया करती थी। पचास रूप्ये के मामूली खर्च पर स्त्री को संदेह से परे कर दिया गया है। समाज में जिस तरह वर्जनाएं टूट रही हैं, उसमें उपर लिखी गयी बातें कोई अर्थ नहीं रखती हैं लेकिन मैं इसे दूसरे रूप में ले रहा हूं और इसके खतरे को दूसरी तरह से देख रहा हूं। गोलियों के सेवन के बाद गर्भवती न होने से किसी अनचाहे बच्चे की जान जाने का खतरा तो नहीं होता है लेकिन प्रीगनेंसी टेस्ट करने वाली पचास रूप्ये की टेस्ट पट््टी का अर्थ एक अजन्मे बच्चे को गर्भ में ही मार देेने का सबसे आसान तरीका निकाल लिया गया है।
इसे थोड़ा और विस्तार से समझेंं। एक तरफ पूरी दुनिया में बेटी बचाओ अभियान चल रहा है और दूसरी तरफ इस तरह टेस्ट की सुविधाएं तो खतरे को और भी बढ़ा रही हैं क्यांेकि प्रीगनेंसी का पता चलने के बाद चरित्रहीनता के दाग से बचने के लिये गर्भ गिराने का आनन-फानन में इंतजाम कर लिया जाता है। इसमें इतना भी वक्त नहीं होता है कि वे यह जान सकें कि आने वाली जान बेटा था या बिटिया। मान लीजिये एक समय में सौ ऐसी स्त्री प्रीगनेंसी की जांच कराती हैं और मेरा मानना है कि इसमें 98 लोग वे हैं जिन्होंने विवाहत्तेर संबंध कायम कर लिये हैं और वे बेटे या बिटिया के फेर में न पड़कर समस्या मानकर मुक्ति पाना चाहती हैं। इस स्थिति में सरकार और निजी प्रयास निरर्थक साबित होते जाएंगे क्योंकि अजन्मे जान को मारने वालों को यह पता ही नहीं है िकवह लाड़ली थी या लाडला। इस पूरे मामले में दुर्भाग्य की बात है कि टेलीविजन के पर्दे पर लोकप्रिय हो चुकी अभिनेत्री इस प्रोडक्ट के प्रचार प्रसा में जुड़ी हैं। शायद उन्हें इस बात का इल्म नहीं है कि वे किस तरह के विज्ञापनों का साथ दे रही हैं। इस मुद्दे पर हैरत और तकलीफ देेने वाली बात यह है कि समाज के दूसरे लोग भी बहुत जागरूक नहीं हैं। वे इसे रोजमर्रा की चीज बता कर किनारा कर लते हैं। कुछ लोग इस मुद्दे को उतना गंभीर नहीं मानते हैं बल्कि उनका सोचना है कि जब समाज में अनैतिकता बढ़ रही है तो इस पर चर्चा करने का लाभ क्या? कुछ लोग इसे सेक्स का विषय समझकर मानसिक जुगाली करने लगते हैं।
मेरी अपनी निजी राय है कि ऐसे विज्ञापनों के खिलाफ, ऐसी दवाईंया और प्रोडेक्ट के खिलाफ स्वयंसेवर संस्थाओं को, बुद्विजीवियों को और सामाजिक सरोकार से नाता रखने वालों को आगे आना चाहिए क्योंकि यह महज समाज में अनैतिकता को विस्तार नहीं दे रहे हैं बल्कि लाड़ली को बचाने के एक महायज्ञ के सफल होने के पहले उसमें व्यवधान उपस्थित करने के प्रयास में हैं। मीडिया की भूमिका इसमें कारगर हो सकती है और यह उसका दायित्व भी है िकवह ऐसे किसी भी प्रयासों के खिलाफ समाज को जागृत करे।
मनोज कूमार
रूढ़िवादी भारतीय समाज की पहली पसंद हमेशा से बेटा रहा है। बेटियों को दूसरे दर्जे पर रखा गया। यही नहीं, पालन पोषण में भी उनके साथ भेदभाव जगजाहिर है। बेटियों को जन्म से माने के पहले मार देने की निर्मम खबरें अब बासी हो गयी है। बेटियों के साथ इस सौतेलेपन का दुष्परिणाम यह हुआ कि आहिस्ता आहिस्ता बेटियों की तादाद घटती गयी। यह स्थिति किसी भी समाज अथवा देश के लिये ठीक नहीं कहा जा सकता और भारत के स्तर पर तो यह बेहद चिंता का विषय रहा है। इस स्थिति से उबरने के लिये सरकार और समाज लगातार सक्रिय है। पिछले एक दशक में इस दिशा में खासा प्रयास किया गया। इन प्रयासों में करोड़ों के बजट का प्रावधान किया गया नतीजतन परिणाम सौ प्रतिशत भले ही न रहा हो लेकिन एक कदम तो आगे बढ़ा गया। कहना न होगा कि इन प्रयासों का परिणाम आने वाले समय में और भी व्यापक स्तर पर देखने को मिलता किन्तु एक साजिश के साथ न केवल लाड़ली पर खतरा मंडरा रहा है, सरकारी और निजी प्रयासों पर पानी फेरा जा रहा है बल्कि समाज में अनैतिकता को खामोशी के साथ बढ़ाया जा रहा है।
टेलीविजन के पर्दे पर और समाचार पत्रों में सेक्स को लेकर अनेक किस्म के विज्ञापन दिये जा रहे हैं। हर कंपनी के अपने दावे हैं और इन दावों की सच्चाई केवल इतनी है कि इससे सेक्स सफल हो या न हो, समाज में अनैतिकता बढ़ रही है। मुझे और मेरी उम्र्र के उन तमाम लोगों को याद होगा कि सामाजिक बंधन के चलते महिलायें माहवारी के समय रसोई से दूर रहती थीं। इन दिनांे में वे अलग-थलग बैठी रहती थीं। बचपन और किशोरावस्था का मन उनके इस अकेलेपन के कारण को समझने की कोशिश में लगा रहता था। जवाब नहीं मिलता था। थोड़ा डर और थोड़े लिहाज के बाद मन में आ रहे सवालों को झटक दिया जाता था। समय बदला और इस बदले समय में सारे मायने बदल गये। अब यह सवाल पांच साल की नन्हीं उम्र के बच्चों को जिज्ञासु नहीं बनाते हैं बल्कि वे इस उम्र में इस मामले के शिक्षक बन गये हैं। उन्हें महिलाओं की निजता के बारे में पूरा ज्ञान है। यह ज्ञान उन्हें परिवार से नहीं मिला। टेलीविजन के पर्दे पर कंडेाम और गर्भनिरोधक दवाआंें के सेक्सी विज्ञापनांे ने उन्हें बता दिया है कि उनकी निजता अब निजता नहीं रही। अभी कुछ समय से बाजार में प्रीगनेंसी टेस्ट करने की एक साधारण विधि आ गयी है जिसमें किसी युवती या स्त्री को किसी से कुछ बताने अथवा किसी अस्पताल में जाने की कोई जरूरत नहीं रह गयी है। वह मनचाहे ढंग से जांच कर सकती है। इसी तरह बाजार में ऐसी गोलियां और दूसरी चीजें उपलब्ध हैं जिसके उपयोग के बाद गर्भवती होने की संभावना लगभग क्षीण हो जाती हैं। अब तक प्रीगनेंसी टेस्ट के लिये पेथोलॉजी लेब का सहारा लिया जा जाता था जिससे कई बार यह सवाल उठता था ऐसा क्यों कराया जा रहा है। और जब रिपोर्ट पॉजिटिव आ जाए तो वह स्त्री या युवती सवालों के घेरे में कैद हो जाया करती थी। पचास रूप्ये के मामूली खर्च पर स्त्री को संदेह से परे कर दिया गया है। समाज में जिस तरह वर्जनाएं टूट रही हैं, उसमें उपर लिखी गयी बातें कोई अर्थ नहीं रखती हैं लेकिन मैं इसे दूसरे रूप में ले रहा हूं और इसके खतरे को दूसरी तरह से देख रहा हूं। गोलियों के सेवन के बाद गर्भवती न होने से किसी अनचाहे बच्चे की जान जाने का खतरा तो नहीं होता है लेकिन प्रीगनेंसी टेस्ट करने वाली पचास रूप्ये की टेस्ट पट््टी का अर्थ एक अजन्मे बच्चे को गर्भ में ही मार देेने का सबसे आसान तरीका निकाल लिया गया है।
इसे थोड़ा और विस्तार से समझेंं। एक तरफ पूरी दुनिया में बेटी बचाओ अभियान चल रहा है और दूसरी तरफ इस तरह टेस्ट की सुविधाएं तो खतरे को और भी बढ़ा रही हैं क्यांेकि प्रीगनेंसी का पता चलने के बाद चरित्रहीनता के दाग से बचने के लिये गर्भ गिराने का आनन-फानन में इंतजाम कर लिया जाता है। इसमें इतना भी वक्त नहीं होता है कि वे यह जान सकें कि आने वाली जान बेटा था या बिटिया। मान लीजिये एक समय में सौ ऐसी स्त्री प्रीगनेंसी की जांच कराती हैं और मेरा मानना है कि इसमें 98 लोग वे हैं जिन्होंने विवाहत्तेर संबंध कायम कर लिये हैं और वे बेटे या बिटिया के फेर में न पड़कर समस्या मानकर मुक्ति पाना चाहती हैं। इस स्थिति में सरकार और निजी प्रयास निरर्थक साबित होते जाएंगे क्योंकि अजन्मे जान को मारने वालों को यह पता ही नहीं है िकवह लाड़ली थी या लाडला। इस पूरे मामले में दुर्भाग्य की बात है कि टेलीविजन के पर्दे पर लोकप्रिय हो चुकी अभिनेत्री इस प्रोडक्ट के प्रचार प्रसा में जुड़ी हैं। शायद उन्हें इस बात का इल्म नहीं है कि वे किस तरह के विज्ञापनों का साथ दे रही हैं। इस मुद्दे पर हैरत और तकलीफ देेने वाली बात यह है कि समाज के दूसरे लोग भी बहुत जागरूक नहीं हैं। वे इसे रोजमर्रा की चीज बता कर किनारा कर लते हैं। कुछ लोग इस मुद्दे को उतना गंभीर नहीं मानते हैं बल्कि उनका सोचना है कि जब समाज में अनैतिकता बढ़ रही है तो इस पर चर्चा करने का लाभ क्या? कुछ लोग इसे सेक्स का विषय समझकर मानसिक जुगाली करने लगते हैं।
मेरी अपनी निजी राय है कि ऐसे विज्ञापनों के खिलाफ, ऐसी दवाईंया और प्रोडेक्ट के खिलाफ स्वयंसेवर संस्थाओं को, बुद्विजीवियों को और सामाजिक सरोकार से नाता रखने वालों को आगे आना चाहिए क्योंकि यह महज समाज में अनैतिकता को विस्तार नहीं दे रहे हैं बल्कि लाड़ली को बचाने के एक महायज्ञ के सफल होने के पहले उसमें व्यवधान उपस्थित करने के प्रयास में हैं। मीडिया की भूमिका इसमें कारगर हो सकती है और यह उसका दायित्व भी है िकवह ऐसे किसी भी प्रयासों के खिलाफ समाज को जागृत करे।
manoij ji apke lekh vastav me ek nye chintan ko janam dene vale hote hai,...achche lekh ke liye danyvad
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